विचार / लेख

क्या आजादी का सपना साकार हो रहा है?
12-Aug-2022 10:30 PM
क्या आजादी का सपना साकार हो रहा है?

-डॉ. संजय शुक्ला
आगामी 15 अगस्त को भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव यानि 75 वीं सालगिरह मनाने जा रहा है। इस साल पूरे देश में तिरंगा की धूम मची हुई है सरकारी अमला और प्रचार माध्यम तिरंगे के जोश से अटा पड़ा है। बेशक लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री जी बड़े जोशो-खरोश से देश को संबोधित करेंगे और जनता को सुनहरे सपने भी दिखाएंगे। इस बीच जब देश की आजादी और तिरंगा का ज्वार शांत हो जाएगा तब एक बार फिर सवाल खड़ा होगा कि आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी क्या हम आजादी के लक्ष्य को हासिल करने में सफल हो पाए हैं?

क्या देश का लोकतंत्र ‘जनता द्वारा, जनता के लिए,जनता का शासन’ के उद्देश्य को साकार कर पाई है? कहने को तो हम आजाद देश में रहते हैं जहाँ का संविधान सभी नागरिकों को सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय का समान अवसर उपलब्ध कराता है। हकीकत पर गौर करें तो नजारा कुछ और ही है आज भी देश गांधी के सपनों के भारत से बहुत दूर है। देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की बात करें तो आज का भारत उनके सपनों का भारत से कोसों दूर है।

गौरतलब है कि आजादी के सात दशकों बाद भी एक बड़ी आबादी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, महंगाई,धार्मिक और जातिवादी कट्टरता व भेदभाव, अपराध, हिंसा और छुआछूत जैसे समस्याओं का गुलाम है। महिला सशक्तिकरण के नारे और दावे के बावजूद देश की आधी आबादी अभी भी हिंसा, प्रताडऩा, लैंगिक भेदभाव,अशिक्षा और सामाजिक रूढि़वादी अन्याय का शिकार है। देश की आजादी का संघर्ष उपरोक्त विसंगतियों को दूर करने के लिए किया गया था लेकिन नतीजा सिफर है। भले ही हम अपने आपको दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का हिस्सा होने का ढोल पीट लें लेकिन आम जनता अभी भी भूख,भय और भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो पाया है। इन समस्याओं के पृष्ठभूमि में कुछ के लिये जनता द्वारा चुनी गई सरकार जिम्मेदार है तो कुछ के लिए हमारी सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता जवाबदेह है।

किसी राष्ट्र का विकास उसकी बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर निर्भर होता है लेकिन हमारे देश में यह व्यवस्था अत्यंत दयनीय है। देश के नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और साफ पेयजल मुहैया कराना उस देश के सरकार की संवैधानिक जवाबदेही है लेकिन भारत में यह संविधान के किताब में ही मौजूद है। इन बुनियादी जरूरतों की उपलब्धता में व्यापक असमानता है तथा यह अमीरी-गरीबी, शहरी-ग्रामीण और सरकारी व निजी क्षेत्रों के बीच बँटी हुई है।
एक बड़ी आबादी को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं उसकी आर्थिक हैसियत के बल पर मिल रही है। सरकारी और पांच सितारा निजी स्कूल-कॉलेजों के संसाधनों और गुणवत्ता में जमीन-आसमान का अंतर है। आर्थिक सामर्थ्य के आधार पर शिक्षा की उपलब्धता के कारण जहाँ गरीब मेधावी छात्रों के मेधा का क्षरण हो रहा है वहीं सामाजिक असमानता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवा खुद बीमार है अस्पतालों में संसाधनों का काफी अभाव है।

खस्ताहाल सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण गरीबों और ग्रामीणों को मजबूरन निजी अस्पतालों के शरण में जाना पड़ रहा है। एक बड़ी आबादी को अपने बच्चों के भविष्य और अपनी सेहत बचाने के लिए निजी क्षेत्रों की सेवा लेने की मजबूरी के चलते अपनी संपत्ति बेचने या गिरवी रखने के लिए विवश होना पड़ रहा है फलस्वरूप हर साल करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। देश की 14 फीसदी आबादी भयंकर कुपोषण का शिकार है तो दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारत में रहते हैं। कुपोषण का प्रमुख कारण भुखमरी और पोषक आहार में कमी है।वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत 116 देशों के बीच ‘गंभीर’ श्रेणी के साथ 101 वें पायदान पर है। यह स्थिति उस कृषिप्रधान देश भारत की है जहाँ अनाज का बंफर उत्पादन होता है लेकिन उचित भंडारण और वितरण के अभाव में लाखों टन साबूत अनाज सड़ जाते हैं या पकाया हुआ भोजन नालियों में चला जाता है।विडंबना है कि आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी करोड़ों लोगों को साफ पेयजल मयस्सर नहीं हो पाया है। लाखों लोग भूखे पेट फुटपाथ पर रात गुजारने के लिए मजबूर हैं, लाखों बच्चों ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। आखिरकार यह कैसी आजादी?

