संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मद्रास हाईकोर्ट से सबक लेकर बाकी राज्यों के सिपाहियों को भी बचाएं
16-Aug-2022 5:17 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  मद्रास हाईकोर्ट से सबक लेकर बाकी राज्यों के सिपाहियों को भी बचाएं

मद्रास हाईकोर्ट ने चार दिन पहले राज्य के बड़े पुलिस अफसरों के घरों पर तैनात किए गए पुलिस के निचले दर्जे के कर्मचारियों को गुलामीप्रथा करार देते हुए फटकार लगाई है। अदालत इसके खिलाफ पहले भी कड़ा आदेश कर चुकी है, लेकिन इसका कोई असर सरकार और अफसरों पर नहीं हुआ। सरकारी वकील ने कहा कि अदालत के पिछले आदेश के बाद 19 पुलिस कर्मचारियों को अर्दली ड्यूटी से मुक्त किया गया है, लेकिन जज ने कहा कि इसके बाद भी बड़ी संख्या में छोटे स्तर के पुलिस कर्मचारी बड़े अफसरों के बंगलों पर तैनात हैं। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा करके ये बड़े पुलिस अफसर पुलिस फोर्स में अनुशासन लागू करने का अपना नैतिक अधिकार खो देते हैं। अदालत ने इसे इस देश के संविधान और लोकतंत्र पर तमाचा कहा है, और यह भी कहा कि यह अंग्रेजों के वक्त की गुलामीप्रथा की जारी परंपरा है।

तमिलनाडु में अदालत पहुंचे इस मामले से परे देश के अधिकतर राज्यों में पुलिस के निचले कर्मचारियों का यही हाल है। बड़े पुलिस अफसरों के बंगलों पर अविश्वसनीय संख्या में सिपाही तैनात कर दिए जाते हैं। वे घरेलू कामकाज करते हैं, कुत्तों और बच्चों को साफ करते हैं, उन्हें घुमाते हैं, बंगला बड़ा हो तो डेयरी और सब्जी-भाजी का बगीचा भी देखते हैं। एक प्रदेश की राजधानी में बैठे हुए जानकार लोग बतलाते हैं कि अफसर की अपनी मोटी तनख्वाह से कई गुना अधिक तनख्वाह कर्मचारियों की उन बंगलों पर खर्च होती है जो अपने आपमें अंग्रेजी राज का प्रतीक हैं। सरकार को बंगलों और नौकर-चाकर का यह इंतजाम खत्म करना चाहिए, और इसके लिए एक भत्ता अफसरों को देना चाहिए, या मकान भत्ता तो उन्हें मिलता ही है। यह बात सिर्फ आईपीएस अफसरों के साथ नहीं है, जंगल विभाग के आईएफएस अफसरों के पास रोजी पर मजदूर रखने के अनगिनत काम रहते हैं। ऐसे में अफसरों के बंगलों पर बहुत से रोजी वाले लोग तैनात रहते हैं जिनका सरकारी भुगतान होता है। आईएएस अफस चूंकि इन दोनों से ऊपर माने जाते हैं, इसलिए उनके बंगलों पर हर तरफ से कर्मचारी बुलाए जाते हैं, और भेजे जाते हैं।

यह बात सरकार के फिजूलखर्च से अधिक खतरनाक है। जिन लोगों को पुलिस की ड्यूटी के लिए नौकरी पर रखा जाता है, जिन्हें पुलिस के काम की ट्रेनिंग दी जाती है, उनसे घरेलू काम लेकर उनका मनोबल तोड़ दिया जाता है। कुछ बरस किसी बंगले पर गुलामी करने के बाद ये सिपाही किसी चुनौतीपूर्ण या खतरनाक मोर्चे के लायक रह भी नहीं जाते। रसोई में काम करते हुए, ट्रे थामे हुए, चाय-पानी परोसते हुए, जानवर नहलाते हुए, बच्चों का पखाना धोते हुए किस इंसान का मनोबल मुजरिमों को पकडऩे, आतंकियों से लडऩे, अराजक लोगों को रोकने के लायक रह जाएगा? यह बात पूरी तरह से अमानवीय भी है कि नियम-कायदों के खिलाफ, सरकारी सेवा शर्तों के खिलाफ मातहत लोगों को उनकी ड्यूटी से हटाकर इस तरह गुलाम बनाकर रखा जाए। हम पहले भी इसी जगह इस बात की वकालत कर चुके हैं कि ऐसे गुलाम-कर्मचारियों को अपने ऐसे मालिकों के खिलाफ बगावत करनी चाहिए, उन्हें गुलामी के वीडियो बनाकर शिकायत करनी चाहिए, उन्हें चारों तरफ फैलाना चाहिए। इससे कुछ लोगों की नौकरी पर खतरा आ सकता है, लेकिन वर्दीधारी कर्मचारियों के ऐसे अपमानजनक इस्तेमाल के सिलसिले को खत्म करने के लिए कुछ लोगों को तो ऐसा खतरा उठाना ही होगा। यह एक अकेली वजह हमें पुलिस कर्मचारियों की यूनियन बनाने के लिए काफी लगती है। कुछ प्रदेशों में ऐसी यूनियन है, और छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में सरकारों ने बड़ी कोशिश करके पुलिस कर्मचारियों के परिवारों को भी संगठित होने से रोका है। उन्हें रोक तो दिया गया है, लेकिन उनकी कोई मांग पूरी नहीं हुई है।

तमिलनाडु के मद्रास हाईकोर्ट के इस मामले की मिसाल देते हुए, उससे सबक लेते हुए बाकी प्रदेशों में भी सरकारी कर्मचारियों को अर्दलियों की तरह अफसरों और नेताओं के बंगलों पर इस्तेमाल करने के खिलाफ कानूनी पहल करनी चाहिए। यह बात छोटे सरकारी कर्मचारियों के मानवीय अधिकारों के खिलाफ भी है, और पूरी तरह से अलोकतांत्रिक और गैरकानूनी तो है ही। एक-एक बड़े अफसर और सत्तारूढ़ नेता पर लाखों रूपये महीने की तनख्वाह छोटे कर्मचारियों की भी लगती है, और यह पूरी तरह से अघोषित खर्च है जो कि गरीब जनता के ही सिर पर आता है। सरकारों को बड़े-बड़े सरकारी बंगलों का इंतजाम पूरी तरह से खत्म करना चाहिए। एक-एक परिवार के लिए बड़े-बड़े बंगले, और जनता पर उनका खर्च, पूरी तरह नाजायज है। अफसरों को अपनी तनख्वाह के अलावा जिस मकान भत्ते की पात्रता रहती है, उस भत्ते पर जो मकान उन्हें मिलेगा, उसमें कर्मचारियों की फौज की जरूरत भी नहीं रहेगी।

पुलिस कर्मचारी चूंकि वर्दीधारी हैं, और उनके संघ को छूट नहीं है, इसलिए किसी न किसी को यह बात उठानी होगी। कोई जनसंगठन भी इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग जा सकते हैं, या अदालत में जनहित याचिका लगा सकते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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