संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 75वीं सालगिरह के मौके पर असली आजादी तो यह हो सकती है...
06-Aug-2022 5:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 75वीं सालगिरह के मौके पर असली आजादी तो यह हो सकती है...

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एक-एक करके देश के सभी बड़े अखबारों ने इस बात पर रिपोर्ट छाप ली है कि बस्तर में किस तरह करीब सवा सौ बेकसूर आदिवासियों को एनआईए ने नक्सल आरोपों में पांच बरस तक जेल में सड़ाए रखा, और अदालत से उनकी जमानत तक नहीं हो सकी क्योंकि वे सब बहुत गरीब थे। अब जब ये इतने बरस बाद लौटकर जिंदगी का सामना कर रहे हैं, तो रोज कमाने-खाने वाले लोगों के न रहने से परिवारों का जो हाल हुआ है, वह पता लग रहा है। और यह हाल आदिवासी इलाकों से बाहर शहरी इलाकों में और अधिक खराब इसलिए होता है कि वहां लोगों के खर्च कुछ अधिक होते हैं, परिवार की पढ़ाई और इलाज पर भी खर्च लगता है, और बिना कमाऊ सदस्य के परिवार तबाह हो जाते हैं। इस देश में न्याय व्यवस्था का हाल इस कदर खराब है कि बेकसूर को अदालत में बेकसूर साबित होकर छूटने में एक पूरी जिंदगी निकल जाती है, और तब तक परिवार के लोगों की जिंदगी तबाह भी हो जाती है। पिछले दिनों एक ही कार्यक्रम में प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधीश दोनों ने ऐसी नौबत को लेकर फिक्र जाहिर की थी, और देश का अदालती ढांचा सुधारने की अपील मुख्य न्यायाधीश ने की थी ताकि गरीबों के साथ भी इंसाफ हो सके। आज की अदालती हकीकत यह है कि पुलिस से लेकर दूसरी तमाम जांच एजेंसियों तक भ्रष्टाचार की वजह से सबसे दौलतमंद और ताकतवर लोग तो अपनी मर्जी के सुबूत और गवाह पा जाते हैं, अदालतों में उनके महंगे वकील केस को उनकी सहूलियत से तेज या धीमा कर देते हैं, लेकिन गरीब की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है।

प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायााधीश की इन बातों के बाद सोशल मीडिया पर सामाजिक मुद्दों पर लिखने वाले कुछ गंभीर लोगों ने लगातार यह भी लिखा है कि देश में जज सबसे कम काम करते हैं, सबसे अधिक दिन छुट्टियां मनाते हैं, और यह सिलसिला भी बदलना चाहिए। लेकिन सोशल मीडिया पर लिखे लोगों से परे कल एक और बात हुई है जिसमें सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की एक बेंच ने एक सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार के वकील से कहा कि देश जब अपनी आजादी के 75 साल पूरे करने जा रहा है तो केन्द्र सरकार को अदालती हालत सुधारने के लिए लीक से हटकर कुछ करना चाहिए, और सरकारी वकील सरकार को इस बात के लिए राजी करें कि स्वतंत्रता दिवस के पहले ऐसा कुछ किया जाए ताकि जनता तक एक संदेश जाए। यह बेंच अदालती मामलों में होने वाली अंधाधुंध देरी से जुड़े मामलों की सुनवाई कर रही थी, और उसमें प्रतीकात्मक रूप से ही सरकार से यह बात कही है। इन जजों ने अदालत में ही कहा कि किसी को बीस या पच्चीस साल सलाखों के पीछे रखने का क्या तुक है? किसी को लंबे समय तक जेल में रखने से उसका सुधार नहीं हो जाता। जजों ने कहा कि जिसने गुनाह किया है उसे सजा मिलनी चाहिए, लेकिन लंबी मुकदमेबाजी इसका हल नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर ये बेकसूर साबित होते हैं तो इन सालों को कौन लौटाएगा?

हमारे पाठकों को याद होगा कि हम महीने भर में दो बार इसी जगह यह लिख चुके हैं कि अदालत से बेकसूर बरी होने वाले लोग अगर गरीब हैं, तो उन्हें देश की न्यूनतम मजदूरी के मुताबिक उतने दिनों की मजदूरी दी जानी चाहिए। यह तो कम से कम मुआवजा हो सकता है, जो कि बिना देर किए शुरू होना चाहिए। सबसे गरीब परिवारों को इससे थोड़ी सी मदद मिल सकती है, लेकिन परिवारों की पूरी जिंदगी तबाह होती है, और उसके लिए दूसरा ही रास्ता निकालना होगा। आज अदालतों पर मामलों का बोझ किस वजह से इतना बढ़ा हुआ है, यह एक अलग शोध का विषय हो सकता है। हो सकता है कि वकीलों की भी दिलचस्पी मामले को लंबा खींचने में हो, और अदालत के कर्मचारियों की भी, जिन्हें कि हर पेशी पर हर किसी से कुछ न कुछ रिश्वत वसूलने का मौका मिलता है। ऐसे में अदालती ढांचे को बढ़ाना तो एक सीधा-सीधा इलाज दिख रहा है, और प्रदेशों की निचली अदालतों से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक में बहुत सी कुर्सियां खाली रहती हैं, जिन्हें भरा जाना चाहिए ताकि मामलों की सुनवाई तेज हो सके। लेकिन जिस देश के आईआईएम और आईआईटी से निकले हुए लोग आज दुनिया की कई सबसे बड़ी कंपनियां चला रहे हैं, वैसी काबिलीयत वाले लोगों से योजना बनवाकर भारत की अदालती प्रक्रिया क्यों नहीं सुधारी जा सकती? अदालती कामकाज का कम्प्यूटरीकरण, जेलों से वीडियो कांफ्रेंस पर सुनवाई से काम की रफ्तार बहुत बढ़ सकती है, और सुप्रीम कोर्ट सरकार से सीधे-सीधे यह कह सकती है कि अदालत के काम के सिस्टम को बेहतर और आधुनिक बनाने के लिए देश के सबसे बड़े मैनेजमेंट और टेक्नालॉजी संस्थानों की मदद ली जाए। आज टेक्नालॉजी जिंदगी के कई दायरों में काम की लागत भी घटा रही है, और हो सकता है कि तरीके बदलने से ही इतनी ही लागत में, इतने ही लोगों से अदालती कामकाज तेज हो जाए। लेकिन जब तक यह पूरा सिलसिला चलता है, तब तक भी अदालतों को कम से कम गरीबों के मामले में यह रूख अपनाना चाहिए कि वे जमानत का इंतजाम करने की ताकत नहीं रखते हैं, और सामाजिक बराबरी तभी हो सकेगी जब उन्हें बिना किसी इंतजाम के जमानत मिल सके। ऐसा करके भी अदालतों पर से एक बड़ा बोझ कम किया जा सकता है, और उस क्षमता का इस्तेमाल बाकी मामलों को तेजी से निपटाने में हो सकता है।

अब कुछ दिन पहले मुख्य न्यायाधीश की कही बातों, और कल सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की इस बेंच की कही बातों के बाद अब गेंद सरकार के पाले में है, और यह उम्मीद बहुत बड़ी नहीं होगी कि प्रधानमंत्री 15 अगस्त के अपने भाषण में अदालती व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए कोई ठोस घोषणा करें। देश भर में तिरंगे झंडे फैलाने जैसे प्रतीकों से बेहतर है कि आज देश भर में जो करोड़ों लोग जेलों में हैं, जिनमें से बहुत बड़ी संख्या में बेकसूर गरीब हैं, उन्हें आजाद कराया जाए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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