संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कोई अच्छी बात भी लोकतंत्र में जबरिया कैसे लादी जा सकती है?
12-Aug-2022 4:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कोई अच्छी बात भी लोकतंत्र में जबरिया कैसे लादी जा सकती है?

आजादी की 75वीं सालगिरह पर भारत सरकार ने हर घर तिरंगा नाम का एक अभियान शुरू किया है, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी अपने स्तर पर भी अधिक से अधिक घरों में तिरंगा पहुंचाने की घोषणा के साथ कुछ कोशिश कर रही है। रेलवे के करोड़ों कर्मचारियों को बाजार भाव से काफी अधिक दाम पर अनिवार्य रूप से तिरंगा झंडा खरीदने के लिए कहा जा रहा है, जिसे लेकर विरोध भी हो रहा है, और लोग यह हिसाब भी पोस्ट कर रहे हैं कि ठेकेदार को इससे कितने करोड़ की कमाई होने जा रही है। पिछले कुछ दिनों से हरियाणा की राशन दुकानों के ऐसे वीडियो पोस्ट हो रहे हैं जहां पर राशन दुकानदार ही यह बता रहा है कि उसे ऊपर से हुक्म मिला है कि जो लोग बीस रूपये का झंडा खरीदें, उन्हें ही राशन देना है। अब सीमित आय वाले जो लोग राशन कार्ड लेकर गिने-चुने नोट लेकर राशन दुकान पहुंच रहे हैं, वहां उन्हें पता लग रहा है कि पहले बीस रूपये तो झंडे के देने होंगे। इसके अलावा पोस्ट ऑफिस से भी झंडा बेचा जा रहा है जिसके बारे में सोशल मीडिया पर यह पढऩे मिला कि वह गलत तरह से छपा हुआ झंडा है जिसमें अशोक चक्र एक तरफ खिसका हुआ है, और यह पढक़र जब इस अखबार ने पोस्ट ऑफिस से झंडा खरीदकर मंगवाया तो अशोक चक्र बीच के बजाय एक तरफ बहुत बुरी तरह खिसका हुआ छपा था। झंडे को लेकर ही यह विवाद भी हुआ कि सरकार ने झंडा कानून बदलकर अब सिंथेटिक कपड़ों के तिरंगे झंडे को भी छूट दे दी है, जबकि खादी के कपड़ों से बनने वाले परंपरागत झंडे कपास उगाने वाले किसानों से लेकर बुनकरों तक को रोजगार देते थे, वह पूरा काम अब खत्म सा हो गया।
 
लेकिन बात अगर महज झंडे तक सीमित रहती, तो भी ठीक था। झंडों के साथ जिस तरह राष्ट्रवाद का उन्माद फैलाया जा रहा है, और एक सकारात्मक राष्ट्रवाद से परे जाकर जिस तरह बिना झंडे वाले लोगों को देशद्रोही और गद्दार करार देने की पहल शुरू हो रही है, वह भयानक है। इस देश में अब देशप्रेमी होना काफी नहीं है, एक खास विचारधारा को देशप्रेम के जो प्रतीक पसंद हैं, उन प्रतीकों को अनिवार्य रूप से मानना, दिखाना, और प्रदर्शित करना भी जरूरी है। उत्तराखंड के भाजपा प्रदेशाध्यक्ष महेश भट्ट ने एक आमसभा में कहा कि जो लोग तिरंगा अभियान के दौरान अपने घरों में राष्ट्रीय ध्वज नहीं लगाते, उनकी देशभक्ति पर सवाल खड़ा हो सकता है। उन्होंने कहा जिनके घर में तिरंगा नहीं लगेगा, हम उन्हें विश्वास की नजर से कभी नहीं देख पाएंगे। उन्होंने कहा मुझे उस घर का फोटो चाहिए जिस घर में तिरंगा न लगा हो।

