विचार / लेख
-चैतन्य नागर
बंगाल में जन्मे, अंग्रेजी में पढ़े, नेपाल में काफी समय तक बसे घुमक्कड़ गुज्जू के लिए, जो फिलहाल हिंदी पट्टी में बसा हो, और औसत दर्जे की हिंदी और अंग्रेजी में अपनी समझ को बस शेयर कर पाता हो, उसके लिए किसी भी भाषा को ‘अपनी भाषा’ के रूप में चिन्हित करना बड़ा मुश्किल हो जाता है। स्पेनिश और फ्रेंच तो मुझे बिलकुल समझ नहीं आती पर फिर भी बच्चों की तरह उसका एक एक अक्षर पढऩे की कोशिश करता हूँ। उर्दू सुनकर ही नशा-सा होता है। दुनिया की करीब-करीब सभी प्रमुख भाषाएँ बोलने वाले मेरे मित्र हैं। कौन सी हुई मेरी भाषा?
शब्दों से कहीं ज़्यादा बोलती है देह भाषा और इसलिए लोगों के हाव भाव देखने और पढऩे में एक अलग ही आनंद आता है। शब्दों से बहुत ज़्यादा मुखर होती है देह की भाषा।
कुल मिलाकर समझ यही आता है कि जो भी कहा जाए, थोड़े में कहा जाए, सुनने में वह मीठा हो, व्यवस्थित हो, स्पष्ट हो; जहाँ तक हो सके सच हो, और अपनी ही समझ पर आधारित हो।
भाषा विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है। विचारों के बीच एक महीन सा अंतराल होता है, उसे भाषा व्यक्त नहीं करती। वह अंतराल भी बड़ा उर्वर होता है। उसके प्रति भी संवेदनशीलता बनी रहे यह जरुरी है।
भाषा जितना उद्घाटित नहीं करती, उतना तो छिपा ले जाती है। किस माध्यम में कहें, उससे ज्यादा अहम है कि क्या और कैसे कहें। नहीं क्या? किस भाषा में बोलें, उससे ज्यादा जरूरी यह लगता है कि हम तर्कसंगत तरीके से और अपने संस्कारबद्ध मन से थोडा हटकर सोचना सीखें, और फिर उसे जिस तरह भी, जिस भाषा में व्यक्त करेंगे, वह ज्यादा उपयोगी होगा व्यक्ति के लिए भी, और समाज के लिए भी। बगैर किसी भी भाषा के, बस सही ढंग से जीना हो सके, तो अति उत्तम।
किताबे-मीर दाद में बड़ी कीमती एक बात है-‘हर कही गयी बात झूठी होती है।’ अज्ञेय भी तो यही कह रहे हैं, ‘मैं सच लिखता हूँ, लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।’ जो कहा गया, लिखा-बोला गया, वह तो झूठा हुआ समझो। भाषा ठगती है। सच को झूठ बनाती है, और झूठ को लीप पोत कर रख देती है।
शब्द भी हो, खामोशी भी हो, और भाषा चाहे जितनी भी परिष्कृत क्यों न हो, उसकी जीवन में एक सीमित जगह रहे। क्यों? जिंदगी के झकझोर कर देने वाले अनुभव, चाहे वे विराट दु:ख के हों, या गहरी सौदार्यानुभूति और प्रेम के, बगैर किसी भाषा के ही महसूस किये जाते हैं। वे तो आपको खामोश, शब्दों से खाली कर देने वाले पल होते हैं।