संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : समकालीन इतिहास की सबसे लंबी गवाह नहीं रहीं
09-Sep-2022 4:10 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : समकालीन इतिहास की सबसे लंबी गवाह नहीं रहीं

दुनिया के इतिहास में सबसे लंबे समय तक राष्ट्रप्रमुख रहीं ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के गुजरने के साथ ही दुनिया के इतिहास का एक बड़ा अध्याय पूरा लिखा गया। वे 70 बरस तक ब्रिटेन के सिंहासन पर रहीं, और 96 बरस की उम्र में चल बसीं। अभी दो दिन पहले ही उन्होंने ब्रिटेन के पिछले प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का इस्तीफा मंजूर किया था, और कंटरवेटिव पार्टी की नई नेता लिज ट्रस को अगला प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। इन दोनों ही तस्वीरों में वे कमजोरी के साथ खड़ी लेकिन हॅंसती-मुस्कुराती दिख रही थीं। कुछ ही समय पहले उनके पति गुजरे थे, और ब्रिटेन की संवैधानिक परंपरा के मुताबिक वे अपने बेटे, अब तक के प्रिंस चाल्र्स, और अब किंग चाल्र्स तृतीय को सत्ता देकर गई हैं।

ब्रिटेन को दुनिया में लोकतंत्र की मां कहा जाता है, लेकिन एक विरोधाभासी बात यह भी है कि एक शाही परिवार अब भी न सिर्फ ब्रिटेन का राष्ट्रप्रमुख है, बल्कि राष्ट्रमंडल देशों के कुछ और बड़े देश भी महारानी को अपना शासनप्रमुख मानते हैं। ये देश ब्रिटिश साम्राज्य से अलग-अलग वक्त पर आजाद हुए हैं, लेकिन अपनी पसंद से वे ब्रिटिश महारानी को ही अपना संवैधानिक प्रमुख मानते हैं। ऐसे पन्द्रह देशों में ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड जैसे बड़े देश भी शामिल हैं। इसके अलावा क्वीन एलिजाबेथ राष्ट्रमंडल देशों की प्रमुख भी थीं जिसमें शामिल 56 देशों में से तकरीबन तमाम देश ब्रिटेन के गुलाम देश रहे हुए हैं, और इन्हें देखने का एक नजरिया यह भी हो सकता है कि मुक्त कराए हुए बंधुआ मजदूरों ने अपने ही पिछले जमींदार-मालिक के मातहत एक संघ बना लिया। खैर, एलिजाबेथ के जाने के बाद किंग चाल्र्स तृतीय इसके मुखिया हो गए हैं। महारानी एलिजाबेथ उस ब्रिटिश शासन की सबसे लंबी राष्ट्रप्रमुख रही हैं जिसके राज में सूरज कभी डूबता नहीं था, मतलब यह कि दुनिया भर में बिखरे हुए देशों में से इतने देशों पर ब्रिटेन का राज रहता था जिनमें से कुछ में हर वक्त दिन रहता था।

लोगों को यह बात कुछ अजीब भी लग सकती है कि वे इतने बरस राजगद्दी पर रहीं कि उनके वारिस प्रिंस चाल्र्स पूरी जिंदगी से ही उन्हें महारानी देखते रहे, और खुद उनके महाराजा बनने की बारी 73 बरस की उम्र में आई। कई बरस से एलिजाबेथ की सेहत ठीक नहीं चल रही थी, और वे चाहतीं तो पहले भी गद्दी अपने बेटे के लिए खाली कर सकती थीं। लेकिन ब्रिटेन की शाही परंपराओं, और उसके लोगों की सोच के बारे में हमें अधिक पता भी नहीं है, और न ही उसका यहां कोई महत्व है। लेकिन एक सवाल यह उठता है कि जिस देश को दुनिया में लोकतंत्र का जन्मदाता माना जाता है, उसने राष्ट्रप्रमुख मनोनीत करने के लिए कोई लोकतांत्रिक तरीका क्यों ईजाद नहीं किया?

