संपादकीय
देश की राजधानी दिल्ली के इलाके में उत्तरप्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार और बिल्डर माफिया की ताकत ने मिलकर सैकड़ों करोड़ के जो अवैध टॉवर बनाए थे, वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले और कड़े रूख के चलते गिराने पड़ गए। देश भर में बिल्डर माफिया बहुत सी जगहों पर इसी तरह गुंडागर्दी से अवैध निर्माण करते हैं, उन्हें लोगों को बेचकर निकल जाते हैं। यह मामला किसी तरह सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच सका, और उस पर कार्रवाई हो सकी। ऐसा अंदाज है कि इन दो इमारतों में जो नौ सौ फ्लैट बनाकर बेचने के लिए लोगों से रकम ले ली गई थी, उसके दाम सात सौ करोड़ रूपये से अधिक थे। जिस वक्त इन्हें विस्फोटक लगाकर उड़ाया जा रहा था, सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बातें लिखी जा रही थीं कि इन इमारतों को राजसात करके वहां पर कोई समाजसेवा का काम शुरू कर देना चाहिए, और इन्हें बनाने में देश का जो पैसा लगा है उसे बर्बाद नहीं होने देना चाहिए। सौ मीटर ऊंची ये दो इमारतें करीब तीस-तीस मंजिल की थीं, और देश की राजधानी के इलाके में यह एक सबसे बड़ी बिल्डर-गुंडागर्दी थी जिसे मिट्टी में मिला देने का सबक बहुत से लोगों को मिलेगा।
जिन लोगों को यह लगता था कि इन इमारतों का कोई समाजसेवी उपयोग होना चाहिए, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह जगह इस रिहायशी कॉलोनी के बगीचे के लिए सुरक्षित थी, और वहां सुप्रीम कोर्ट भी उसका कोई और इस्तेमाल नहीं कर सकता था। उस जगह पर आसपास के उन हजारों लोगों का ही हक था जिन्होंने उस कॉलोनी में मकान खरीदे थे, और अब खाली हुई इस जगह पर बगीचा पाना जिनका हक था। अदालत में यह मामला नौ बरस तक चला था, और उसके बाद जाकर सुप्रीम कोर्ट से यह फैसला हुआ, और ये गैरकानूनी इमारतें गिराई गईं। यह तो वहां के निवासी संपन्न थे जो उन्होंने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी, वरना किसी गरीब इलाके के लोग तो नौ बरस सुप्रीम कोर्ट में दाखिल होने की ताकत भी नहीं रखते। ऐसे में यह मामला देशभर के प्रदेशों के सामने, म्युनिसिपलों के सामने एक नजीर की तरह रहना चाहिए कि ग्राहकों को धोखा देने वाले बिल्डरों का क्या हाल किया जाना चाहिए।
इसी तरह के मामलों के अदालत के बाहर निपटारे का काम राज्यों में बनाई गई रेरा नाम की संस्था कर सकती है जहां पर किसी भी बिल्डर या कॉलोनाइजर के खिलाफ ग्राहक जा सकते हैं, और उनके साथ हुई बेईमानी के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं। राज्यों में बनाई गई संवैधानिक संस्था के अधिकार देखें, तो वे बेईमान बिल्डरों को जेल भेजने लायक हैं। उनके कारोबार को बंद करवा देने के लायक हैं, उनके बैंक खाते जब्त कर देने के लायक हैं। अलग-अलग प्रदेशों में कम या अधिक कार्रवाई भी रेरा की सुनवाई के बाद हो रही है, और जहां पर यह संस्था ईमानदारी और सक्रियता से काम कर रही है, वहां पर बिल्डर माफिया पर मजबूत शिकंजा कस रहा है।
आज हिन्दुस्तान में रिहायशी या कारोबारी इमारतें बनाकर उनमें जगह बेचने का कारोबार कई किस्म की राजनीतिक और गुंडागर्दी की ताकत से लैस है। इन ताकतों को अदालतों में चलने वाले मामलों पर बड़ा भरोसा रहता है कि वहां से उनके खिलाफ कोई फैसला होने तक तो शिकायतकर्ता की जिंदगी ही खत्म हो जाएगी। इस मामले में भी देश की सबसे बड़ी अदालत में भी अगर नौ बरस लगे थे, तो बिल्डर के वकीलों की तरकीबों और ताकत का अंदाज लगाया जा सकता है। दूसरी तरफ रेरा जैसी संस्था को जो अधिकार दिए गए हैं उनमें हो सकता था कि नौ महीनों में ही इस बिल्डर के बैंक खातों पर रोक लग जाती, वहां जमा रकम वहीं पड़ी रह जाती, और उस हालत में बिल्डर इस हड़बड़ी में रहता कि रेरा में फैसला जल्दी हो जाए। देश के कानून में अदालतों से परे कई किस्म के मामलों को तेजी से निपटाने के लिए कहीं ट्रिब्यूनल बनाए गए हैं, कहीं प्राधिकरण बनाए गए हैं। देश की निचली अदालतें दो लीटर दूध में मिलावट का फैसला करने में तीस-तीस बरस ले रही हैं, दूसरी तरफ उपभोक्ता फोरम जैसी ग्राहक पंचायतें कुछ महीनों में ही इनका निपटारा कर सकती हैं। लोगों के बीच इस बात को लेकर जागरूकता भी रहनी चाहिए कि देश में उनके अधिकारों के लिए अदालतों से परे कौन-कौन सी संस्थाएं बनी हैं, और उनका इस्तेमाल कैसे हो सकता है।
हम छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में देखते हैं जहां कुछ गिने-चुने बिल्डरों और कॉलोनाइजरों को छोड़ दें, तो अधिकतर का काम बड़े पैमाने पर गैरकानूनी है। इनके खिलाफ इनके ग्राहकों को संगठित होकर शिकायत करनी चाहिए, और जो इलाके ऐसे प्रोजेक्ट से प्रभावित होते हैं, उन्हें भी कानूनी लड़ाई लडऩी चाहिए। दो-चार धोखेबाज कारोबारी हर प्रदेश में इस तरह की सजा पाएंगे, जेल भेजे जाएंगे, तो पूरा कारोबार सुधर जाएगा। देश में कानूनी विकल्प आसानी से हासिल हैं, और लोगों को अदालतों से अब तक मिली निराशा को छोडक़र इन नए विकल्पों का फायदा उठाना चाहिए।
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