संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अब घर बैठे सुप्रीम कोर्ट की बहस सुनना, जजों को देखना मुमकिन, आगे क्या?
27-Sep-2022 3:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अब घर बैठे सुप्रीम कोर्ट की बहस सुनना, जजों को देखना मुमकिन, आगे क्या?

सुप्रीम कोर्ट में आज एक नया इतिहास गढ़ा जा रहा है जब संवैधानिक मामलों की सुनवाई का जीवंत प्रसारण होगा। इनके ऑडियो-वीडियो की लाईव स्ट्रीमिंग इंटरनेट पर की जाएगी, और जिन्हें दिलचस्पी हो वे उन्हें देख-सुन सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों की बैठक में यह फैसला लिया गया। इसकी बुनियाद 2018 में कानून के एक छात्र की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला था, और उसमें संवैधानिक और राष्ट्रीय महत्व के मामलों की अदालती कार्रवाई की लाईव स्ट्रीमिंग की इजाजत दी गई थी, और कहा गया था कि यह खुलापन सूरज की रौशनी की तरह है जो कि सर्वश्रेष्ठ कीटाणुनाशक रहता है। अब अदालत में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण, महाराष्ट्र का शिवसेना विवाद, दिल्ली और केन्द्र सरकारों के बीच के विवाद जो कि संविधानपीठ के सामने है, उनकी लाईव स्ट्रीमिंग की जाएगी। आम जनता को यह देखने मिलेगा कि देश की सबसे बड़ी अदालत किस तरह काम करती है, और बहस में कौन से वकील क्या कहते हैं। हो सकता है कि इसका अधिकतर हिस्सा आम लोगोंं की समझ से परे हो, लेकिन जिस तरह सूचना के अधिकार के तहत हासिल की जा सकने वाली फाईलों का भी अधिकतर हिस्सा लोगों की समझ से परे होता है, फिर भी वहां तक लोगों की पहुंच ही एक हक रहती है, इसी तरह सुप्रीम कोर्ट पर से रहस्य का यह पर्दा हटना एक बड़ी बात रहेगी। आज तो लोग मीडिया के मोहताज रहते हैं जिनके मार्फत मीडिया की पसंद के तथ्य खबरों में सिर चढक़र बोलते हैं, और लोगों को पूरी तस्वीर जानने-समझने का कोई मौका हासिल नहीं रहता। एक ही अदालती कार्रवाई पर अलग-अलग मीडिया अलग-अलग किस्म से खबरें पेश करते हैं, और उन्हें मिलाकर ही जागरूक लोग यह समझ पाते हैं कि पूरी खबर क्या है। इन्हें सुप्रीम कोर्ट की ही वेबसाइट पर बिना किसी खर्च के देखा जा सकेगा। आज सुप्रीम कोर्ट में तीन अलग-अलग संविधानपीठें सुनवाई करने वाली हैं, और इन सबकी कार्रवाई को देखना एक अनोखा लोकतांत्रिक मौका है।

