संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पुलिस के मिजाज की हिंसा के सुबूत जुटाने की जरूरत
20-Sep-2022 4:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पुलिस के मिजाज की हिंसा के सुबूत जुटाने की जरूरत

मध्यप्रदेश के झाबुआ में कॉलेज छात्रों को उनके सीनियर छात्र परेशान कर रहे थे, पीट रहे थे तो उन्हें यह खतरा था कि वे हॉस्टल लौटेंगे तो और मार खाएंगे। उन्होंने पुलिस से हिफाजत मांगी तो वह नहीं मिली। इस पर उन्होंने जिले के पुलिस अधीक्षक को फोन किया, और मदद मांगी कि वहां से उन्हें और बुरी गंदी-गंदी गालियां सुनने मिलीं, और गिरफ्तारी की धमकी भी। यह बातचीत फोन पर रिकॉर्ड कर ली गई थी, और मामला मुख्यमंत्री तक पहुंचा। आवाज की जांच करने के बाद एसपी को सस्पेंड कर दिया गया है। इस घटना में नया कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि एक बड़े अफसर से फोन पर की गई बातचीत रिकॉर्ड कर लिए जाने से जो सुबूत जुटा, उसकी बिना पर अफसर पर यह कार्रवाई हो सकी, अगर यह रिकॉर्डिंग नहीं होती, तो जिले के पुलिस कप्तान का कुछ भी नहीं बिगड़ा होता। आज चारों तरफ इस तरह की कॉल रिकॉर्ड करने की बात सामने आती है, और उसके बाद भी अगर लोग टेलीफोन पर धमकी देने, हिंसक और अश्लील बात करने से नहीं कतराते हैं, तो यह उनकी समझ की कमी भी है। आज वक्त ऐसा है कि हर किसी को यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी बातचीत रिकॉर्ड तो हो ही रही है, और इसके लिए किसी खुफिया एजेंसी की जरूरत नहीं है, जिससे बात हो रही है वे भी इसकी रिकॉर्डिंग कर सकते हैं।

लेकिन बात रिकॉर्डिंग से परे की है, और पुलिस की बददिमागी की है। किसी भी जिले का पुलिस अधीक्षक बनना एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पाना होता है। अफसर के हाथ में सरकार बहुत से घोषित और अघोषित अधिकार देती है, और उससे कई तरह की जायज और नाजायज उम्मीद भी करती है। अंग्रेजों के समय में जिस तरह जिला कलेक्टर अंग्रेज सरकार के एजेंट रहते थे, उसी तरह आज देश के अधिकतर प्रदेशों में कलेक्टर और एसपी सरकार के ऐसे ही एजेंट रहते हैं। और इसी हैसियत की वजह से वे करोड़ों-अरबों कमाते हैं, सरकार की राजनीतिक पसंद और नापसंद के मुताबिक कानून को हांकते हैं, और यह करते हुए वे बड़े बददिमाग भी हो जाते हैं। मध्यप्रदेश कोई अकेला ऐसा राज्य नहीं है, देश के अधिकतर राज्यों में जिलों के कलेक्टर और एसपी का यही हाल रहता है। और उनका यह मिजाज मातहत लोगों पर भी उतरते चलता है। इन दोनों दफ्तरों की जवाबदेही बहुत कम कर दी जाती है, और नतीजा यह होता है कि वे सामंती अंदाज में काम करने लगते हैं। हिन्दुस्तान में यह बात कही भी जाती है कि असली ताकत पीएम, सीएम, और डीएम में होती है। डीएम की देखादेखी जिलों के एसपी भी तानाशाह हो जाते हैं, और एक मामूली सी एफआईआर होने या न होने का फैसला भी पुलिस कप्तान की मर्जी से होता है। अभी लगातार यह देखने में आता है कि सत्ता से जुड़े हुए बड़े-बड़े कारोबारी अपनी कारोबारी दिलचस्पी के मामले पुलिस की दखल से निपटाने लगते हैं।

अब मध्यप्रदेश में तो पुलिस कप्तान ने सिर्फ गालियां दी हैं, और गिरफ्तारी की धमकी दी है, लेकिन देश भर से ऐसे वीडियो आते ही रहते हैं जिनमें बहुत बुरी तरह बर्ताव करते हुए पुलिस शिकायतकर्ताओं को ही पीटती दिखती है। अभी कल ही उत्तर भारत का कोई वीडियो सामने आया है जिसमें परिवार की लडक़ी से बलात्कार की शिकायत करने पहुंचे परिवार को पुलिस अफसर ही बहुत बुरी तरह पीटते दिख रहा है। हमारा अपना आम जिंदगी का तजुर्बा यही रहा है कि पुलिस को किसी मामले में दखल देने के लिए बुलाया जाए, तो वह आते ही गालियां देना, और पीटना शुरू कर देती है। ऐसे में शरीफ लोगों को धीरे-धीरे यह लगने लगता है कि मामूली गाली-गलौज और पिटाई की शिकायत करके पुलिस को बुलाने का उल्टा ही नतीजा होता है, और यही दोनों बातें और अधिक होने लगती हैं।

