संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अंग्रेजों से कुछ सीखा, और बहुत कोसा भी, आज एक और मौका
14-Sep-2022 5:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  अंग्रेजों से कुछ सीखा, और बहुत कोसा भी, आज एक और मौका

अंग्रेजों की लंबी गुलामी से थके हुए हिन्दुस्तान में जब राज की चर्चा होती है, तब अंग्रेजों की छोड़ी गई शिक्षा प्रणाली को कोसा जाता है कि वह बाबू बनाने वाली है, यह भी याद किया जाता है कि कोहिनूर हीरे सहित और कौन-कौन सी बेशकीमती हिन्दुस्तानी चीजें अंग्रेज यहां से लूटकर ले गए थे। अंग्रेजों ने जिस तरह बंगाल के अकाल में दसियों लाख लोगों को मरने दिया, और जिस तरह जलियांवाला बाग जैसा हत्याकांड किया, उनमें से कुछ भी भूलने लायक नहीं है, और उन्हें अक्सर ही याद भी किया जाता है। लेकिन इतिहास के जानकार इन बातों के साथ-साथ कुछ और बातों को भी याद करते हैं कि अंग्रेज अगर न आए होते, तो हिन्दुस्तान के हिन्दू समाज की बेरहम जाति व्यवस्था का क्या हाल हुआ होता, और इस देश में जो समाज सुधार कानूनों की वजह से हुए हैं, उनका क्या हाल हुआ होता।

खैर, अंग्रेजों की चर्चा करते हुए यह भी याद रखने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान में अपने संविधान का बुनियादी ढांचा ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से लिया है, यह एक अलग बात है कि आज आजादी की पौन सदी के मौके पर इस देश में किसी भी तरह की संसदीय व्यवस्था की जरूरत महत्वहीन हो गई दिखती है। आज ब्रिटेन अपने इतिहास के एक बड़े फेरबदल से गुजर रहा है जब 70 बरस तक राज करने वाली महारानी एलिजाबेथ गुजर गई हैं, और उनके बेटे प्रिंस चाल्र्स अब किंग चाल्र्स तृतीय बनकर ब्रिटेन के संविधान प्रमुख हो गए हैं। इस फेरबदल के मौके पर ब्रिटेन के सार्वजनिक जीवन में जो हो रहा है, उसे भी हिन्दुस्तान को देखना चाहिए क्योंकि इससे भी आज के हिन्दुस्तान को कुछ सीखने की जरूरत है। कल ब्रिटिश पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया क्योंकि उन्होंने महारानी के दर्शनार्थ रखे गए शरीर को देखने के लिए लगी हुई लंबी कतारों के बीच महारानी के खिलाफ नारे लगाए, चिल्लाकर यह सवाल किया कि इन्हें किसने चुना था? कुछ और लोगों को शाही परिवार के खिलाफ नारे लगाने पर पकड़ा गया, लेकिन इन तकरीबन तमाम लोगों को छोड़ भी दिया गया। जब दसियों लाख ब्रिटिश लोग शाही परिवार से अपने लगाव के चलते गमी में हैं, तब इस तरह के नारे लगाने वालों को पकडऩे पर भी वहां के कई संगठनों ने सवाल उठाए, और गिरफ्तारी का विरोध किया। खुद लंदन पुलिस ने कहा कि लोगों को विरोध करने का हक है। वहां के जनसंगठनों ने कहा कि गिरफ्तारी चिंता का विषय है क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी नागरिकों का अधिकार है। महारानी के अंतिम दर्शनों के लिए आ रहे लोगों के भी हक हैं, लेकिन इसके साथ-साथ दूसरे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी भी है। एक संस्था ने कहा कि विरोध करने का हक राष्ट्र की तरफ से लोगों को मिला तोहफा नहीं है, यह लोगों का बुनियादी हक है। पुलिस ने एक बयान जारी करके यह कहा कि हम अपने सभी अधिकारियों को यह बता रहे हैं कि विरोध करना जनता का हक है, और उसका सम्मान किया जाना चाहिए, और यह हक लोकतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

