संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हर त्यौहार बताता है कि अदालत की इज्जत दो कौड़ी भी नहीं बची है...
15-Sep-2022 4:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  हर त्यौहार बताता है कि अदालत की इज्जत दो कौड़ी भी नहीं बची है...

हिन्दुस्तान के कुछ प्रदेशों में हर त्यौहार साम्प्रदायिक तनाव की आशंका और खतरे के साथ आता है, लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में त्यौहार लोगों का जीना हराम करने वाले रहते हैं। कई-कई दिन तक लाउडस्पीकर पर ऐसा शोर किया जाता है कि इस प्रदेश में कोई कानून ही नहीं है। अभी गणेश विसर्जन कई दिनों तक चला, और सडक़ों पर आवाजाही बर्बाद हुई, और शहरों का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा जहां कान फाड़ देने वाले संगीत ने लोगों का जीना हराम न किया हो। हाईकोर्ट के कई तरह के आदेश सरकारी अफसरों की कचरे की टोकरी से होते हुए अब तक कागज कारखानों में लुग्दी बनकर दुबारा अखबारी कागज बन गए होंगे, लेकिन हाईकोर्ट की हस्ती पर नौकरशाही हॅंसती हुई दिखती है। किसी आदेश का कोई सम्मान नहीं है, और अगर कोई जज छत्तीसगढ़ के किसी भी बड़े शहर में विसर्जन-जुलूस के साथ कुछ घंटे चल ले, तो कई हफ्ते काम करने के लायक नहीं रह जाएंगे। यह एक अलग बात है कि हर शहर में अफसर इतने चतुर होते हैं कि वे राजभवन, मुख्यमंत्री निवास, जजों के बंगले, और बड़े अफसरों के रिहायशी इलाकों को लाउडस्पीकरों से दूर रखते हैं। हाईकोर्ट को कभी जिला प्रशासनों से फाइलें बुलाकर देखनी चाहिए कि जिला मुख्यालय की किन कॉलोनियों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग रोकने के आदेश जारी किए जाते हैं, और यह भी पूछना चाहिए कि बाकी इलाकों के इंसान इस हिफाजत के हकदार क्यों नहीं माने जाते हैं?

इस बार गणेश विसर्जन के पहले से सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ता लगातार अफसरों को आगाह कर रहे थे। और बात सिर्फ गणेशोत्सव की नहीं है, दूसरे धार्मिक त्यौहारों का भी यही हाल रहता है, और शहर के बड़े-बड़े महंगे होटलों और शादीघरों का भी यही हाल रहता है कि उनके आसपास एक-दो किलोमीटर में बसे हुए लोग भी लगातार हल्ले के बीच ही जीते हैं। कहने के लिए पुलिस और प्रशासन हमेशा ही दो-चार आंकड़े दिखा सकते हैं कि उन्होंने लोगों के लाउडस्पीकर जब्त किए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि शहरों में जब बवाल करते हुए ऐसे अराजक जुलूस निकलते हैं जिनसे आसपास रह पाना भी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो पुलिस उन जुलूसों का इंतजाम करते चलती है, न कि उन्हें रोकते हुए। अभी विसर्जन के जुलूस में ही छत्तीसगढ़ के एक छोटे जिले में पुलिस ने लाउडस्पीकर बंद करवा दिए, तो वहां के धार्मिक संगठन इसे धर्म पर हमले की तरह करार देते हुए एकजुट हो रहे हैं। यह नौबत इसलिए आई है कि बाकी तकरीबन तमाम जिलों में हर तरह की अराजकता को पूरी छूट दी जा रही है, और किसी एक जिले में कार्रवाई होती है तो वह खटकने लगती है।

जब हाईकोर्ट के आदेश पूरे प्रदेश के लिए हों, और आदेश से परे कोलाहल अधिनियम के तहत पहले से बने हुए नियम हों, उन्हें तोडऩे वालों के लिए सजा का प्रावधान हो, तब अगर इसे पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से तोड़ा जाता है तो यह मामला जिला प्रशासन की अनदेखी से परे प्रदेश सरकार की अनदेखी का रहता है। प्रदेश सरकार चला रहे नेताओं और अफसरों की अनदेखी के बिना सारे के सारे जिला प्रशासन एक जैसे लापरवाह और गैरजिम्मेदार नहीं हो सकते। यह तो सरकार की तय की हुई प्राथमिकता दिखती है कि किसी भी धार्मिक अराजकता को न छुआ जाए, ताकि वोटरों का कोई भी एक तबका सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ संगठित न हो सके। नतीजा यह हो रहा है कि वोटों की यह फिक्र लोगों की जिंदगी हराम कर रही है, और धर्मान्ध लोगों को छोडक़र बाकी तमाम लोगों को यह लगता है कि क्या धर्म के लिए ऐसा सारा उत्पात जरूरी है? क्या बिना हंगामे के धार्मिक रीति-रिवाज पूरे नहीं हो सकते?

यह भी समझने की जरूरत है कि जब धर्म बने थे तब न तो बिजली थी और न ही लाउडस्पीकर। अपने-अपने इलाकों में दिन में पांच बार कुछ मिनटों के लिए बजने वाले मस्जिदों के लाउडस्पीकरों के खिलाफ तो कई प्रदेशों में हिन्दुत्ववादी संगठन सडक़ों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, और अदालतों तक जा रहे हैं। दूसरी तरफ बर्दाश्त के बाहर का हल्ला करने वाले, शोर करने वाले लाउडस्पीकरों पर रोक की बात ये लोग नहीं करते। एक-एक त्यौहार पर कई-कई दिनों तक लाउडस्पीकरों पर जीना हराम किया जाता है, लेकिन उसे रोकना धर्म पर हमला करार दिया जाएगा या साम्प्रदायिक कहा जाएगा।

जो हाईकोर्ट छोटी-छोटी बातों को अपनी अवमानना से जोड़ता है, उसे छत्तीसगढ़ के तमाम बड़े शहरों से मीडिया और सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई खबरों और वीडियो पर राज्य सरकार से एक रिपोर्ट मांगनी चाहिए ताकि सरकार हलफनामे पर अदालत को यह बताए कि उसके अब तक के दिए गए कई आदेश, और दी गई कई चेतावनियां किस तरह कचरे की टोकरी में हैं। जब प्रदेश में सरकार और अफसरों का ऐसा रूख हो, जब सभी पार्टियों के सारे नेता अपने-अपने इलाके में अराजकता बढ़ाने में लगे हों, तब जनता से यह उम्मीद बेकार है कि वह बार-बार जनहित याचिका लेकर अदालत जाए, या अवमानना याचिका लेकर जजों को याद दिलाए कि गली-गली उनकी बेइज्जती की जा रही है। आम जनता के पास न तो इतना वक्त है और न ही इतना पैसा, लेकिन अदालतों के पास बेहिसाब ताकत है। जनता की जिंदगी को बचाने के लिए न सही, कम से कम अपनी इज्जत बचाने के लिए हाईकोर्ट के जजों को अवमानना की कार्रवाई शुरू करनी चाहिए, और सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। एक धर्म की अराजकता दूसरे धर्मों को भी बढ़ावा देती है, और इसे हम साल में कई बार देखते आ रहे हैं। अब तो जजों को देखना है कि उनकी कोई ताकत बची है या नहीं, और अपनी इज्जत का कोई अहसास उन्हें है या नहीं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news