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...सारंगढ़ और गोआ के संबंध, जिसका स्वाद आज भी मौजूद
23-Sep-2022 1:47 PM
...सारंगढ़ और गोआ के संबंध, जिसका स्वाद आज भी मौजूद

-डॉ. परिवेश मिश्रा
नवम्बर 1956 में देश के चार राज्यों का विलय कर एक नये राज्य ‘मध्यप्रदेश’ की घोषणा कर दी गयी थी। ये चारों राज्य हिन्दी भाषा की रस्सी से आपस में बांधे गये थे किन्तु इनके बीच की बाकी विविधताओं के विलय होने में कई साल लग गये थे। इस चारों राज्यों की प्रशासनिक शैलियां अलग थीं, संस्कृति और बोलियां अलग थीं। खान-पान की आदतें भी जुदा थीं।

इस अंतिम-खान-पान की-आदतों और शैलियों की विभिन्नता का लाभ उठाया श्रीमती अन्नपूर्णा पाटस्कर ने। उन्होंने इनके बीच से कम आय वाले परिवारों की महिलाओं के लिये आमदनी के अवसर ढूंढने का प्रयास किया।

वे गांधीवादी राज्यपाल श्री हरि विनायक पाटस्कर की पत्नी थीं। आमतौर पर लोग उन्हें ताई के नाम से संबोधित करते थे। ताई ने कुछ प्रमुख महिलाओं को जोडक़र भोपाल में एक क्लब की स्थापना की। इसमें सारंगढ़ की रानी ललिता देवी जी सहित कुछ मंत्रियों और अधिकारियों की पत्नियां तो थीं ही, भोपाल की बेगम (नवाब साजिदा सुल्तान जी जो सीनियर बेगम कहलाती थीं) जैसी कुछ वे महिलाएं भी थीं जो इन दोनों श्रेणियों में नहीं आती थीं।

हालांकि क्लब की शुरुआत राजभवन स्टाफ के परिवारों की महिलाओं को पापड़ और बड़ी बनाना सिखा कर हुआ। लेकिन क्लब की उपलब्धियों की चर्चा इस कहानी का फोकस नहीं है।

एक दिन सदस्यों ने आपसी सहयोग से एक भोज का आयोजन किया। रानी ललिता देवी जी के साथ जो व्यंजन पहुंचा उसने अपनी अनूठी शैली, स्वाद और प्रस्तुतीकरण से सबको विमुग्ध कर दिया। एक स्वर में मांग उठी की अगली बैठक में रानी साहिबा अपने रसोईया को साथ लाएं ताकि उसका इंटरव्यू लेकर इस सर्वथा अपरिचित डिश के बारे में समझा जा सके। अगली बैठक में रानी ललिता देवी जी पहुंचीं और बैठक हॉल में चली गईं।

पीछे पीछे राजभवन के पोर्च में दूसरी कार पहुंची। दरबान (उन दिनों सरकारी/सामाजिक व्यवस्था में दरबान, अर्दली, बावर्ची, खानसामा जैसे शब्द आम प्रचलन में थे) ने लपककर कार का दरवाजा खोला। कार से सूट, टाई, चमचमाते जूतों और सिर पर हैट के साथ पांच फुट दस इंच के एक साहबनुमा शख्स उतरे। उन्होंने अपने कोट को ठीक किया, हैट को करीने से सिर से निकाल कर बाएं हाथ की कोहनी के नीचे रखा और कदम प्रवेश द्वार की ओर बढ़ाए। किन्तु दरबान ने हाथ बढ़ा कर उन्हे रोक दिया। यहां महिलाओं का कार्यक्रम चल रहा था और साहबों का प्रवेश वर्जित था।

विलम्ब होता देख रानी साहिबा बाहर आईं और इन शख्स को अपने साथ अंदर ले गयीं। वहां उन्होंने उनका परिचय दिया-मिस्टर सिच्ेरा,  हमारे खानसामा।

