संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जब हर तरफ निराशा फैली हो तो अपने आपको खबरों से कुछ अलग रखना बेहतर
30-Aug-2022 6:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  जब हर तरफ निराशा फैली हो तो अपने आपको खबरों से कुछ अलग रखना बेहतर

यूक्रेन पर रूस के हमले को छह महीने से अधिक हो गए हैं। दैत्याकार रूस की सेना के सामने यूक्रेन बहुत छोटा और कमजोर है, और पश्चिमी हथियार मिलने के बावजूद वह लगातार नुकसान झेल रहा है। यूक्रेन के काफी हिस्से पर रूसी फौज का कब्जा हो गया है, और यूक्रेन के इन इलाकों में बचे हुए, मोटेतौर पर बूढ़ों, महिलाओं, और बच्चों की आबादी को रूस अपने में शामिल करने की कोशिश भी कर रहा है। ऐसी आबादी लगातार जिस तनाव में जी रही है उसका एक अंदाज इससे लगता है कि जब ऐसे एक यूक्रेनियन से पूछा गया कि वे ऐसे हालात में किस तरह जी रहे हैं, तो उसने कहा- अपने-आपको खबरों से दूर रखकर।

जब चारों तरफ बहुत ही बुरी बातें हो रही हों, हौसले को तोडऩे की बात हो रही हो, हैवानियत नाच रही हो, तथाकथित इंसानियत दुबककर बैठ गई हो, तब अपने को खबरों से दूर रखना शायद अपने बचे-खुचे हौसले को बचाए रखने की एक तरकीब हो सकती है। हिन्दुस्तान में भी हम देखत हैं कि बहुत से लोग सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहते हैं, और लगातार वहां आ रही नकारात्मक खबरों को देख-सुनकर वे दिमागी रूप से टूटने लगते हैं। जो लोग थोड़े से संवेदनशील होते हैं, वे कुछ दिनों के लिए सोशल मीडिया से अलग हो जाते हैं। टीवी की खबरों से भी बहुत से लोग परहेज करने लगे हैं क्योंकि किसी नापसंद खबर को छोडक़र आगे बढ़ जाना टीवी पर मुमकिन नहीं होता है। अखबार में तो पन्ना पलटाया जा सकता है, दूसरी खबर पर जाया जा सकता है, ऐसी ही सहूलियत इंटरनेट पर खबरों के साथ रहती है, लेकिन टीवी की खबरें रेल के डिब्बों की तरह एक के बाद एक चलती हैं, और उन्हें छोडक़र आगे नहीं बढ़ा जा सकता। वैसे तो सोशल मीडिया पर भी बाकी इंटरनेट की तरह खबरों को छोडक़र आगे बढ़ा जा सकता है, लेकिन वहां फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर आपको आपकी पसंदीदा और चुनिंदा चीजें दिखाते चलते हैं, और जब आप उनसे थक चुके रहते हैं, तब भी आपकी थकान का अंदाज लगाने में इन कम्प्यूटरों को कुछ वक्त लग जाता है। फिर यह भी रहता है कि फेसबुक जैसी जगह आप जिन्हें फॉलो करते हैं, या जो आपके दोस्त रहते हैं, उन्हीं की पोस्ट आपको अधिक दिखाई जाती है, और अगर वे किसी एक विचारधारा के हैं तो उनकी हिंसा, या उनकी नफरत, या उनकी निराशा आप तक भी पहुंचती है।

जिस तरह हम बीच-बीच में लिखते हैं कि जिंदगी में धर्म की एक सीमित भूमिका रहनी चाहिए, उसी तरह खबरों की भी एक सीमित जगह रोज की जिंदगी में होनी चाहिए। और जब हम इस जगह को सीमित करने की बात करते हैं, तो पाठक की पसंद और प्राथमिकता की गुंजाइश सबसे ऊपर रहना चाहिए। टीवी के साथ यह बिल्कुल भी नहीं है। रेडियो की खबरों के साथ भी यही दिक्कत है कि गैरजरूरी या नापसंद खबर को छोडक़र आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। इसलिए लोगों को खबर पाने, समाचार या विचार पाने के अपने जरिये सोच-समझकर तय करना चाहिए। टीवी के आधे घंटे के एक बुलेटिन में जितनी जानकारी किसी दर्शक को मिलती है, उतनी जानकारी वे दर्शक पाठक बनकर दस मिनट में किसी अखबार या जिम्मेदार वेबसाइट से पा सकते हैं, या तो बीस मिनट बचा सकते हैं, या टीवी के मुकाबले तीन गुना खबरों को जान सकते हैं।

