संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्ता के घरेलू मुजरिमों पर वक्त रहते काबू पाने की बहुत बड़ी जरूरत..
24-Sep-2022 3:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   सत्ता के घरेलू मुजरिमों पर वक्त रहते काबू पाने की बहुत बड़ी जरूरत..

उत्तराखंड में भाजपा सरकार एक नई फजीहत में फंसी हुई है, राज्य के एक पूर्व भाजपा मंत्री का बेटा अपने दो साथियों के साथ अपनी एक कर्मचारी युवती की हत्या में गिरफ्तार हुआ है। और इसे लेकर वहां खड़े हुए भारी जनाक्रोश को देखते हुए सरकार ने इस मंत्री-पुत्र के एक पर्यटक-रिसॉर्ट को बुलडोजर से तोड़ा-फोड़ा है। राज्य के भाजपा नेता और पूर्व मंत्री विनोद आर्य के नौजवान बेटे ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर रिसॉर्ट की एक कर्मचारी को पहाड़ी से धक्का देकर गंगा में गिराकर मार डाला। ऐसी खबरें हैं कि मंत्री-पुत्र पुलकित आर्य अंकिता नाम की इस युवती पर दबाव डालता था कि वह रिसॉर्ट में ठहरे ग्राहकों के साथ देह संबंध बनाए, और ऐसा न करने पर उसने 19 बरस की इस कर्मचारी को मार डाला। आसपास के गांवों के लोगों ने रिसॉर्ट में भी तोडफ़ोड़ की है, और पुलिस गाड़ी से निकालकर इन गिरफ्तार आरोपियों को भी पीटा है। जनाक्रोश को देखते हुए मुख्यमंत्री के निर्देश पर इस रिसॉर्ट में बुलडोजर से तोडफ़ोड़ की गई है।

ऐसा लगता है कि आजकल कुछ राज्य सरकारें भारी जनाक्रोश खड़ा हो जाने पर बुलडोजर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही हैं, या फिर वे किसी तबके में दहशत पैदा करने के लिए भी ऐसा कर रही हैं। उत्तराखंड में पार्टी के ही एक भूतपूर्व हिन्दू मंत्री को दहशत में लाने की तो कोई वजह नहीं दिखती, लेकिन यह जरूर दिखता है कि बुलडोजर से तोडफ़ोड़ लोगों को एक बड़ी कार्रवाई लगती है, और जनधारणा प्रबंधन के तहत कुछ राज्य सरकारें हाल के महीनों में कई जगह ऐसा कर रही हैं। सवाल यह उठता है कि किसी हत्या के आरोपी की संपत्ति को बुलडोजर से गिराने का कोई कानून देश में नहीं है, और दूसरी तरफ अगर कोई निर्माण अवैध था, तो ऐसे जुर्म और उसके खिलाफ खड़े हुए जनाक्रोश के बिना भी उसे गिरा दिया जाना चाहिए था। ऐसी सरकारी कार्रवाई चाहे वह यूपी में हो, एमपी में, या कहीं और, यह सरकार की कोई अच्छी नीयत नहीं बताती है। या तो सरकार लोगों में दहशत पैदा करने के लिए किसी तबके के खिलाफ ऐसी मुहिम छेड़ती है, या फिर जब वह खुद जनाक्रोश से दहशत में आ जाती है, तो ऐसा करती है। दोनों ही मामलों में यह कानून को हाथ में लेने की बात है, लेकिन हैरानी यह है कि देश की बड़ी-बड़ी अदालतों तक जब ऐसे मामले पहुंचे, तो अदालतों ने उन्हें दखल देने के लायक नहीं पाया।