बीसवीं सदी की शुरुआत में जन्मे मिस्टर सिच्ेरा मूल रूप से गोआ के रहने वाले थे। गोआ उन दिनों पुर्तगाल का उपनिवेश था। सीमा पर आने जाने में रोक टोक नहीं थी और वहां के युवक रोजग़ार की तलाश में आमतौर पर बम्बई ही आते थे। उम्र में स्व. राजा जवाहिर सिंह जी के समकालीन मिस्टर सिच्ेरा के बचपन के दिनों में बम्बई जैसे हिन्दुस्तानी इलाकों में गोआ के बारे में जो सीमित समझ थी उसमें माना जाता था कि गोआ में हर दूसरा व्यक्ति या तो पाक-कला में पारंगत होता है या वायलिन बजाने में। पुर्तगालियों ने गोवा में चर्च स्थापित किये और संगीत जानने समझने वाले स्थानीय युवाओं को कॉयर मास्टर के रूप में चर्चों में ऑर्गन और पियानो जैसे पाश्चात्य वाद्य यंत्र बजाने के अवसर मिलने लगे। इसी के चलते ये लोग पाश्चात्य संगीत की लिपि-स्टाफ नोट- भी पढऩे और लिखने की कला सीख सके।  पाश्चात्य वाद्ययंत्रों तथा स्टाफ नोट से परिचय इनके बड़े काम आया। प्रथम विश्वयुद्ध में लडऩे के लिए सामान्य सैनिकों की भर्ती तो देश भर में हुई, लेकिन मिलेट्री बैन्ड जितने भी बने उनमें गोआ के लोगों की भरमार थी।

बम्बई में उन दिनों पारसी तथा एंग्लो-इंडियन समुदाय की बड़ी आबादी रहती थी। युद्ध समाप्ति के बाद उनकी निजी पार्टियों के साथ साथ उनके थियेटर/नाटक, नाईट-क्लब, होटल आदि के लाईव-संगीत में भी गोवा के इन कलाकारों को जीविकोपार्जन का अवसर मिला। कुछ आगे चलकर जब शंकर-जयकिशन ने पृथ्वी थियेटर में संगीत देना छोडक़र फिल्म संगीत की ओर कदम बढ़ाये तो पाश्चात्य संगीत में सिद्धहस्त गोअन, पारसी तथा यहूदी कलाकार साथ हो लिए और ऑर्केस्ट्रा दलों में वादक के रूप में खपे। जहां पांच से दस वादकों को साथ लेकर गाने रिकॉर्ड कर लिये जाते थे वहां पचास से सत्तर वादकों वाले आर्केस्ट्रा का चलन प्रारंभ हो गया।

संगीत के अलावा जिस दूसरी पारम्परिक कला में ये सिद्धहस्त थे वह थी पाक-कला। सन् 1903 के दिसम्बर में जमशेदजी टाटा ने ताज होटल की शुरुआत कर होटल और खानपान उद्योग के दरवाजे गोआ के युवकों के लिए खोल दिए।
मिस्टर सिच्ेरा ने अपनी शुरुआत ताज महल होटल से की लेकिन कुछ ही सालों में परिस्थितियों ने ऐसा रूप बदला कि जब राजा जवाहिर सिंह जी ने मिस्टर सिच्ेरा को अपनी सारी पाक-कला, प्रशिक्षण और प्रशस्तियों के साथ सारंगढ़ आकर बसने का प्रस्ताव दिया तो वे इनकार नहीं कर पाये। यह कहानी उन्ही परिस्थितियों की है जिन्होने सुदूर गोआ में जन्मे, पोर्चगीज़ (पुर्तगाली), कोंकणी, मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी बोलने वाले, इंगलैंड में ट्रेनिंग पा चुके ताज होटल के शेफ-दि-च्जिीन पुर्तगाली नागरिक के सारंगढ़ में बसने की राह प्रशस्त की।

पुर्तगालियों के साथ रहने का प्रभाव गोआ वालों की पाक कला पर भी पड़ा था। ताज जैसे होटल के लिए पाश्चात्य या कॉन्टिनेन्टल भोजन बनाने के लिए या और एडवांस ट्रेनिंग देने के लिये गोआ के युवकों से बेेहतर विकल्प नहीं उपलब्ध था। हमारी रुचि की बात यह रही कि यह पहला ऐसा होटल स्थापित हुआ जहां शेफ और बटलर के रूप में कुछ पुर्तगाली युवकों को न सिर्फ भर्ती किया गया बल्कि शुरुआती बैच के युवकों को ट्रेनिंग के लिए इंगलैंड भेजा गया। मिस्टर सिच्ेरा इन्ही युवाओं में से एक थे।