यह सोचा जाए कि पुलिस का ऐसा हिंसक बर्ताव क्यों रहता है, तो अलग-अलग समय पर बने हुए पुलिस आयोगों की रिपोर्ट सरकारों के पास धूल खाते पड़ी हैं जिनमें पुलिस के काम करने के हालात सुधारने की सिफारिश की गई है। यह बात बड़ी आम है कि अगर ऊपरी कमाई की गुंजाइश न रहे, तो पुलिस की नौकरी में किसी भी दूसरे सरकारी महकमे के मुकाबले काम के घंटे अधिक रहते हैं, रात-दिन का ठिकाना नहीं रहता है, कई किस्म के खतरे रहते हैं, और छुट्टियां नहीं मिलती हैं। फिर भी लोग पुलिस की नौकरी पाने के लिए लगे रहते हैं। ऊपरी कमाई की सहूलियत को अगर छोड़ दें, तो पुलिस की नौकरी में आमतौर पर नेताओं की जी-हजूरी करने, और सत्ता के पसंदीदा मुजरिमों को छोडऩे, सत्ता के खिलाफ बागी तेवर रखने वाले बेकसूरों के खिलाफ झूठे केस बनाने का काम पुलिस में रात-दिन चलता है। नतीजा यह होता है कि पुलिस की सोच से इंसाफ पूरी तरह खत्म हो चुका रहता है, और उसे यही लगता है कि या तो उसे ऊपर के लोगों की मर्जी का काम करना है, या अपने स्तर पर कोई फैसला लेना है तो अपनी मर्जी चलाना ही उसका अधिकार है। जहां जिम्मेदारी की सोच खत्म हो जाती है, जहां रिश्वत देकर कुर्सी पाई जाती है, जहां पर कुर्सी पाकर कमाई करना ही मकसद रह जाता है, वहां पर नैतिकता, लोकतंत्र, जवाबदेही जैसे शब्द निरर्थक हो जाते हैं। इसलिए पुलिस की बदसलूकी, उसकी हिंसा का सीधा रिश्ता राजनीतिक दखल और दबाव से टूटे हुए मनोबल से रहता है। फिर यह भी है कि जब एक बार राजनीतिक दबाव की वजह से माफिया को बचाना है, और शरीफ को फंसाना है, तो ऐसे जुर्म से सने हुए अपने हाथों से पुलिस अपने लिए भी कमाने लगती है।

पुलिस सरकार का एक कोई दूसरा आम महकमा नहीं है, वह न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा भी है। पुलिस से ही न्याय व्यवस्था शुरू होती है, और वही अदालत में फैसला होने तक जांच, सुबूत, गवाह, निष्कर्ष, और अदालती बहस का सामान जुटाती है। जब पुलिस ही टूटे मनोबल की भ्रष्ट संस्था हो जाती है, तो इंसाफ का पूरा सिलसिला ही पहले स्टेशन पर ही पटरी से उतर जाता है, और फैसले तक का लंबा सफर कदम-कदम पर एक भ्रष्ट और निकम्मी पुलिस के साथ तय होता है। लेकिन हमारी लिखी बहुत सी बातें, खासकर काम की अमानवीय परिस्थितियों की बात छोटे पुलिस कर्मचारियों पर तो लागू होती है, लेकिन बड़े अफसरों पर नहीं। किसी जिले के एसपी किसी अमानवीय स्थिति में काम नहीं करते, वे सहूलियतों से घिरे रहते हैं, और मातहत कर्मचारियों की फौज उनकी मालिश-पॉलिश करने को तैनात रहती है। इसलिए उनकी गाली-गलौज को काम के किसी बोझ से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। अगर वे कमजोर आम लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, तो वे मिजाज से हिंसक और अराजक हैं। हमने मध्यप्रदेश के एक मामले को महज मिसाल बनाकर यह बात यहां लिखी है, देश भर में अगर लोग पुलिस अफसरों से फोन पर बात करते हुए, या मिलते हुए बातचीत रिकॉर्ड करने लगें, तो आधे अफसरों के सस्पेंड होने की नौबत आ जाएगी। फिलहाल इस मामले से यह सबक तो मिलता ही है कि लोगों को जहां भी हो सके बातचीत रिकॉर्ड करना चाहिए ताकि ऐसी कार्रवाई हो सके।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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