लोकतंत्र के ब्रिटिश मॉडल को ही लेकर आगे बढऩे वाले हिन्दुस्तान ने एक बेहतर मिसाल पेश की जहां आज देश की हर जाति के, और तकरीबन हर धर्म के लोग राष्ट्रपति बन चुके हैं। ब्रिटिश जनता राजघराने का लंबा-चौड़ा खर्च उठाती है, और इस परिवार के लोगों की निजी दौलत अरबों-खरबों में है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में निर्वाचित राष्ट्रप्रमुख की व्यवस्था कायम होने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के राजाओं को सरकार से मिलने वाला प्रिवीपर्स नाम का भत्ता भी बंद करवा दिया, और राजा धीरे-धीरे करके आम जनता की बराबरी पर ही आ गए। ब्रिटिश गुलामी से बाहर निकले हिन्दुस्तान ने एक बेहतर मॉडल पेश किया, लेकिन परंपराओं को पसंद करने वाले ब्रिटिश लोगों ने राजघराने की व्यवस्था को जारी रखा, और देश के दूसरे बहुत से लोग भी ब्रिटिश महारानी, अब महाराजा को अपना राष्ट्रप्रमुख बनाकर चलते हैं। जो देश ब्रिटिश गुलामी से बाहर हो चुके हैं, वे भी अब अगर राजसिंहासन की इस व्यवस्था को ढो रहे हैं, तो यह उनकी अपनी पसंद की बात है।

महारानी एलिजाबेथ ने अपने जीते जी द्वितीय विश्वयुद्ध भी देखा, और दुनिया भर की पिछली करीब पौन सदी की तरह-तरह की राजनीतिक उथल-पुथल भी देखी। वे समकालीन इतिहास की एक सबसे बड़ी गवाह रहीं, और अगर उन्होंने कहीं इतिहास दर्ज कर रखा होगा, तो वह बहुत खास इस मायने में भी होगा कि पिछली सदी के सन् 50 के दशक से अब तक लगातार इतनी अहमियत वाले तख्त पर बैठकर दुनिया को देखने का ऐसा मौका किसी भी और को नहीं मिला है। ब्रिटिश लोगों का बहुमत राजघराने का हिमायती है, और इसी के साथ इस व्यवस्था की कोई भी आलोचना बेमायने हो जाती है। हर देश को अपनी व्यवस्था तय करने का हक है, और ब्रिटिश राष्ट्रप्रमुख को तो इतने सारे दूसरे देश अपना प्रमुख मानते हैं जिन पर कोई ब्रिटिश दबाव भी नहीं है। यह आम हिन्दुस्तानी समझ के मुताबिक समझ से परे की बात है, लेकिन हकीकत यही है।

ब्रिटेन की एक बात को लेकर तारीफ करनी होगी कि ऐसी शाही व्यवस्था वहां एक प्रतीक के रूप में तो कायम है, लेकिन वह मीडिया और समाज को नहीं रोकती कि उन्हें राजघराने की आलोचना नहीं करनी चाहिए। देश के नोटों और डाकटिकटों पर जिस परिवार की तस्वीरें हैं, उस परिवार के सेक्स-स्कैंडल ब्रिटिश अखबारों में एक आम बात रहते हैं। आज वहां राजगद्दी पर बैठे चाल्र्स जब प्रिंस चाल्र्स थे, तब उनके और उनकी पत्नी डायना के विवाहेत्तर संबंधों के स्कैंडल ब्रिटिश अखबारों को दिलचस्प बनाए रखते थे। अभी भी शाही परिवार के एक प्रमुख सदस्य को अदालतों में यह मुकदमा झेलना ही पड़ रहा है कि उसने एक नाबालिग लडक़ी से सेक्स किया था। ब्रिटिश मीडिया इस बारे में बेरहम है, और शाही परिवार की व्यवस्था चाहने वाली ब्रिटिश जनता भी ये सेक्स कहानियां चाहती है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि टैक्स देने वाली जनता को इतना सनसनीखेज मनोरंजन इससे सस्ते में नहीं मिल सकता था। किसी का भी गुजरना कमउम्र में और किसी हादसे से न हो, तो उसमें अधिक दुख मनाने का कुछ नहीं रहता। और जितनी लंबी और जितनी महत्वपूर्ण जिंदगी महारानी एलिजाबेथ गुजारकर गई हैं, उसका एक छोटा हिस्सा भी शायद उनके वारिसों को नसीब नहीं होगा। हमारे लिए यह निधन समकालीन इतिहास के सबसे लंबे गवाह का गुजरना है, और हम उम्मीद करते हैं कि उनका लिखा या दर्ज करवाया हुआ सामने आएगा।

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