1914 से पहले तक ताज होटल भारत के निजि क्षेत्र में युवाओं को रोजग़ार देने वाले सबसे बड़े संस्थानों में एक था। पांच साल चले प्रथम विश्वयुद्ध और उसके तत्काल बाद आयी स्पैनिश फ्लू की महामारी के कारण पूरे विश्व में आर्थिक मंदी आ गई थी। भारत भी इससे प्रभावित था। पांच साल से ठप्प पड़े रहे ताज होटल के सैकड़ों कर्मचारियों के साथ साथ उनके परिवारों के हजारों सदस्य भीषण आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे थे।
ताज महल होटल सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह और उनके घनिष्ठ मित्र बैरिस्टर रणजीत पंडित (जिनका विवाह पं. जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी जी के साथ हुआ था) के लिए बम्बई में स्थायी पता जैसा था। होटल व्यवसाय और उसमें कार्यरत कर्मचारियों के बीच अपने भविष्य को लेकर व्याप्त चिंताओं से राजा जवाहिर सिंह भलीभंति परिचित थे। मिस्टर सिच्ेरा के सामने जब उन्होने अपने साथ सारंगढ़ चलने का प्रस्ताव रखा तो सिच्ेरा साहब ने उसे कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करने में समय नहीं लगाया।

मिस्टर सिच्ेरा के छोटे भाई उन दिनों ताज में शेफ दि पार्टे (सहायक शेफ) के पद पर कार्य कर रहे थे। वे अपने साथ भाई को भी ले आये।
मिस्टर सिच्ेरा के कंधों पर गिरिविलास पैलेस में न केवल कॉन्टिनेंटल भोजन का आधुनिक किचन स्थापित करने की जिम्मेदारी थी बल्कि सहायकों के रूप में उपलब्ध कराए गये स्थानीय रंगरूटों को प्रशिक्षित कर पाककला का एक विशिष्ट ‘घराना’ खड़ा करने की जिम्मेदारी भी उनकी ही थी। उनके स्थानीय सहायकों को कॉन्टिनेंटल भोजन सीखने से अधिक कष्टदायी लगा सिच्ेरा शब्द का उच्चारण करना। कुछ ही समय में उनका नाम ‘सकीरा साहब’ के रूप में प्रचलित हुआ और अंत तक वे इसी नाम से जाने गये।

सकीरा साहब के लिए एक अलग और नई रसोई की व्यवस्था की गई। यह दरअसल सिर्फ रसोईघर नहीं उनका छोटा सा साम्राज्य था। सकीरा साहब की अपनी बेकरी थी जिसमें वे प्रतिदिन ब्रेड, बिस्किट, केक, पेस्ट्री के साथ साथ मरैंग जैसे अनेक इटैलियन तथा फ्रेंच डेजर्ट बनाते थे। उनके अपने दो रेफ्रिजरेटर थे जो फ्रिजिडेयर कहलाते थे। अमेरिका की गार्जियन फ्रिजिडेयर कम्पनी ने सन् 1916 में फ्रिजिडेयर ब्रांड के तहत पहली बार रेफ्रिजरेटर बाजार में प्रस्तुत किया था। उन दिनों, और बाद के अनेक दशकों तक रेफ्रिजरेटर के लिए, चाहे वह किसी भी ब्रांड का हो, फ्रिजिडेयर शब्द ही इस्तेमाल किया जाता रहा था। आज का प्रचलित शब्द ‘फ्रिज’ उसी फ्रिजिडेयर का संक्षिप्त रूप है। 350 लिटर के ये विशाल फ्रिज केरोसिन से चलते थे। इसके अलावा एक बर्फखाना भी था जो डीप-फ्रीज के लिये काम आता था। उनका अपना मुर्गीखाना और मछलियों को ताजा रखने के लिए पानी की एक विशाल टंकी थी। रोज मिर्च, नारियल, धनिया, खस खस जैसे ताजे गीले मसाले आदि पीसने के लिए एक हेल्पर था। उन दिनों मेयोनेज या विभिन्न प्रकार के अन्य सॉस जैसे टार्टर सॉस, मिन्ट सॉस जैसी अनेक खाद्य सामग्रियों के बाजार में मिलने का चलन प्रारम्भ नहीं हुआ था। सकीरा साहब ने गिरिविलास के स्टाफ को ये सारी चीजें बनाना सिखाया।

