संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पड़ोसियों की छोटी-छोटी बातों से सबक की जरूरत
07-Aug-2022 5:52 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पड़ोसियों की छोटी-छोटी बातों से सबक की जरूरत

लोकतंत्र जब कमजोर होता है, तो कई तरफ से होने वाले हमलों की वजह से कमजोर होता है, किसी एक वजह से नहीं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान एक ही दिन दो आजाद मुल्क बने थे, और हिन्दुस्तान अभी कुछ बरस पहले तक लोकतंत्र के पैमानों पर एक मजबूत देश माना जाता था। हाल के बरसों में इस देश में लोकतांत्रिक ढांचा बुरी तरह कमजोर हुआ है, लेकिन फिर भी जब कभी पड़ोस के पाकिस्तान से इसकी तुलना की जाती है तो यह एक बेहतर, और एक अधिक विकसित लोकतंत्र दिखता है। दरअसल लोगों की नजरों में आर्थिक विकास और लोकतांत्रिक विकास के बीच कई बार कोई फर्क नहीं भी रह जाता है। लोग देश के बेहतर ढांचे को बेहतर लोकतांत्रिक विकास भी मान लेते हैं। इस पैमाने से तो तेल की दौलत से रईस बने हुए खाड़ी के देश सबसे अधिक लोकतांत्रिक मान लिए जाने चाहिए क्योंकि वहां आधुनिक सुविधाओं का ढांचा सबसे विकसित है, या उस सिंगापुर को अधिक लोकतांत्रिक मान लेना जाना चाहिए जहां लोगों के नागरिक अधिकार कम हैं। इसलिए भारत के आर्थिक विकास को भारत का लोकतांत्रिक विकास भी मान लेना एक खुशफहमी की बात हो सकती है, जिससे समझदार लोगों को बचना चाहिए।

अब आज इस तुलना और चर्चा की जरूरत इसलिए आ पड़ी है कि ताजा खबर यह है कि पाकिस्तान में पिछले प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी, पीटीआई, के 123 सांसदों के इस्तीफों के बाद किश्तों में मंजूर किए जा रहे इस्तीफों से अब तक ग्यारह सीटें खाली हुई हैं, और इमरान खान ने उनमें से जनरल सभी नौ सीटों पर खुद चुनाव लडऩे की घोषणा की है। वहां की मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी के साथ संसद के भीतर और बाहर चल रही लगातार तनातनी के बीच अपनी पार्टी का बाहुबल दिखाने के लिए इमरान खान ने यह घोषणा की है, पिछली बार भी वे पांच सीटों पर लड़े थे, और कानून के मुताबिक उन्हें जीती गई पांच सीटों में से चार से इस्तीफा देना पड़ा था। इस बार अगर वे सभी ग्यारह सीटों पर जीतते हैं, तो दस सीटों पर उपचुनाव की नौबत आएगी जो कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में कम खर्चीला काम नहीं होता है। पड़ोस के श्रीलंका में सरकार पर से लोगों का भरोसा खत्म हो चुका है, हर कोई यही मान रहे हैं कि यह चुनाव करवाने का सही मौका है, लेकिन वहां चुनाव करवाने के लिए भी पैसे नहीं हैं। इसलिए हर उस देश में जहां गरीबी है, यह भी देखना चाहिए कि लोग संवैधानिक अधिकारों का ऐसा बेजा इस्तेमाल न करें जो कि जनता पर ही खर्च बनकर टूट पड़े। हिन्दुस्तान में भी कई बार बड़े-बड़े नेताओं को जब यह आशंका रही कि किसी एक सीट पर उन्हें बुरी तरह हराया जा सकता है, या उनके खिलाफ कोई साजिश की जा सकती है, तो उन्होंने दो सीटों से भी चुनाव लड़ा है। लेकिन इसे अच्छी नजर से नहीं देखा जाता, और यह माना जाता है कि यह हौसले की कमी का नतीजा है। इमरान खान के बारे में यह कहा जा रहा है कि उनके खिलाफ चल रही तरह-तरह की जांच में जांच एजेंसियों पर दबाव बनाने के लिए वे ऐसी हरकत कर रहे हैं कि बहुत सी सीटों पर जीतकर वे अधिक वजनदार साबित हो सकें, और जांच प्रभावित हो सके। जो भी हो, यह सिलसिला सिरे से गलत है, और हिन्दुस्तान में आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सौ चुनिंदा सीटों पर भी लडक़र उनमें से अधिकतर सीटों पर जीत सकते हैं, और बाकी तमाम सीटों पर बाद में एक मिनी आम चुनाव की नौबत आ सकती है। लेकिन इसका खर्च तो देश पर ही आएगा।

