विचार / लेख
-घुंघरू परमार
बात यूँ ही कल जब मुहावरों की चली तो एक मुहावरा अनायास याद आया है-
‘अंडा सेना-बेकार पड़े रहना’
इस मुहावरे का अर्थ कितना हिंसात्मक है,जब थोड़ा ध्यान से देखेँ तो। अभी लगभग 15 दिनों से एक चिडिय़ा को बालकनी के पेड़ पर देख रही। दिन-रात वो एक पल के लिए भी वहाँ से हिल नहीं रही। सोती भी तो गरदन पत्ते के सहारे टिकाकर,पता नहीं दाना-पानी कब और कैसे करती होगी।
मातृत्व कितना नैसर्गिक है! कोई भी पशु-पक्षी या मनुष्य ही क्यों ना हो, सबमें ये भावना स्वत: आ जाती।
ना जाने किस असंवेदनशील इंसान ने इस मुहावरे का अर्थ बेकार पड़े रहने से जोड़ा।
जब बच्चे को पढ़ाओ तो वो भी इसे ऐसे ही रटते जाते। असंवेदनशीलता का पाठ तो सिलेबस से ही पढ़ाना शुरू हो जाता। ऐसे और भी कुछ मुहावरे हैं जो असभ्य होने का पाठ पढ़ाते हैं।
एक किताब है-‘भारतीय साहित्य में महिलाओं पर अभद्र कहावतें’ जिसके लेखक हैं-एम.एस. गौतम। कभी मन करे तो इसे पलट कर देख सकते हैं।
राहुल सांकृत्यायन ने सही कहा था-समय आ गया है अब पुरानी परंपरा को तोडक़र एक नई परम्परा बनाई जाए। शुरुआत से क, ख, ग से शुरू किया जाए।
मुझे लगता ऐसे बहुत सारे पाठों को पुनर्पाठ की आवश्यकता है।
हम सब कन्डीशंड हैं पर जैसे ही चेतना आती है,उसे सुधार कर लेना चाहिए। बुनियादी तौर पर यह सब सुधारना होगा भाषा के प्रयोग में। हमें भाषा और व्यवहार में जेंडर के फर्क को कम-से-कम करना होगा। अब जैसे विलोम शब्दों की बात करें तो पति का विलोम पत्नी,उत्तर दिशा का विलोम दक्षिण, छात्र का विलोम छात्रा यह उदाहरण कितना गलत है। रिश्तों और दिशाओं के विलोम ही गलत हैं। जैसे प्रेम का विलोम क्या हो सकता भला?
हमें हमारी भाषा से हिंसात्मक,सामंती,जातिवादी भेद जाहिर करने वाले शब्दों को हटाना होगा।
सबको बदलना होगा थोड़ा, पितृसत्ता या जातिवाद बदले से खत्म नहीं हो सकती, इसके लिए सुदृढ़ विचारशीलता की जरुरत है हरेक इंसान में। जो इंसान को इंसान समझे। यह संवेदनशीलता से ही संभव है। चाहे गोरे-काले की लड़ाई हो या,जातिवाद, या स्त्रीवाद, ये प्रतिशोध से और बढ़ेगा ही,खत्म नहीं होगा। जैसे ही इंसान के दिमाग मे सही-गलत,और सम्वेदनशीलता आएगी वो दूसरों का भी संम्मान करेगा और स्थिति बेहतर हो सकेगी।
आर्यों और अनार्य की लड़ाई में जब द्विवेदीजी ने यह बताया कि द्रविड़ सभ्यता की दृष्टि से भले ही हीन थे लेकिन वे संगीत कला और वास्तुकला में कुशल थे। उनके सहयोग से ही हिन्दू सभ्यता को रूप वैचित्र्य और रस गाम्भीर्य मिला।
सभी कला विधाओं में उनकी निपुणता थी। आर्य-अनार्य के मिश्रित संतुलन से ही इस संस्कृति का निर्माण हुआ। समाज अकेले नहीं बन सकता। पुरुष और प्रकृति के योगदान से सृष्टि चलती।