और यह बात हम महज समाचार-विचार के लिए नहीं कह रहे हैं, बल्कि जिंदगी में रोज लोग जितना समय जानकारी, विचार, और मनोरंजन पाने के लिए रखते हैं, उसका बड़ी सावधानी से इस्तेमाल होना चाहिए। अब अगर कोई किताब पढऩा शुरू किया गया है, और वह बेकार निकल गई है, तो उसे पूरा पढऩे की जहमत नहीं उठाई जाती, उसे छोड़ दिया जाता है, और किसी बेहतर किताब को उठाया जाता है। ठीक इसी तरह लोगों को अखबार, या कोई पत्रिका, या टीवी चैनल का समाचार या बहस का कार्यक्रम छांटना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है कि आप धीरे-धीरे वैसे ही इंसान बनने लगते हैं जैसी सोच आप समाचार-विचार, या मनोरंजन से रोज पाते हैं। अगर आप रोज हॅंसने के ऐसे कार्यक्रम देखते हैं जिनमें लोगों के रूप-रंग, उनकी शारीरिक कमजोरियों को लेकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है, तो धीरे-धीरे आप असल जिंदगी में भी वैसी खिल्ली उड़ाने वाले बन जाते हैं। आप जिन टीवी चैनलों पर वक्त बर्बाद करते हैं, उन्हीं चैनलों की सोच आपकी भी सोच बन जाती है। इसलिए लोग किन लोगों के बीच रोज बैठते हैं, किन बातों पर बातें करते हैं, उतनी ही अहमियत इस बात को भी देनी चाहिए कि वे रोज क्या देखते और सोचते हैं।

इसके साथ-साथ जिस बात से हमने आज की चर्चा शुरू की है, वह भी मायने रखती है। आसपास अगर चारों तरफ सिर्फ निराशा और तकलीफ की खबरें हैं, तो उन्हीं खबरों को पूरे वक्त देखते रहना, सुनते रहना भी ठीक नहीं है। अपनी जानकारी के लिए इन बातों को एक बार जान लेना जरूरी है, लेकिन उन्हीं बातों को दस-दस, बीस-बीस अलग-अलग जरियों से जानने का मतलब अपने आपको निराशा में डुबा देना है। हिन्दुस्तान में आज जब हवा में जहरीली नफरत काले बादलों सरीखी जम गई है, तब पूरे वक्त इस नफरत को ही पढऩा, उसे ही जानते रहना दिमागी सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकता है। जहां खुद के करने लायक कुछ न हो, वहां पर पूरे ही वक्त जहरीली नफरत से घिरे रहना ठीक नहीं है। लोगों को जिस तरह धर्म और आस्था पर खर्च किया जाने वाला अपना वक्त सीमित रखना चाहिए, ठीक उसी तरह आसपास की हिंसा और नफरत को देखने-समझने का वक्त भी सीमित रखना चाहिए। अब जब लोग असल जिंदगी के दोस्तों के दायरे की तरह सोशल मीडिया पर भी अपना एक आभासी दायरा बना लेते हैं, तब यह बात और जरूरी हो जाती है कि उन्हें एक ही सोच के सीमित दायरे के बाहर भी निकलना चाहिए, जिस तरह कि शहरी जिंदगी से घिरे हुए लोगों को कभी-कभी जंगल और कुदरत के बीच जाने का फायदा होता है। लोगों को आभासी दुनिया के अपने दायरे में धर्म, जाति, जेंडर, पेशे, राजनीतिक सोच, प्रादेशिकता की विविधता रखनी चाहिए, ताकि सारे ही वक्त उन्हें एक सरीखी नकारात्मकता में सांस न लेना पड़े।
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