विचार / लेख
-प्रकाश दुबे
ब्रिटेन की 96 बरस की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की अंतिम इच्छा के मुताबिक प्रिंस चार्ल्स उनके वारिस तथा राष्ट्रमंडल के नए प्रमुख हुए। राष्ट्रमंडल दिवंगत एलिजाबेथ-2 के शासन में बना था। ग्रेट ब्रिटेन की गुलामी से मुक्ति पाने वाले पचास से अधिक देश राष्ट्रमंडल या राष्ट्रकुल के सदस्य हैं। 1947 में आजादी के समय थके हारे, टूटे-बंटे भारत को आपसी व्यापार, शिक्षा जैसे सहारों की जरूरत थी। प्रिंस चार्ल्स का राजतिलक होने के बाद अब भारत को विचार करना चाहिए कि राष्ट्रकुल में बना रहना जरूरी है या विवशता? रक्षा संबंधी मामलों में भारत पहले से अधिक सजगता जता रहा है। लगभग हर अंतरराष्ट्रीय सीमा-विवाद, प्रत्येक युद्ध और आतंकवाद से मुकाबले में भारत को गुलाम बनाने वाले देश की भूमिका को तीसरे देश वाली निरपेक्षता से याद करें। भारत विभाजन में दोनों तरफ के लोग कटे, मरे, आबरू छिनी, परिवार बिखरे। लाखों नहीं करोड़ों। पिछले महीने संसद में भारत विभाजन पर प्रदर्शनी लगी। मन विचलित करने वाले मारकाट और खूनखराबे के दृश्य नज़र आए। बंटवारे को लेकर मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर गांधी, नेहरू को जमकर कोसा जाता है। भारत के लाल जवाहर के प्रति एडविना के प्रेम की तुच्छ बातों से राजनीतिक चर्चा गरमाई जाती है। जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में बैसाखी के दिन निहत्थे लोगों को भूना। 13 अप्रैल 1919 को लाशों से भरा अमृतसर का कुआं पट गया था। 1857 और उसके बाद देश की खातिर जान न्यौछावर करने वाले स्वाधीनता प्रेमियों का पक्का दस्तावेजीकरण बाकी है। बंटवारे से पहले और बाद, भारतीयों की नृशंस हत्या के लिए फिरंगी सरकार की जिम्मेदारी की अनदेखी होती है। भवानी की तलवार और कोहेनूर हीरे की वापसी बयानबाजी तक सीमित है।
गुलाम हिंदुस्तान के स्टेट्समैन अखबार में एलिजाबेथ की मां विक्टोरिया के निधन की छोटी सी खबर सिंगल कालम में छपी थी। महारानी एलिजाबेथ-2 को जितना महत्व दिया गया और कई दिन तक दिया जा रहा है, अनेक महत्वपूर्ण स्वाधीनता सेनानियों और नेताओं को उतना नसीब नहीं हुआ। तकनीकी तरक्की एकमात्र कारण नहीं है।
ब्रिटेन की विदेश और रक्षा नीति अमेरिका के दिखाए रास्ते पर चलती है। ट्रम्प की उम्मीदवारी का समर्थन कर भारत अपने हाथ झुलसा चुका है। ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के चुनाव के दौरान भारत सरकार ने समझदारी दिखाई। प्रधानमंत्री मौन रहे। विदेश मंत्री जयशंकर ने कूटनीतिक रुख अपनाया। राजा से अधिक वफादारी-लायल दैन दि किंग वाली मनोवृत्ति से संक्रमित भक्त-माध्यम दिग्विजय का डंका पीटते रहे। राजनीति और पत्रकारिता में चारण-आस्था अपनाने वालों ने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्य और ग्रेट ब्रिटेन में भेद नहीं किया। विविधता में एकता ब्रिटेन के लोकतंत्र की मजबूत नींव है। भारतवंशी के साथ साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, घाना, केन्या, मारिशस, इराक आदि देशों की नस्लें सत्ता संभाल रही हैं। नस्ल, रंग, मूलदेश, धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं है। उनकी शर्त है-मिलजुल कर देश को आगे बढ़ाना। दक्षेस के कलह-कीचड़ में फंसा भारत राष्ट्रमंडल का ढोल पीटकर क्या पाता है? कड़े वीजा नियमों के कारण हजारों विद्यार्थी ब्रिटेन जाकर पढ़ने की आस पूरी नहीं कर पाते। वित्त मंत्री बयान जारी करने के बजाय राष्ट्रमंडल देशों से भारत अपनी मुद्रा में विनिमय की शर्त पर क्यों नहीं अड़तीं? पाउंड की साख की रही सही कलई उतर जाएगी। गोते खाता रुपया उबर जाएगा। केन्द्र सरकार के दावे सही हैं, तो भारत अपनी मुद्रा में आदान-प्रदान और व्यापार करने में सक्षम है। अन्यथा दक्षेस, ब्रिक्स आदि आधा दर्जन संगठनों के दिखाऊ नामपट्ट बेमानी हैं। राष्ट्रमंडल के सदस्य देशों की जनसंख्या पूरी दुनिया की कुल आबादी की एक तिहाई है। दो अरब 40 करोड़ आबादी में सवा सौ करोड़ से अधिक भारतीय हैं। पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मिलाकर 60 प्रतिशत से अधिक पूर्व एशियाई देश हैं। राष्ट्रमंडल के सदस्य के नाते भारत प्रिंस चार्ल्स को झुककर हिज मेजेस्टी कहने से उबर कर गले लगे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत में अधिनायक शब्द का मखौल उड़ाने वाले अपनी विद्वत्ता और रौब से बदलाव लाकर बराबरी की पहल करें। पुराने जमाने में शिकार किए गए वन पशुओं के चेहरे दीवार पर टांगे जाते थे। राष्ट्रमंडल की सदस्यता का इससे अधिक कुछ महत्व रह गया है? पड़ोसी देश भी कतार लगाकर राजमहल की देहरी छूने की आदत छोड़ें। साल 2026 में राष्ट्रमंडल खेल भारत में आयोजित करने की कोशिश जारी है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ब्रिटेन की दिवंगत महारानी को अंतिम श्रद्धांजलि देकर सौजन्य का तकाजा पूरा करेंगी। ब्रिटेन से भारत ने समता का सबक सीखा है। महारानी की विदाई के अवसर पर सबसे बड़े लोकतंत्र की जनजातीय प्रथम नागरिक की मौजूदगी का गहरा संदेश जाएगा। पीढ़ियों तक पुराने साहूदार का ऋण चुकाने वाले वंशज बुद्धू वंशज कहलाते हैं। भारत की शान में इससे इजाफा नहीं होगा।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)