संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : निकम्मी न्याय व्यवस्था को और रकम की जरूरत है?
11-Sep-2022 4:46 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  निकम्मी न्याय व्यवस्था को और रकम की जरूरत है?

असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा आमतौर पर मुस्लिम विरोधी नफरती बातों के लिए ही खबरों में आते हैं। लेकिन कल की एक खबर इससे कुछ अलग है, और उन्होंने कहा कि अदालती ढांचे को बेहतर बनाने के लिए केन्द्र सरकार पूरे देश को 9 हजार करोड़ रूपये दे रही है जिसमें से असम को तीन सौ करोड़ रूपये मिलने हैं, और राज्य सरकार निचली अदालत में नए जज नियुक्त करेगी ताकि लोगों को इंसाफ जल्दी मिल सके। उनकी बाकी बातों से परे, हम उन्हें भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति मानकर उनकी इस बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं कि अदालतों में अधिक नियुक्तियां की जाएंगी। अब उनके बयान के मुताबिक तो देश के हर राज्य को केन्द्र सरकार की तरफ से अदालत के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए बजट मिलना है, और अधिकतर राज्यों के सामने निचली अदालतों की चुनौतियां भी कमोबेश एक सरीखी हैं, और संभावनाएं भी।

देश के किसी भी राज्य को देखें तो निचली अदालतें सिवाय पेशी बढ़ाते चलने के बहुत ही कम दूसरा काम कर पाती हैं। बहुत कम फैसले होते हैं, और अधिकतर लोग उन्हीं मामलों में कार्रवाई जरा भी आगे बढ़े बिना बार-बार अदालत जाते हैं, हर बार रिश्वत देकर अगली तारीख सुनकर लौटते हैं, और पूरी तरह, बुरी तरह भ्रष्टाचार पर टिका हुआ यह अदालती ढांचा इंसाफ करने का एक ढकोसला करते दिखता है। देश की अधिकतर आबादी जिला अदालत से ऊपर किसी अदालत में मुकदमा लडऩे के लायक नहीं हैं, बल्कि जिला अदालत में ही अधिकतर लोग कर्ज से लद जाते हैं, हरिशंकर परसाई की लिखी एक बात पिछले लंबे समय से बार-बार सोशल मीडिया पर दुहराई जाती है जिसका मतलब यह है कि गरीब एक बार अदालत पहुंच जाए, तो उसकी सबसे अधिक मेहनत अपने ही वकील से अपने को बचाने में लग जाती है। और केन्द्र सरकार ने अभी जो रकम मंजूर की है उसका कोई भी असर वकील और मुवक्किल के बीच के रिश्तों को बेहतर बनाने वाला नहीं है। जो राज्य इस रकम का बेहतर इस्तेमाल करेंगे, या अपने खुद के बजट से भी खर्च करेंगे, वहां इतना ही हो सकता है कि सबसे गरीब लोग अपने जीते जी फैसला पा सकें।

यह लोकतंत्र की एक सबसे बुरी शिकस्त है कि लोग कानून को अपने हाथ में न लेकर, कानून पर भरोसा करके अदालत जाते हैं, और वहां पर पूरी जिंदगी गलियारों में गुजार देते हैं। इंसाफ के नाम पर जो फैसले होते हैं, वे भी अक्सर ही महज फैसले होते हैं, उनका इंसाफ से कम ही लेना-देना होता है। बहुत से अदालती मामलों में तो यह होता है कि ताकतवर अपने हक में फैसले खरीद लेते हैं, और इंसाफ गलियारे में गरीब के साथ चुपचाप खड़े रह जाता है। यह नौबत तब और भयानक हो जाती है जब न्याय व्यवस्था अमानवीय हो जाती है, और वह बिना यह सोचे लोगों को पूरी जिंदगी अदालत बुलाते रहती है कि उनकी जिंदगी के उतने दिन बर्बाद होने का उन्हें कितना नुकसान होगा। हिन्दुस्तान सचमुच ही बहुत ही अमन-पसंद लोगों का देश है, वरना पूरी जिंदगी अदालतों में बर्बाद करने को मजबूर लोग कानून अपने हाथ में ही ले चुके होते, और अपने हिसाब से फैसला कर चुके होते।

इस देश के बड़े-बड़े तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों से निकले हुए लोग दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां चलाते हैं, लेकिन इस देश के अदालती ढांचे को सुधारने का काम मानो किसी सरकार की दिलचस्पी का नहीं है। न तो टेक्नालॉजी से, और न ही मैनेजमेंट से अदालतों को सुधारा जाता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि कोई भी सत्तारूढ़ पार्टी अदालतों को अधिक उत्पादक और तेज रफ्तार बनाना नहीं चाहतीं क्योंकि ऐसा होने पर सत्ता के लोग ही सबसे पहले जेल जाएंगे। इसलिए अदालतों को निकम्मा बनाए रखने में सत्ता की निजी दिलचस्पी हो सकती है। दिक्कत यह है कि छोटी से छोटी अदालत भी अपने आपको अवमानना के ऐसे फौलादी कवच से ढांककर रखती है कि उससे कोई सवाल नहीं किया जा सकता। छोटे से जज के सामने उसी अदालत में बैठा बड़ा सा बाबू हर मुवक्किल और हर वकील से हर पेशी पर रिश्वत लेते हुए दराज में रखते चलता है, और जज-मजिस्ट्रेट कानून की देवी की तरह आंखों पर पट्टी बांधे इस दराज को अनदेखा करते चलते हैं। यह पूरा सिलसिला किसी नए खर्च का मोहताज नहीं है, बल्कि एक नई नीयत का मोहताज है कि अदालतों से भ्रष्टाचार खत्म करना है, और उनकी उत्पादकता बढ़ाना है। आज जिस ढर्रे पर हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था की छोटी अदालतें काम करती हैं, उनमें सुधार के रास्ते कोई मामूली इंसान भी बता सकते हैं, लेकिन ये बातें अगर किसी को नहीं सूझती हैं, तो यह बड़े-बड़े जजों को नहीं सूझती हैं।

अदालतों के जज, बाबू, वकील, और पुलिस, इन सबके निजी फायदे में यही होता है कि मामले अंतहीन चलते रहें। दो लीटर दूध में मिलावट का मामला अगर 29 बरस के बजाय 29 दिनों में तय हो गया होता, तो इनमें से हर किसी को सौ-सौ पेशी पर होने वाले फायदे का नुकसान हो गया रहता। यह पूरा सिलसिला सुधारने की जरूरत है, और इसके लिए कई किस्म के आयोग भी बनते आए हैं, उनकी रिपोर्ट भी आती रही है, लेकिन हुआ कुछ नहीं है। अब जब यह खबर आई है कि केन्द्र सरकार 9 हजार करोड़ रूपये राज्यों को दे रही है, तो राज्यों के जनसंगठनों को सरकार के सामने यह मुद्दा उठाना चाहिए कि नए खर्च के साथ ही पुराने इंतजाम को भी सुधारा जाए, वरना नया खर्च सिर्फ भ्रष्ट लोगों को फायदा पहुंचाएगा, और पुरानी अदालतें बदहाल बनी रहेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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