संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दलित-विरोधी, महिला-विरोधी जजों को कुर्सियों पर आने से रोकने, या हटाने की जरूरत..
19-Aug-2022 3:01 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  दलित-विरोधी, महिला-विरोधी जजों को कुर्सियों पर आने से रोकने, या हटाने की जरूरत..

हिन्दुस्तान के हजारों बरस पुराने कहे जाने वाले कई किस्म के धर्म और दूसरे ग्रंथों में महिलाओं के खिलाफ जितनी हिंसक बातें लिखी गई हैं, जिनका हिन्दुस्तान में खुलकर इस्तेमाल भी होता है, उन बातों ने हिन्दुस्तान की अदालतों के जजों के दिल-दिमाग पर बहुत गहरा असर किया हुआ है। और यह असर कभी-कभार किसी एक मामले में दिखता है तो लोग हैरान हो जाते हैं कि ऐसी सोच वाले लोग अगर फैसले कर रहे हैं, तो वे फैसले किस कदर महिला-विरोधी होंगे। केरल के एक जिले कोझीकोड के एक जज ने यौन उत्पीडऩ के एक मामले में अभियुक्त को जमानत दे दी क्योंकि उसका यह तर्क था कि शिकायतकर्ता महिला ने उस वक्त उत्तेजक कपड़े पहन रखे थे। मतलब यह कि अगर किसी महिला के कपड़े उत्तेजक हैं, तो वह महिला बलात्कार के लायक है। यह जज एस. कृष्णकुमार इसके दस दिन पहले यौन उत्पीडऩ के एक दूसरे मामले में भी आरोपी को जमानत दे चुका है, और उसने लिखा था- यह मानना विश्वास से बिल्कुल परे है कि अभियुक्त ने यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि पीडि़ता दलित है, उसे छुआ होगा।

इन दो आदेशों ने इस जज की सोच भयानक स्तर पर महिला-विरोधी भी है, और दलित-विरोधी भी है। वह महिला के कपड़ों की पसंद के आधार पर उसे एक किस्म से बलात्कार के लायक पा रहा है, और दूसरी तरफ एक दलित महिला के बारे में कह रहा है कि उसे दलित जानते हुए भी कैसे कोई छू सकता है? जज का नजरिया तालिबानों सरीखा दिखता है जो कि महिला की पोशाक तय कर रहे हैं। लेकिन यह अकेला जज ऐसा नहीं है, अभी हफ्ते भर पहले ही दिल्ली हाईकोर्ट की एक महिला जज प्रतिभा एम.सिंह के एक बयान के खिलाफ बहुत सी महिला कार्यकर्ताओं ने जमकर बयान दिया था जिसमें इस जज ने मनुस्मृति की वजह से भारतीय महिला को सम्मानजनक स्थान मिलने की बात कही थी। मनुस्मृति की चर्चा हिन्दुस्तान में महिलाओं को नियंत्रित करने वाली सोच की तरह होती है, और उसमें महिलाओं के लिए बहुत ही अपमानजनक बातें लिखी हुई हैं। ऐसे में अगर हाईकोर्ट की एक जज  मनुस्मृति से प्रभावित है तो जाहिर है कि उसके फैसले इस सोच से प्रभावित होंगे। मनुस्मृति के मुताबिक एक महिला को पुरूष द्वारा सुरक्षित किया जाता है। जब वह बालिका है तो उसकी रक्षा की जिम्मेदारी उसके पिता की है, शादी के बाद वह अपने पति की जिम्मेदारी है, और अगर वह विधवा हो जाए तो वह उसके पुत्र की जिम्मेदारी है। मनुस्मृति महिलाओं के न करने के छह काम गिनाती है जिनमें से एक शराब पीना है। महिलाओं को बिना काम के इधर-उधर घूमने की मनाही की गई है। महिलाओं को बेवक्त और देर तक सोने की मनाही की गई है। मनुस्मृति में महिलाओं के बारे में लिखा गया है कि वे हमेशा दूसरे मर्दों को आकर्षित करने और संभोग के लिए आतुर रहती हैं। वे अपने पति के प्रति भी वफादार नहीं रहतीं। लेकिन इस तरह की अनगिनत भेदभाव की बातें उसमें महिलाओं के खिलाफ हैं, और इसके साथ-साथ मनुस्मृति बहुत बुरी तरह ब्राम्हणवादी और पुरूषवादी सोच भी है। इसमें शूद्रों को नीच माना गया है, और कहा गया है कि अगर कोई शूद्र ब्राम्हण को धर्मउपदेश दे, तो राजा को उसके मुंह और कानों में खौलता हुआ तेल डलवा देना चाहिए। शूद्रों के पास सम्पत्ति होने का भी विरोध किया गया है, शूद्र अगर ब्राम्हण या उसकी जाति का नाम बदतमीजी से ले, तो उसके मुंह में दस अंगुल लंबी लोहे की दहकती हुई कील डाल देना चाहिए।

हिन्दुस्तान में निचली अदालतों के जजों को लिखित इम्तिहान के मुकाबले से छांटा जाता है, और उनकी राजनीतिक-सामाजिक सोच के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता है। नतीजा यह होता है कि उनका दलित-विरोधी, महिला-विरोधी पूर्वाग्रह सिर चढक़र बोलता है, और उन अदालतों से इन तबकों को किसी इंसाफ की गुंजाइश भी नहीं रहती है। हमारा तो ख्याल यह है कि लिखित परीक्षा में कामयाब होने के बाद ऐसे उम्मीदवारों को सामाजिक कार्यकर्ताओं के सवालों का सामना करना चाहिए या लिखित परीक्षा में ही सामाजिक सोच के बारे में पूछना चाहिए, और उस आधार पर उनका मूल्यांकन करना चाहिए। अब सवाल यह भी उठेगा कि ऐसा मूल्यांकन कौन करेंगे, क्योंकि जिन लोगों को यह काम दिया जाएगा उनकी अपनी सोच पुरूषवादी और दलित-विरोधी होने का पूरा खतरा रहेगा। पिछले एक दशक में हिन्दुस्तान में मनु के प्रशंसकों, और भारत की हजारों साल पुरानी सोच के प्रशंसकों के दिन निकल आए हैं। यही वजह है कि दलितों को देश भर में तरह-तरह से मारा जा रहा है, और बलात्कारियों का तरह-तरह से अभिनंदन हो रहा है।

केरल के इस जज की सोच के खिलाफ तो वहां लोगों की आवाज उठने लगी है। कुछ रिटायर्ड जजों ने यह भी कहा है कि इस जज की टिप्पणियों के खिलाफ ऊपर की अदालत में जाने की जरूरत है। आज हिन्दुस्तान में सामाजिक न्याय के आंदोलनकारियों के बीच इस सक्रियता की जरूरत है कि अदालतों की बेइंसाफ बयानबाजी, और उनके फैसलों के खिलाफ एक सामाजिक जागरूकता फैलाई जाए। जब तक ऐसे जजों के खिलाफ सार्वजनिक और सामाजिक सवाल नहीं उठेंगे, तब तक उनका ऐसा ही रूख जारी रहेगा। इसलिए जब कभी ऐसा कोई अपमानजनक बयान या फैसला किसी अदालत का आता है, तो तुरंत उसका विरोध करने की जरूरत है। केरल के एक जिले के इस जज की टिप्पणियों के खिलाफ सोशल मीडिया पर खूब लिखा जा रहा है, और इस बात को आगे बढ़ाना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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