पूरी दुनिया में युवाओं की सर्वाधिक आबादी हमारे देश में है लेकिन युवा भारत में नौजवान भटकाव की राह पर हैं। युवा बेरोजगारों की फौज लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन हमारी सरकारें कुछ हजार बेरोजगारी भत्ता देकर और रोजगार के लिए कागजी योजना बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री माने बैठी है। बेरोजगारी और आर्थिक तकलीफों के कारण युवाओं में कुंठा और हताशा पनप रही है। फलस्वरूप वे नशाखोरी या मनोरोगों का शिकार हो रहे हैं या अपराध जगत की राह पर हैं। किसी राष्ट्र का समावेशी विकास उसके युवाओं पर निर्भर होता है क्योंकि उनमें ऊर्जा और नये विचारों की अपार शक्ति होती है लेकिन हमारे युवा राष्ट्र निर्माण की भूमिका में हाशिये पर हैं। दुनिया का इतिहास गवाह है कि किसी व्यवस्था में बदलाव युवाओं ने ही लाया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में साकारात्मक बदलाव के लिए युवाओं को सियासत का हिस्सा बनना ही होगा लेकिन देश की राजनीति में जारी वंशवाद, धनबल और बाहुबल के बढ़ते दखल के कारण अधिकांश युवाओं के लिए राजनीति नापसंदगी का क्षेत्र बना हुआ है।

दरअसल देश का आम युवा धार्मिक, जातिगत भेदभाव से परे भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त भारत की अवधारणा में भरोसा रखता है लेकिन राजनीति इसके ठीक उलट है। भारतीय प्रतिभाओं का परदेस पलायन भी देश के विकास में बाधक हैं। दलितों और आदिवासियों का उत्पीडऩ और आर्थिक शोषण  बदस्तूर जारी है तो आदिवासियों की सदियों से थाती रही जल,जंगल और जमीन को सरकार कार्पोरेट घरानों को कौडिय़ों के मोल बेच रही है। दलितों और आदिवासियों को  सामाजिक न्याय और समानता दिलाने के लिए लागू आरक्षण व्यवस्था  राजनीतिक तुष्टिकरण और वोट हथियाने का जरिया बनते जा रहा है। जिन वर्गों के समता और सर्वांगीण विकास के लिए यह व्यवस्था लागू किया गया है उनकी बड़ी आबादी आज भी इस कानून के लाभ से वंचित हैं। देश में नक्सलवाद और अलगाववाद आज भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया और विकास में बाधक बनी हुई है तो कालाधन और भ्रष्टाचार अभी भी लाइलाज मर्ज बना हुआ है।

देश की आजादी के संघर्ष में कई पीढिय़ों ने कुर्बानी अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए दी थी लेकिन हालिया राजनीतिक परिदृश्य निराशा पैदा कर रही है। विडंबना है कि पचहत्तर साल का बूढ़ा लोकतंत्र अभी तक परिपच् नहीं हो पाया है जिसकी झलक संसद और सदन से लेकर चुनावी राजनीति में दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारे जनप्रतिनिधियों का लोकतंत्र के मंदिर में आचरण बेहद निराशाजनक है फलस्वरूप देश शर्मसार हो रहा है। जनता के खून-पसीने की कमाई से हर मिनट लाखों रुपए खर्च कर चलने वाले संसद और सदन बिना किसी कामकाज के हंगामे और जूतमपैजार की भेंट चढ़ रहे हैं।

विश्वगुरू बनने का दंभ भरने वाले देश की चुनावी राजनीति इक्कीसवीं सदी में भी धर्म और जाति पर निर्भर है जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी, पर्यावरण प्रदूषण और महंगाई जैसे करोड़ों भारतीयों से जुड़े बुनियादी मुद्दे पूरी तरह से हाशिये पर हैं। इस सियासत का दुष्परिणाम है कि देश में धार्मिक और जातिवादी कट्टरता की जड़ें और गहरी होती जा रही है। वर्तमान हालात के लिए देश का आम नागरिक भी जवाबदेह है। हमें यह याद रखना चाहिए कि संविधान प्रदत अधिकार के साथ साथ नागरिक कर्तव्य भी जरूरी है लेकिन इसमें न्यूनता दृष्टिगोचर हो रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ही देश की दशा और दिशा तय करती है लेकिन  मतदाताओं का एक वर्ग मतदान की जगह ‘वोटिंग हॉलिडे’ मनाता है या फिर पैसे, कंबल और शराब में अपना वोट बेच देता है।आमजनता का भी कर्तव्य है कि वे देश की एकता और अखंडता के खिलाफ काम करने वाले ताकतों के प्रति सचेत रहें।

बहरहाल तमाम बाधाओं और विसंगतियों के बावजूद हमारे देश ने बीते दशकों के सफर में विकास के नये आयाम भी गढ़े हैं। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाली भारत ने वैश्विक लिहाज से विकास के सभी क्षेत्रों में शानदार कीर्तिमान स्थापित किया है। देश ने आर्थिक, सामाजिक, सामरिक, विज्ञान और तकनीक, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, अधोसंरचना विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की है। इन उपलब्धियों का लोहा समूची दुनिया मान रही है। बहरहाल आजादी के लिए किए गए संघर्ष तथा शहादत का सम्मान और स्वतंत्रता दिवस के आयोजन की सार्थकता तब है जब देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के फैसलों में युवाओं, महिलाओं और सर्वहारा वर्ग की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित हो।
 

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