संपादकीय
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कल देश में बलात्कार की घटनाओं पर कहा है कि 2012 में निर्भया गैंगरेप के बाद कानून में हुए बदलाव की वजह से बलात्कार के बाद हत्या के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है। उन्होंने कहा कि जब से कानून बदलकर बच्चियों से रेप करने वाले को फांसी की सजा देने का प्रावधान किया गया है तब से हत्याएं ज्यादा होने लगी हैं। उन्होंने कहा कि बलात्कारी जब देखता है कि पीडि़ता उसके खिलाफ कल गवाह बन जाएगी, तो वो रेप भी करता है, और बच्चियों की हत्या भी कर देता है।
जिस वक्त इस कानून में बदलाव की बात हो रही थी, कानून और समाज के बहुत से और जानकारों की तरह हमने भी इसी जगह पर यह बात लिखी थी कि बलात्कार पर हत्या के बराबर सजा कर देने से बलात्कार की शिकार को मार डाले जाने का खतरा बढ़ जाएगा। लोगों को लगेगा कि जब बलात्कार की सजा भी उतनी ही मिलनी है, तो फिर हत्या करके एक गवाह खत्म कर दिया जाए, और सजा तो उससे भी उतनी ही मिलेगी। कई कानून ऐसे जनदबाव के बीच बनते हैं जब सत्तारूढ़ लोगों, या कि अदालत के जजों को भी फैसले लेते-देते हुए यह ख्याल रहता है कि लोग क्या कहेंगे? जज भी इस दबाव से परे नहीं रह पाते, और लोगों के वोट से जीतने वाले नेता तो लोगों का चेहरा देख-देखकर ही फैसले लेते हैं। इसलिए बहुत से ऐसे मौके रहते हैं जब जनता के आंदोलन के चलते पुलिस किसी बेकसूर को भी पकडक़र अदालत में पेश कर देती है, और वहां से वे छूट जाते हैं। कई बार पुलिस और दूसरे सुरक्षाबल अपने साथियों की बड़ी मौतों के बाद उनकी भावनाओं का ख्याल रखते हुए बेकसूर लोगों को या तो मुठभेड़ बताकर मार डालते हैं, या फिर बेकसूरों को पकडक़र उन पर मुकदमा चलाने लगते हैं, जैसा कि हाल ही में बस्तर में 120 से अधिक बेकसूर आदिवासियों की रिहाई से साबित हुआ है। दूसरी तरफ उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में सांप्रदायिक तनाव के चलते सत्तारूढ़ पार्टी अपने को नापसंद लोगों के घर-दुकान पर बुलडोजर चलाने लगती है क्योंकि उसे अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों की साम्प्रदायिक हिंसक भावनाओं को शांत करना है, और दूसरे धर्म के लोगों को सबक सिखाना है।
दबाव में किया गया कोई भी काम न्यायोचित नहीं हो पाता है। संसद या विधानसभा में कई बार सत्ताबल के दबाव में ऐसे विधेयक पास हो जाते हैं, और कानून बन जाते हैं जो कि जनविरोधी होते हैं, या जिनके साथ बेजा इस्तेमाल का खतरा अधिक बड़ा होता है, बजाय उनसे फायदा होने के। भारतीय संसद में ऐसे बहुत से कानून बने हैं, जो कि जनदबाव में बने, या जनता को लुभाने के लिए बने, या संसद के भीतर सत्ता के अपार बाहुबल के मुकाबले विपक्ष की सीमित आवाज को कुचलते हुए बने। ये सारे कानून आगे जाकर बड़ी दिक्कत खड़ी करते आए हैं, और उनमें कई किस्म की सुधार की नौबत भी आती है। बच्चियों से बलात्कार पर फांसी की सजा का प्रावधान इसी तरह का एक कानून था जिसे लेकर कम से कम अब केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सर्वे करना चाहिए कि क्या ऐसे मामलों में बलात्कार की शिकार बच्चियों की हत्याओं के मामले बढ़े हैं?
अभी बहुत से अलग-अलग ऐसे मामलों के वीडियो सामने आते हैं जिनमें राजनीतिक ताकत से लैस कोई बाहुबली किसी महिला से बदसलूकी कर रहा है, या कि कोई अफसर अपनी मातहत महिला से। ऐसे तमाम मामलों को लेकर कानून में एक संशोधन की जरूरत है कि जब कभी अधिक ताकतवर लोग कमजोर लोगों पर कोई जुल्म ढाते हैं, उन ताकतवर लोगों को आम लोगों के मुकाबले अधिक कड़ी सजा भी दी जानी चाहिए, और उनकी संपन्नता के अनुपात में उन पर जुर्माना भी लगाना चाहिए। आज जब अदालत किसी अरबपति पर दो हजार रूपये का जुर्माना लगाती है, और जब किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता पर जनहित याचिका लगाने पर पांच लाख रूपये का जुर्माना लगाती है, तो अदालत के इंसाफ पर से भरोसा उठ जाता है। कल ही देश के एक बड़े वकील, और यूपीए सरकार के समय कानून मंत्री रहे हुए कपिल सिब्बल ने कहा है कि अब सुप्रीम कोर्ट पर से उनका भरोसा उठ गया है। जिस आदमी की पूरी जिंदगी ही कानून के साथ गुजरी हो वह अगर आज सार्वजनिक रूप से मंच से माईक पर यह बात कह रहा है, तो इससे आम गरीब लोगों के कानून पर से भरोसा उठ जाने में कोई हैरानी नहीं रहनी चाहिए। कपिल सिब्बल ने कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अपना सदमा जाहिर करते हुए निराशा में यह बात कही है, लेकिन आज देश के बहुत से लोगों का यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी नाजायज आ रहे हैं। दूसरी तरफ बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि देश की संसद बहुत से गलत कानून बना रही है। जिन तीन किसान कानूनों को मौजूदा मोदी सरकार ने अपने संसदीय बाहुबल से बना ही दिया था, उन्हें एक बरस से अधिक लगातार चले अभूतपूर्व किसान आंदोलन ने वापिस लेने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन अगर उतना लंबा आंदोलन नहीं चला होता तो वे कानून तो देश पर लागू हो ही चुके थे। इसलिए एक बात बिल्कुल साफ है कि संसद या विधानसभा के भीतर असंतुलित ताकत लोकतंत्र को मजबूत करने के काम की नहीं रहती, उससे सत्तारूढ़ पार्टी गलत कानून बनवा सकती है, बनाती है। अब इस एक संदर्भ को छोडक़र बात करें, तो लोगों का यह तर्क भी हो सकता है कि भारतीय लोकतंत्र में जब संसद या विधानसभा में किसी पार्टी या गठबंधन का बाहुबल पर्याप्त नहीं होता है, तो उसके लोगों को तोड़-फोडक़र, खरीदकर सरकार गिराई भी जा सकती है, गिराई जाती है।
आज यहां पर लिखी गई बातें टुकड़ा-टुकड़ा कई मुद्दों को छूती हुई हैं, और इन सब पर अलग-अलग सोचने की जरूरत है, और एक साथ मिलाकर भी।
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