अपने ज्ञान और अनुभव को बांटने में और बचे समय में छत्तीसगढ के व्यंजनों और पकवानों को समझने-सीखने में उन्होंने अपने आप को खपा दिया। सकीरा साहब के ‘साम्राज्य’ से कुछ दूरी पर महल का जनार-राऊर (जनार-ज्योनार का स्थानीय रूप, रसोई; राऊर-स्थान या घर) था जिसमें राजमाता जी और रानी साहिबा जैसी महिलाओं की देखरेख में और निर्देश पर छत्तीसगढ़ी व्यंजन बनते थे। सकीरा साहब को जब अवसर मिलता वे जनार-राऊर के व्यंजनों और शैलियों से सीखते और अपने खजाने को समृद्ध करते। उसी का परिणाम था 1960 में भोपाल के राजभवन में उनकी पाक-कला की हुई वाहवाही जिसका जि़क्र शुरुआत में है। उस दिन उनका बनाया व्यंजन था ‘कोचाई पपची’। छत्तीसगढ की कोचाई अन्य इलाकों में अरबी या घुइयां कहलाती है। पपची उत्तर भारत के ‘खाजा’ जैसा होता है।

सारंगढ़ से कुछ दूरी पर रांपागुला नामक गांव में उन्हे खेत दिए गए थे जिसमें उनके बेटे पावलो की देखरेख में खेती होती थी।
सकीरा साहब अपना परिवार गोआ में छोडक़र आए थे किन्तु उनकी पत्नी और बेटेे पावलो का आना जाना लगा रहता था। सन् 1950 में राजा जवाहिर सिंह के बेटे और तब तक राजा बन चुके राजा नरेशचन्द्र सिंह जी मध्यप्रदेश के मंत्री के रूप में नागपुर में रहने लगे थे। बच्चों को हॉस्टल भेज दिया गया। अपने पिता की उम्र के सकीरा साहब को राजा साहब अपने साथ नागपुर ले गये। तब तक उनके छोटे भाई वापस गोवा जा चुके थे और स्वयं सकीरा साहब राजा साहब के विस्तृत परिवार का हिस्सा बन चुके थे। सारंगढ़ में उनकी छत्रछाया में प्रशिक्षित खानसामाओं की फौज तैयार हो चुकी थी। 1956 में नया मध्यप्रदेश बना और राजधानी भोपाल में बन गयी। राजा नरेशचन्द्र सिंह जी और उनके परिवार के साथ सकीरा साहब भी भोपाल आ गये थे। उनके जीवन का यह काल सेवानिवृत्ति से पहले के लम्बे अवकाश की तरह था। नियमित रूप से वे चर्च जाते। घर में सयाने की तरह समय गुजारते। बेटे को रेल्वे में नौकरी मिल चुकी थी। 1967 में राजा नरेशचन्द्र सिंह की बड़ी बेटी रजनीगंधा जी का विवाह हुआ। विवाह के बाद रिसेप्शन भोपाल में राजा साहब के निवास 5, श्यामला हिल्स में हुआ जो अब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का आधिकारिक आवास है। इस रिसेप्शन में खान-पान की व्यवस्था संभालना सकीरा साहब की अंतिम औपचारिक जिम्मेदारी थी। इसके बाद उन्होंने सेवानिवृत्ति ली और गोआ वापस चले गये। उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा सकीरा साहब के रूप में छत्तीसगढ़ में बीता था। जब वे वापस मिस्टर सिक्वेरा के जीवन में लौटे तो सहज नहीं रहे। कुछ ही समय में उनकी मृत्यु हो गई। 1970 के आस पास उनके बेटे ने सारंगढ़ आकर रापांगुला की जमीने बेच दीं पर गोआ के साथ सारंगढ़ के जुड़े तार नही टूटे। उनके समय की यादें अभी भी गिरिविलास के रसोईयों के हाथों और दस्तावेजों में सुरक्षित हैं।  
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)

 

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