अब इस मामले के एक दूसरे पहलू को देखें, तो सत्ता से जुड़े हुए लोग, सत्ता की ताकत से बलात्कार और कत्ल जैसे जुर्म करते हैं, और बहुत से मामलों में वे सुबूतों और गवाहों की कमजोरी से, या बिक जाने से, बच भी जाते हैं। जब तक कोई वीडियो-सुबूत न हो, या जनआंदोलन खड़ा न हो गया हो, सत्ता अपने पसंदीदा लोगों को बचाती चलती है, और नापसंद लोगों को फंसाते चलती है। देश भर के अधिकतर राज्यों में केन्द्र और राज्यों की पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों का ऐसा ही रूख नेताओं से जुड़े अधिकतर मामलों में दिखता है। इससे एक तरफ तो लोगों के बीच अदालती इंसाफ को लेकर भरोसा खत्म होता है, और दूसरी तरफ मुजरिमों के हौसले बढ़ते हैं। एक वजह कि सत्ता से जुड़े हुए लोग कहीं किसानों के आंदोलन को अपनी गाड़ी से कुचलते हैं, कहीं कत्ल और रेप करते हैं, और कहीं सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जा करके अवैध निर्माण करते हैं। इन सब बातों से ऐसा लगता है कि देश में कानून का राज इतना कमजोर पड़ गया है कि वह सत्ता का चेहरा देखकर काम करता है, और इंसाफ की जगह चापलूसी ने ले ली है।

ऐसे देश में भी भूले-भटके कभी-कभी मनु शर्मा जैसे सत्तारूढ़ परिवार के कातिल को सजा मिलती है, लेकिन उससे भी सत्ता की बाकी बिगड़ैल औलादों को कोई सबक नहीं मिलता। सत्ता की ताकत लोगों को इस हद तक बददिमाग कर देती है कि वे कानूनी खतरों की परवाह छोड़ देते हैं। हमने छत्तीसगढ़ से लेकर देश के बहुत से दूसरे राज्यों में देखा है कि बड़े-बड़े नेताओं की तमाम संभावनाओं को उन्हीं की बिगड़ैल औलादों ने खत्म कर दिया। आज चूंकि अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकार है, इसलिए इस किस्म के अधिकतर जुर्म भाजपा से जुड़े नेताओं के ही सामने आ रहे हैं, लेकिन दूसरी पार्टियों का भी राज जहां पर है, या पहले जब कभी था, वे पार्टियां भी ऐसे जुर्म से परे नहीं रही हैं। हिन्दुस्तानी राजनीति में शायद वामपंथी दल ही अकेले ऐसे अपवाद रहे जिन्होंने ऐसे पारिवारिक जुर्म को बढ़ावा नहीं दिया। हाल के महीनों में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के परिवार के लोगों की जिस तरह की अंधाधुंध कमाई की जानकारी सामने आ रही है वह भी हक्का-बक्का करने वाली है, और वह ममता की निजी सादगी को, गरीबी और बिना तनख्वाह काम करने के तथाकथित त्याग को पाखंड साबित करती है। ऐसा भला कैसे हो सकता है कि ममता के आधा दर्जन भाई-भतीजे अरबपति हो जाएं, और ममता को खबर न हो। सस्ती साड़ी और रबर की चप्पल एक मुखौटा अधिक लगती है, और शायद परिवार के ऐसे धंधों की वजह से ही ममता की बोलती भी बंद है।

देश के राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के जुर्म के ऐसे कारोबार पर शुरू से नजर रखें, और उन्हें काबू में रखें। जब सार्वजनिक रूप से भांडाफोड़ हो जाए, उसके बाद इस तरह की कार्रवाई, बुलडोजर चलाना भला किस काम का। ऐसे लोग कितने बलात्कार कर चुके हैं, कितने कत्ल कर चुके हंै, कितनी लड़कियों के बदन बेच चुके हैं, इसका क्या पता लगेगा। और ऐसी बात भी नहीं कि किसी राजनीतिक दल के नेताओं के बारे में सत्ता और संगठन तक जानकारी न पहुंचती हो। हर पार्टी में हर स्तर के नेता के विरोधी और प्रतिद्वंद्वी भी होते हैं, और उनकी बातों को अनसुना करके ही कोई पार्टी अपने भीतर मुजरिमों को और बड़ा मुजरिम बनने देती है। सार्वजनिक जीवन का यह तकाजा होना चाहिए कि सुबूत इक_े हो जाने पर मजबूरी में कार्रवाई करने वाली पुलिस से परे, ऐसे मुजरिमों के राजनीतिक संगठनों को भी ऐसे जुर्म पर मुंह खोलना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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