संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कभी बाढ़, तो कभी सूखा, कहीं बाढ़, तो कहीं सूखा, इसके लिए क्या तैयारी?
25-Aug-2022 6:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कभी बाढ़, तो कभी सूखा, कहीं बाढ़, तो कहीं सूखा, इसके लिए क्या तैयारी?

योरप के बारे में डरावनी रिपोर्ट है कि वह पिछले पांच सौ साल का सबसे भयानक सूखा झेल रहा है। यूरोपियन यूनियन की रिसर्च रिपोर्ट कहती है कि फसलों का इलाका घटते चल रहा है, बिजली उत्पादन घटते चल रहा है, जंगलों की आग बढ़ते जा रही है, और अंधाधुंध बढ़ी हुई गर्मी से हवाई आवाजाही पर असर पड़ा है, हजारों लोग बेघर हुए हैं, और गर्मी और लू की वजह से सैकड़ों मौतें हुई हैं। यह रिसर्च रिपोर्ट कहती है कि करीब आधा योरप चेतावनी जारी करने के स्तर पर चल रहा है। बिजली से लेकर अनाज तक का उत्पादन इस गर्मी और सूखे की वजह से गिर गया है। नदियां सूख गई हैं, और कई बड़ी नदियों में पानी की कमी से सैकड़ों बरस से चले आ रहा जल परिवहन भी रोक दिया गया है। बांधों में पानी इतना कम है कि पनबिजली  का उत्पादन एक चौथाई तक कम हो गया है। साठ हजार हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जल चुके हैं। पिछले दस बरस में जंगल हर बरस जितने जलते थे, उससे यह साढ़े चार गुना अधिक है।

अब योरप से बिल्कुल परे के एक दूसरे इलाके को देखें तो चीन से पिछले कुछ दिनों से खबर आ रही है कि वहां के बहुत से बड़े शहरों में शॉपिंग मॉल बंद करवा दिए गए हैं, पर्यटन केन्द्र बंद कर दिए गए हैं, कारखानों में उत्पादन बंद कर दिया गया है, और शहरी इलाकों में भी बिजली काट दी गई है, क्योंकि नदियां सूख गई हैं, बांधों में पानी नहीं है, और पनबिजली बन नहीं पा रही है। चीन में यह 61 साल की सबसे भयानक गर्मी बताई जा रही है, और इसकी वजह से बिजली की खपत भी बढ़ी है, और नदियां सूखने से बिजली का उत्पादन गिरा है। डेढ़ सौ से अधिक शहरों में बुरी लू की चेतावनी जारी की गई है, और लोगों को घर पर ही रहने कहा गया है। कोरोना लॉकडाउन की वजह से महीनों से चीन के कई शहरों की जिंदगी थमी हुई थी, कारोबार रूका हुआ था, और अब वहां खेती से लेकर कारखाने तक, सभी कुछ बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। चीन की सबसे लंबी, और दुनिया की तीसरे नंबर की लंबी नदी, यांग्त्जी से 40 करोड़ लोगों को पानी मिलता है, और खेतों को भी, लेकिन पिछले पांच बरस में इसमें पानी पचास फीसदी से भी कम रह गया है, जो कि पिछले डेढ़ सौ बरस का रिकॉर्ड है।

लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले जब ब्रिटेन के ग्लास्गो में क्लाइमेट समिट हुई थी तो दुनिया के बहुत से देशों के शासन प्रमुख वहां पहुंचे थे, और वहां इस बात पर बड़ी फिक्र हुई थी कि दुनिया का तापमान जो लगातार बढ़ते चल रहा है, उसकी बढ़ोत्तरी को रोकना जरूरी है, वरना दुनिया में बड़ी तबाही आएगी जिसे झेल पाना मुश्किल होगा। लेकिन जिस तरह श्मशान वैराग्य के माहौल में बहुत सी बातें की जाती हैं, उसी तरह देशों ने ग्लास्गो में तरह-तरह के वायदे किए, घोषणापत्र पर दस्तखत किया, और अपने-अपने देश लौटकर सब भूल गए। अमरीका में पर्यावरण को बचाने के लिए वाइडन सरकार जो कोशिश कर रही थी, उस पर वहां के सुप्रीम कोर्ट ने ही रोक लगा दी है। इस अदालती फैसले को बहुत ही निराशाजनक कहा जा रहा है, लेकिन उसके खिलाफ कुछ इसलिए नहीं किया जा सकता कि वहां का सुप्रीम कोर्ट पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी की सोच वाले जजों के बहुमत का हो चुका है, और वहां से किसी सुधारवादी, प्रगतिशील, उदारवादी फैसले की कोई उम्मीद नहीं की जा रही है।