आज जब हिन्दुस्तान में बात-बात पर लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो रहे हैं, गिरफ्तारियां हो रही हैं, लोगों के एक-एक बयान को लेकर उन्हें बरसों तक जेल में बंद रखा जा रहा है, तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह ब्रिटिश पैमाना देखने, और उससे सीखने लायक है। आज तो हिन्दुस्तान में केन्द्र और राज्य सरकारों की पुलिस थाने के स्तर पर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तय कर रही है, लोगों का मान-अपमान तय कर रही है, यह तय कर रही है कि क्या अश्लील है, और क्या देशद्रोह है। ऐसे में देश को एक बार फिर यह सोचना चाहिए कि ब्रिटिश या अमरीकी लोकतंत्र की तारीफ करते हुए, या अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बतलाते हुए यह देश खुद कैसी मिसाल पेश कर रहा है? यहां के पत्रकार, यहां के सोशल मीडिया आंदोलनकारी, और कार्टूनिस्ट से लेकर फिल्मकार तक जिस तरह के फर्जी मामलों में उलझाए जा रहे हैं, क्या कोई यह कल्पना भी कर सकते हैं कि इस देश के किसी संवैधानिक प्रमुख की मौत हो जाने पर उसके खिलाफ सार्वजनिक जगहों पर नारे लगाए जाएं, और जनसंगठनों से लेकर पुलिस तक इस बात का सम्मान करे कि यह लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जिन लोगों को भी यह धोखा है कि लोकतंत्र कोई सस्ती शासन प्रणाली है, उन्हें अपनी समझ सुधार लेनी चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत ही लचीली व्यवस्था है, और यह नियम-कानून के बेजा इस्तेमाल से नहीं चलती, यह गौरवशाली और उदार परंपराओं से चलती है। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र बिगड़ते-बिगड़ते आज इस बदहाली में पहुंच गया है कि कायदे से तो 75वीं सालगिरह मनाने का इसे कोई हक नहीं होना चाहिए, पौन सदी पहले किसने यह सोचा होगा कि आज इस देश में लोकतांत्रिक अधिकार इस हद तक कुचल दिए जाएंगे।

अमरीका में जिस तरह वहां के शासन प्रमुख, अमरीकी राष्ट्रपति के खिलाफ बोलने, लिखने, चंदा देने, और चुनाव अभियान में शामिल होने की आजादी लोगों को रहती है, और किसी भी कारोबारी को यह डर नहीं रहता कि राष्ट्रपति का विरोधी होने की वजह से सरकारी एजेंसियां उन पर टूट पड़ेंगी। उससे भी हिन्दुस्तान को सीखने की जरूरत है, और ब्रिटेन के इस ताजा मामले से भी। लोकतंत्र में कोई भी सरकार अपने आपको लोगों की आलोचना से फौलादी जिरहबख्तर पहनकर नहीं बच सकती। अगर सरकारें इस तरह से बचती हैं, तो उसका मतलब यही है कि लोकतंत्र नहीं बचा। इसलिए एक परिपक्व लोकतंत्र को आलोचना की कई किस्म की आग से तपकर खरा साबित होना पड़ता है। चापलूसी से महज तानाशाही खरी साबित होती है, लोकतंत्र नहीं। हिन्दुस्तान में आज हर स्तर पर लोकतंत्र की इस बुनियादी समझ पर बात करने की जरूरत है, और यह देखने की जरूरत है कि किसी देश की करीब पौन सदी की महारानी गुजरने पर उसके शव के अंतिम दर्शनों में भी लोग उसके खिलाफ, राजपरिवार के खिलाफ किस तरह नारे लगा सकते हैं, और पुलिस को यह सिखाया जा रहा है कि यह लोगों का बुनियादी हक है।
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