संपादकीय
किसी अच्छे-भले काम को तबाह कैसे किया जाए, यह सीखना हो तो कांग्रेस से बेहतर आज कोई शिक्षक नहीं है। राहुल गांधी की पदयात्रा कन्याकुमारी से शुरू होकर केरल पार करके आगे बढ़ रही है, डेढ़ सौ दिनों में पैंतीस सौ किलोमीटर का यह सफर दर्जन भर से अधिक राज्यों से गुजरते हुए पूरा होने वाला है, और राहुल गांधी के अभूतपूर्व उत्साह की और सडक़ पर जनता की ओर से अभूतपूर्व स्वागत की सकारात्मक तस्वीरें रोजाना ही आ रही हैं। सोशल मीडिया इन तस्वीरों से भरा हुआ है, और देश के प्रमुख मीडिया से कोई अधिक उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती थी। जब चारों तरफ राहुल की मुस्कुराहट तैर रही है, और जब स्मृति ईरानी सरीखी गांधी परिवार से नफरत करने वाली बेकाबू नेता ऐसा खुला झूठ बोल रही है कि वह पल भर में पकड़ा जा रहा है, तब भी कांग्रेस शांत रहकर अपना काम नहीं कर पा रही है। कल ही कांग्रेस पार्टी ने इसी पदयात्रा को लेकर एक पोस्टर बनाया जिसमें आरएसएस के पुराने चले आ रहे प्रतीक चिन्ह, खाकी हाफपैंट को सुलगते हुए दिखाया है, और लिखा है कि अभी 145 दिन और बाकी हैं। कांग्रेस का निशाना इस बात पर है कि अगले 145 दिन में सुलग रहा यह हाफपैंट बचेगा भी नहीं। लेकिन सवाल यह है कि राहुल गांधी तमाम पार्टियों और जनसंगठनों के लोगों को जोडक़र जब यह पदयात्रा करना चाहते हैं, तो उस बीच कांग्रेस को आरएसएस पर हमले को इस यात्रा से क्यों जोडऩा चाहिए? क्या इस यात्रा से परे कांग्रेस के पास आरएसएस पर हमले का कोई सामान नहीं है? या फिर इस यात्रा को कांग्रेस अपनी डूबती हुई नाव के लिए एक तिनका मानकर उसका भी इस्तेमाल इस हमलावर तरीके से कर लेना चाहती है? जब राहुल गांधी भारत जोड़ो के नारे के साथ यह लंबी पदयात्रा कर रहे हैं, तो इस ऐतिहासिक मौके को बर्बाद करने के लिए इसे आरएसएस तोड़ो पदयात्रा में क्यों बदला जा रहा है?
बहुत से लोगों को महानता और कामयाबी ठीक से पच नहीं पाती है। आज जब तमाम चीजें एक सद्भावना को लेकर चल रही हैं, आम जनता के साथ राहुल गांधी की अनगिनत तस्वीरें उनका एक बहुत ही मानवीय पहलू दिखा रही हैं, जब सोशल मीडिया पर ही लोग यह बात लिख रहे हैं कि यह सद्भावना और मुस्कुराहट राहुल के विरोधियों को परेशान कर रही है, तब फिर कांग्रेस पार्टी को आरएसएस की चड्डी में आग लगाकर सद्भावना को पटरी से क्यों उतारना चाहिए? आज तो शायद आरएसएस ने राहुल गांधी पर कोई ताजा हमला भी नहीं किया है, हमला भाजपा के कई लोगों ने किया है, और आदतन स्मृति ईरानी बिना सोचे-समझे इस आग में कूद पड़ी हैं, और अपने ही हाथ-पांव जला बैठी हैं। जब विरोधी और आलोचक खुद ही अपने हाथ-पांव जला रहे हैं, तो कांग्रेस पार्टी को आरएसएस की चड्डी में आग क्यों लगानी चाहिए? अपने आपको बहुत महान मानने वाले कांग्रेस के नेताओं को शायद इस बात का अहसास और अंदाज नहीं होगा कि यह आग सद्भावना को महान बनाने की संभावनाओं में लग रही है, आरएसएस की चड्डी में नहीं। इस एक पोस्टर ने राहुल गांधी की सारी मुस्कुराहट पर पानी फेर दिया है, और उनके चेहरे पर एक अलग किस्म की क्रूरता मल दी है।
कांग्रेस की यह भारत जोड़ो यात्रा दलगत राजनीति से परे होती दिख रही थी। इससे कांग्रेस के लोग जुड़े हुए जरूर थे, लेकिन कांग्रेस से परे के भी कई लोग इससे जुड़े हैं, और कांग्रेस और भी लोगों के जुडऩे की उम्मीद कर रही है। ऐसे में जब देश के एक व्यापक हित के लिए बिना किसी आक्रामक नारे के भारत जोडऩे की बात हो रही है, तब किसी को भी तोडऩे की बात क्यों होनी चाहिए? देश की जनता के सामने यह बात साफ है कि देश को कौन तोड़ रहे हैं। उनके पोस्टर बनाने की जरूरत भी नहीं है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस संगठन इस पदयात्रा में राहुल गांधी की दिखती लोकप्रियता का नगदीकरण करवाने की हड़बड़ी में है, और कांग्रेस में जो लोग घोषित तौर पर आरएसएस के खिलाफ हैं, उन लोगों में इस लोकप्रियता का इस्तेमाल इस अभियान को आरएसएस के खिलाफ झोंकने में कर दिया है। यह सिलसिला कांग्रेस को फायदा तो दिलाने वाला है ही नहीं, बल्कि राहुल गांधी का नुकसान करने वाला है। जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो, तब भी कुछ लोगों का मिजाज उसका फायदा पाने का नहीं रहता। उन्हें लगता है कि उनके हुनर के बिना ही यह फायदा हासिल हो जाए, तो उनका तो अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। कांग्रेस के अतिउत्साही लोग ऐसी ही कोशिशों में जुट गए हैं। अगर कांग्रेस में कोई सचमुच ही राहुल गांधी के शुभचिंतक हैं, तो उन्हें पार्टी के नेताओं के हाथों से माचिस छीन लेनी चाहिए, ताकि वे और कई जगहों पर आग न लगा सकें। कुछ अभियान बड़प्पन और महानता के साथ चलने चाहिए, इस बात को कांग्रेस के कुछ समझदार नेताओं को समझना चाहिए, और पदयात्रा पूरी होने तक ऐसी हमलावर पोस्टरबाजी किनारे रखनी चाहिए। अगर इस बीच कांग्रेस को भाजपा या आरएसएस, या किसी और पर भी हमले की जरूरत लगती है, तो वह इस पदयात्रा से परे अलग हमला करे। गांधी ने इस देश को पदयात्रा के साथ-साथ मौन रहना भी सिखाया था।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)