पिछले बरसों में हिन्दुस्तान ने ऐसे बहुत से प्रतीकों का प्रदर्शन देखा है जिन्हें मोदी की स्तुति के रूप में देखना तो ठीक था, लेकिन जो उस प्रदर्शन में शामिल नहीं थे, उन्हें देश का गद्दार करार देना लोकतंत्र के मुताबिक तो बहुत बड़ी ज्यादती थी। हर किसी के देशप्रेम के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। हर धर्म और संस्कृति, इलाके और जुबान में देशप्रेम के नारे अलग हो सकते हैं, मातृभूमि की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है, देशप्रेम के गाने अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन पिछले बरसों में इस देश ने जिस तरह-हिन्दुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा, या, हिन्दुस्तान में रहना है तो जयश्रीराम कहना होगा जैसे नारे लगाए गए, जो कि किसी के सम्मान में कम थे, धमकी अधिक थे। ऐसे में अलग धर्म और अलग संस्कृति वाले लोगों को तेजी से देशद्रोही करार देकर पाकिस्तान भेजने की बात भी कुछ बरस चली थी, फिर ऐसा लगता है कि पाकिस्तान ने फतवों के आधार पर वीजा देना बंद कर दिया, और सारे ‘देशद्रोही’ लोग इसी देश पर बोझ बने हुए यहीं कायम हैं।

राष्ट्रीयता और देशप्रेम को कुछ खास प्रतीकों से अनिवार्य रूप से जोडक़र उन्हें हर किसी पर लादकर इस तरह का उन्माद खड़ा करना किसी भी लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। एक तबके को ऐसे उन्माद में मजा आ सकता है, लेकिन इसके तौर-तरीकों से असहमत दूसरे कहीं अधिक बड़े देशप्रेमी लोगों को यह सजा भी लग सकती है कि उस पर कोई बात थोपी जा रही है। लोकतंत्र ऐसे प्रतीकों का नाम नहीं हो सकता जिन्हें सरकारी खर्च पर, राजनीतिक फतवों से, धमकी-चमकी और दबाव से, लोगों का अनाज रोककर उन पर लादा जाए, और उसे आजादी का अमृत महोत्सव कहा जाए। हरियाणा की जिन राशन दुकानों पर बेबस गरीब महिलाओं का आक्रोश निकल रहा है, उनके बीस रूपये में खरीदे झंडों से क्या उनके घर पर आजादी का जश्न मनेगा, या वे लोग जश्न के इस जबरिया तौर-तरीके को कोसेंगे? जिस आजादी के नाम पर यह जलसा मनाया जा रहा है, उसी आजादी को कुचलते हुए यह खुली राजनीतिक धमकी दी जा रही है कि जो लोग झंडा नहीं फहराएंगे उनके घरों की तस्वीरें भेजी जाएं, उन पर यह देश कभी भरोसा नहीं कर सकेगा।

विविधता से भरा हुआ यह देश अपनी राजनीतिक और सामाजिक विविधताओं की वजह से ही आजाद दिखता है, और माना जाता है। अगर सारी आबादी की पोशाक, खानपान, राजनीतिक विचारधारा, और सांस्कृतिक तौर-तरीके सभी को एक सरीखा किया जाए, और तभी उन्हें देशप्रेमी माना जाए, तो यह तो आजादी के ठीक खिलाफ होगा। लोगों को आज तिरंगा झंडा अच्छा लग सकता है, लेकिन घरों पर इसे फहराना उन्हीं लोगों को अच्छा लगेगा जिनके मन में ऐसा करने की बात है। नसबंदी बहुत अच्छी बात थी, और हिन्दुस्तान की बढ़ती आबादी को घटाने में कारगर भी हो सकती थी, लेकिन जब इमरजेंसी में संजय गांधी नाम के एक तानाशाह ने पूरे देश पर नसबंदी को जबरिया थोप दिया था, तो अगले चुनाव के वक्त लोगों ने इसे याद रखा था। कोई अच्छी चीज भी लोकतंत्र में दूसरों पर जबरिया कैसे थोपी जा सकती है? और आज जिस तरह सार्वजनिक धमकी देते हुए ऐसे लोगों को अविश्वसनीय करार दिया जा रहा है, जो घरों पर झंडा नहीं फहराएंगे, ऐसे नेता यह तो बताएं कि देश का कौन सा संविधान उन्हें किसी को अविश्वसनीय करार देने का हक देता है?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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