विचार / लेख
-सतीश जायसवाल
कहीं बाहर नहीं गया था। अपने शहर में ही था। घर के पास एक होटल में शरण लिए हुआ था। आवाजों से आक्रान्त होकर घर से बाहर भागा था। डीजे फुल वॉल्यूम में बजते रहते। और उनकी आवाजें सुबह से रात डेढ़-दो बजे तक घर के बाहर-भीतर तक घुसकर हमले कर रही थी। दो दिनों से सो नहीं सका और नींद जरूरी थी।
किसी को कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि ये आवाजें साधारण आवाजें नहीं, देवी आराधना के गीतों की थीं और लोग धर्म-प्राण। ये कौन लोग थे? सब जानते हैं। लेकिन कोई कुछ नहीं कहता। मैंने भी कुछ नहीं कहा। बस, चुपचाप निकल गया। फिर भी एक डर था। कहीं विधर्मी न मान लिया जाऊँ। फतवा जारी हो जायेगा या उन लोगों के निशाने पर न आ जाऊँ। वो कौन लोग? सब जानते हैं, चंदा भी देते हैं। लेकिन उलझने से बचते हैं।
मैंने भी अपनी हैसियत से चंदा दिया। अष्टमी के दिन पंडाल में गया। देवी दर्शन किया। पंडितजी को शाल, श्रीफल भेंट किया और निकल आया।
आज, लौटा हूँ। देवी प्रतिमा के बिना पंडाल सूना है। एक विषाद है। घेर रहा है। लेकिन पंडाल से बाहर ढँका-मुँदा डीजे निस्तेज पड़ा है। कोई आवाज नहीं हो रही है। साँस तक नहीं ले रहा है। निष्प्राण डी.जे. ऐसा दिख रहा है जैसे सब कुछ तहस-नहस कर चुकने के बाद अब अगली तबाहियों के लिये विश्राम करता बुलडोजर।
हाँ, डीजे ऐसा ही शक्तिशाली है। जब जागता है तो घर थर्राने लगते हैं, दरवाजे-खिड़कियां काँपने लगती हैं। ऐसे में मनुष्य की क्या औकात? आक्रान्ता आवाजें दिल को दहला देती हैं। मालूम नहीं दिल के कितने मरीजों की जानें जा चुकी होंगी। लेकिन कोई रिपोर्ट नहीं इसलिए ऐसी कोई घटना नहीं मानी जायेगी।
हर त्यौहार और उत्सव के मौसम में इस घातक ध्वनि यंत्रों पर प्रतिबंध की बात उठती है। और इस जानलेवा यंत्र के व्यापारियों का प्रतिनिधि मंडल शासन-प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर रोजी-रोटी कमाने का अधिकार माँगता है। जानलेवा रोजगार से अपना जीवन चलाने का अधिकार माँगता है।अपने जीवन के लिये औरों का जीवन लेने का अधिकार ?
अधिकार मिल जाता है। लोकतंत्र में समूह शक्ति का सम्मान सुरक्षित होता है। बात ‘पापी वोट’ से जुड़ी हुई है।
तब हिन्दी में कहानी-कविता लिखकर पेट पालने वाले एक साहित्यकार की आवाज कहाँ सुनी जाएगी? तो बस, ऐसे ही चुपचाप एक लेखक ने अपना घर छोड़ा और एक होटल में शरण लिया। अब घर लौट आया।लेकिन यह कोई ऐसी घटना नहीं हुई जिसका कोई अर्थ हो...