हिन्दुस्तान में बहुत सी जगहों पर ऐसा हुआ है कि कोई मुख्यमंत्री इस्तीफे की नौबत आने पर बीवी या बच्चों को चुनाव लड़वाकर तब तक सीट भरी रखते हैं, जब तक वे खुद दुबारा चुनाव लडऩे लायक नहीं हो जाते। मध्यप्रदेश में ही कमलनाथ का मामला ऐसा ही था, उन्हें एक विवाद के चलते लोकसभा सीट छोडऩी पड़ी थी, उन्होंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़वाकर जिता दिया, और फिर खुद चुनाव लडऩे की नौबत आने पर पत्नी से इस्तीफा दिलवाकर खुद चुनाव लड़ा, और शायद इस रूख को अहंकारी मानते हुए जनता ने उन्हें उनकी परंपरागत सीट से हरा ही दिया था। लेकिन पाकिस्तान में जिस तरह इमरान पांच सीटों पर लड़े और इस बार ग्यारह सीटों पर लडऩे की मुनादी की है, उसकी तो कोई मिसाल किसी तानाशाही में भी नहीं मिलती। जिस पाकिस्तान में लोकतंत्र ठीक से पनप नहीं पाया है, उसी पाकिस्तान में कोई नेता लोकतंत्र के नाम पर इस दर्जे की तानाशाही और बेशर्मी दिखा सकते हैं।

लेकिन हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका और ऐसे दूसरे देशों से भी लोकतंत्र को कुछ सीखते चलने की जरूरत रहती है। जिस तरह हिन्दुस्तान में बहुत से लोकतांत्रिक मूल्य कुचले जा रहे हैं, और लोकतांत्रिक परिपक्वता, राजनीतिक जागरूकता खत्म की जा रही है, वह जरूरी नहीं है कि सिर्फ चुनावों को प्रभावित करे, वह रोज की जिंदगी को भी प्रभावित कर सकती है, और उसका नुकसान राजनीति से परे भी रोज की जिंदगी में देखने मिल सकता है। पाकिस्तान में किसी वक्त फौज को बढ़ावा दिया गया, तो किसी वक्त एक धर्म को देश का राजकीय धर्म बना लिया गया। इससे आगे चलकर लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर होते चले गए, और धर्म बढ़ते-बढ़ते धार्मिक आतंकवाद में तब्दील हो गया। वहां अल्पसंख्यक मारे जाने लगे, और अब तो पाकिस्तान की सरकार भी अगर चाहती है कि अल्पसंख्यक न मारे जाएं, तो भी वह रोक पाना सरकार के बस में नहीं रह गया है। जब लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर होते हैं तो देश में ताकतवर संस्थाएं भ्रष्ट होने लगती हैं, पाकिस्तान बहुत बुरी तरह इसका शिकार रहा, वहां के प्रधानमंत्री और फौजी तानाशाह देश छोडक़र दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हुए क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के बहुत से मामले रहे। लेकिन आज पाकिस्तान में एक सहूलियत या दिक्कत यह हो गई है कि तकरीबन तमाम पार्टियां भ्रष्ट हैं, और किसी पर इस बात को लेकर बदनामी का कोई खास खतरा नहीं रह गया है। हिन्द महासागर के इस इलाके में ये देश अड़ोस-पड़ोस के हैं, और भारत को अपने इन सरहदी देशों के साथ तजुर्बों से सबक लेना भी सीखना चाहिए। पाकिस्तान और श्रीलंका आज जिस बदहाली में पहुंचे हुए हंै, उसमें धर्मान्धता का खासा हाथ रहा है, अल्पसंख्यकों पर ज्यादती का खासा हाथ रहा है, और इस एक बात का सबक तो भारत को तुरंत ही लेना चाहिए। इन देशों के मुकाबले भारत की बेहतर अर्थव्यवस्था भारत में लोकतंत्र की बेहतर स्थिति का सुबूत नहीं है, इस धोखे में आने से भी लोगों को बचना चाहिए।
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