लेकिन सिर्फ योरप, चीन, और अमरीका की फिक्र करना आज का मकसद नहीं है। आज हिन्दुस्तान के कितने ही प्रदेशों में जैसी बुरी बाढ़ आई हुई है, बादल फटने से उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में जितनी तबाही हो रही है, वह सब बेकाबू लग रहा है। एक तरफ तो पिछले कई महीनों से हिन्दुस्तान में चल रही बेमौसम की अंधाधुंध गर्मी ने गेहूं जैसी परंपरागत फसल को तबाह किया है, तो दूसरी तरफ आने वाले बरसों में यह गर्मी कम होते नहीं दिख रही है, और इस पूरी सदी में यूपी, राजस्थान, और गुजरात में बहुत बुरी गर्मी पडऩे का मौसम का अंदाज सामने आया है। एक तरफ कई प्रदेश बाढ़ से बेहाल हैं, दूसरी तरफ कई प्रदेश भयानक गर्मी और सूखा झेल रहे हैं, ऐसे में मौसम की सबसे बुरी मार भी बढ़ते चल रही है, और वह बार-बार भी हो रही है। फिर मौसम सडक़ के ट्रैफिक जैसा नहीं होता है जिसे कि लालबत्ती दिखाकर रोक दिया जा सके।

लोगों को याद होगा कि पिछले एक बरस में ही इसी योरप में भयानक बाढ़ आई थी जिसमें विकसित देशों के जमे-जमाए शहर तबाह हुए थे। और मौसम की उस एक किस्म की मार से ठीक उल्टे जाकर अब सूखे की मार आ रही है। अब सवाल यह है कि क्या बाढ़ के वक्त का पानी किसी तरह धरती के भीतर बचाने की कोई योजना बनाई जा सकती थी जो कि उस वक्त बाढ़ की मार को कम करती, और आज पानी की जरूरत को? हिन्दुस्तान में नदियों को जोडऩे की एक योजना सुप्रीम कोर्ट तक जाकर वहां के हुक्म से चल रही है, लेकिन उसकी किसी रफ्तार की कोई खबर सुनाई नहीं पड़ती है। पर्यावरण शास्त्रियों और आंदोलनकारियों की एक बड़ी फिक्र उससे जुड़ी हुई यह है कि धरती के ढांचे में फेरबदल करके नदियों को दूसरी तरफ भी कुछ हद तक मोड़ा जाएगा, तो उससे नदियों के प्राणियों की जिंदगी पर कैसा असर पड़ेगा? अभी वह बहस चल ही रही है, नदी-जोड़ योजना से अधिक रफ्तार से चल रही है, लेकिन इसी बीच देश के किसी हिस्से में बाढ़ से तबाही, और किसी दूसरे हिस्से में सूखे से तबाही दोनों साथ-साथ चल रही हैं, और नदियां जोडक़र, पानी मोडक़र संतुलन बनाने के अलावा और कोई रास्ता सूझ भी नहीं रहा है। महाराष्ट्र जैसे कई प्रदेश हैं जहां पर ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी कुओं में उतरकर खतरनाक तरीकों से रोज पानी निकालने में गुजर जा रही है, और असम, बिहार जैसे प्रदेश हैं जहां पर हर बारिश में लोगों की जिंदगी बचाव दल की बोट की वजह से बच पाती है।

हम यहां पर ग्लास्गो के बड़े-बड़े और 2070 तक के वायदों के बारे में अधिक कहना नहीं चाहते, लेकिन इस पर सोचने की जरूरत है कि इंसानों की जिंदगी के लिए पर्यावरण, पेड़ और पशु के साथ-साथ पानी और फसल भी उतने ही जरूरी माने जाएं या नहीं? न सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि दुनिया के हर देश को अंधाधुंध बारिश के दौरान गिरने वाले पानी को जमीन के भीतर डालने की वैज्ञानिक तरकीब पर अमल करना होगा, उसी से बाढ़ घटेगी, समुद्र का जलस्तर बढऩा कम होगा, और अधिक गर्मी के वक्त वह पानी जमीन से निकाला जा सकेगा। दुनिया के अधिक बारिश वाले इलाकों में बंजर जमीनों पर ऐसे विशाल जलाशय बनाने की जरूरत है जो कि पानी को सहेजकर रख सकें, और वह पानी भूजल भंडारों की भरपाई कर सके। सिर्फ यही नुस्खा कोई रामबाण दवा नहीं है, और मौसम में बदलाव के जिम्मेदार बाकी भी बहुत से पहलुओं पर सोचना होगा। कुल मिलाकर यह है कि इन बातों पर चर्चा बढऩी चाहिए, उसे बढ़-बढक़र जागरूकता में तब्दील होना चाहिए, और वह जागरूकता अमल में आनी चाहिए।
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