जब सूचना का अधिकार कानून आया था, तब भी हमने इस बात को बार-बार लिखा था कि यह मांगकर सूचना पाने का अधिकार नहीं होना चाहिए, यह सूचना देने की जिम्मेदारी का अधिकार रहना चाहिए। यह सरकारों की और जन-संस्थानों की जवाबदेही होनी चाहिए कि वे खुद होकर अपने से जुड़ी हर सूचना को पारदर्शी तरीके से इंटरनेट पर लगातार डालते रहें, ताकि किसी को सूचना मांगने के लिए उन्हीं दफ्तरों के धक्के न खाने पड़ें, और महीनों बाद जाकर फिर अपील के रास्ते पर जाना पड़े। होना तो यह चाहिए कि सूचना के अधिकार में आने वाले हर कागज को सरकारी विभाग खुद होकर अपनी वेबसाइट पर डालें, ताकि लोगों को पता चलता रहे कि उनका मामला कहां तक पहुंचा है, दूसरों के मामले कहां तक पहुंचे हैं, कैसे किसी एक टेबिल पर कोई फाईल महीनों अटकाई गई है, और कैसे कोई फाईल पहियों वाले जूते पहनकर नीचे से ऊपर तक सरपट दौड़ लगा रही है। सूचना के अधिकार कानून के शब्दों को सरकारी अमले ने पकड़ लिया है, और निचले दर्जे के बाबू से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक लगातार इसी में लगे रहते हैं कि कैसे किसी सूचना को न देने से काम चल सकता है। अभी ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है जिसमें अखिल भारतीय वनसेवा के एक अफसर की भ्रष्ट लोगों पर मांगी गई जानकारी देने से पीएमओ कतरा रहा है, और तरह-तरह के तर्क दे रहा है। ऐसा भी नहीं कि जो सुप्रीम कोर्ट आज अपनी संविधानपीठों की कार्रवाई का जीवंत प्रसारण करने जा रहा है, वह खुद अपनी बातों को उजागर करने में दिलचस्पी रखता है। देश की इस सबसे बड़ी अदालत ने बहुत ही अलोकतांत्रिक तरीके से जजों के बारे में जानकारियों को गोपनीय बना रखा है, और कुछ बरस पहले तो हालत यह थी कि इसे अपने इस प्रशासनिक निर्णय के खिलाफ लगी याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट में ही अपना बचाव करना पड़ा था। इसलिए यह मान लेना गलत होगा कि देश की सबसे बड़ी अदालत का अपना घरेलू चालचलन पारदर्शी और लोकतांत्रिक है। फिर भी यह बात कुछ तो मायने रखेगी कि देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण कुछ बुनियादी मुद्दों वाले मामलों पर अदालत में मौजूद वकीलों और पत्रकारों से परे भी लोग इन्हें देख-समझ पाएंगे। और कुछ नहीं तो इससे कम से कम देश के दसियों लाख वकीलों, और लाखों जजों को सीखने का एक मौका भी मिलेगा। आम जनता को भी बिना अधिक समझे हुए भी यह समझने मिलेगा कि सुप्रीम कोर्ट किस तरह हिन्दी फिल्मों की अदालत से अलग होती है।

अभी कानूनी समाचारों की कुछ वेबसाइटें लगातार महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई की रिपोर्टिंग में हर वकील की कही बात, जज की हर टिप्पणी, इन्हें एक-एक शब्द पोस्ट करती हैं। सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि जिस तरह विधानसभाओं और संसद की कार्रवाई में एक-एक शब्द टाईप होते चलता है, और फिर उसे जारी कर दिया जाता है, वैसा ही सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं कर सकती? आज जजों की जुबानी कही बातें अदालत के आदेश या फैसले में नहीं आती हैं, और उन्हें लेकर कई बार विवाद भी खड़ा होता है कि जज को ऐसा कहना चाहिए था या नहीं, और कई बार तो यह भी साफ नहीं हो पाता कि जज ने ठीक-ठीक क्या कहा था। इसलिए अगर अदालत खुद ही अपनी कार्रवाई को सार्वजनिक करते चलेगी, तो सिर्फ जुबानी कई बातें कहने वाले जजों की जवाबदेही भी बढ़ेगी, और वे अधिक चौकन्ने होकर बोलेंगे। लोकतंत्र धीरे-धीरे, लेकिन लगातार विकसित होने वाली व्यवस्था का नाम है। जहां तक लोकतंत्र पहुंच चुका है, उसके और आगे बढऩा ही लोकतंत्र होता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट अब तक जितना खुला है, उससे अधिक खुलना ही उसके लिए जिम्मेदारी की बात होगी। आज से देखें कि यह नया प्रयोग देश की जनता में कितनी उत्सुकता जगाता है, और उनकी कितनी कानूनी समझ बढ़ाता है। लेकिन धीरे-धीरे लोग हिन्दुस्तानी अदालती कार्रवाई को ठीक उसी तरह देखने लगेंगे, जिस तरह कि वे संसद की कार्रवाई को देखते हैं, और यह सब लोगों की लोकतांत्रिक परिपक्वता बढ़ाने वाले काम होंगे।
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