विचार / लेख

मजबूरी को स्वतंत्रता का नाम न दें...
06-Oct-2022 5:30 PM
मजबूरी को स्वतंत्रता का नाम न दें...

-अमिता नीरव
2011 में जब फ्रांस में इमैनुएल मैक्रां ने हिजाब को प्रतिबंधित किया था, तब रवीश ने एक प्रोग्राम किया था। उस प्रोग्राम में फ्रांस में रिसर्च कर रही एक मुस्लिम लडक़ी से बात की थी। याद नहीं है कि वो लडक़ी किस देश की थी, लेकिन यह याद है कि उसने बात करने के दौरान हिजाब डाल रखा था।

वह लडक़ी शायद हिजाब, बुरका या नकाब के इतिहास पर ही रिसर्च कर रही थी। उसने बताया कि यह पुरानी परंपरा है और अरब देशों से निकलकर इस्लाम के साथ चस्पां हो गई है। उसने कई सारे फोटो बताए जिसमें अरबी पुरुष भी खुद को पूरी तरह से ढँके हुए थे।

फ्रांस में हिजाब पर प्रतिबंध के सिलसिले में जिस तरह से मुस्लिम विरोध में उतरे थे उस पर उसका तर्क था कि हिजाब यहाँ इस्लाम की धार्मिक या सांस्कृतिक परंपरा से आगे आ गया है। अब ये यहाँ की मुस्लिम महिलाओं की आयडेंटिटी का हिस्सा हो गया है।

इस लिहाज से यह प्रतिबंध उनकी आयडेंटिटी पर हमला है। उस वक्त मुझे उस लडक़ी का यह तर्क समझ ही नहीं आया कि क्यों कोई लडक़ी बिना दबाव के भी हिजाब या नकाब लगाए रहने की जिद करती है। कुछ दिनों बाद आयडेंटिटी का मसला समझ आया।

ईरान में इन दिनों हिजाब के खिलाफ महिलाएँ प्रदर्शन कर रही हैं। सोशल मीडिया पर अपने बाल काटते हुए फोटो पोस्ट कर रही हैं। पिछले दिनों हिजाब ठीक से न पहनने पर कुर्द यजीदी लडक़ी महसा अमीनी की मौत ने ईरान की महिलाओं को सडक़ पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है।

महसा अपने भाई के साथ तेहरान आई हुई थी तभी उसे मॉरल पुलिस ने हिजाब ठीक से न पहनने को लेकर गिरफ्तार किया, जब उसे अस्पताल लाया गया तब तक वह कोमा में चली गई थी। अस्पताल में बाद में उसकी मौत हो गई। उसकी मौत के बाद ईरान में हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे।

महसा जिस कम्यूनिटी का हिस्सा है, वहाँ हिजाब पहनना या न पहनना व्यक्तिगत चुनाव है। ईरान में हिजाब पहनने या न पहनने का चुनाव करने का कोई विकल्प नहीं है। वहाँ हर महिला को अनिवार्यत: हिजाब पहनना होता है। ये वहाँ के बहुसंख्यकों की सामाजिक-धार्मिक परंपरा भी है।

ईरान के प्रदर्शनों का हवाला देते हुए हमारे यहाँ कर्नाटक हिजाब विवाद में दलीलें दी जा रही हैं। कर्नाटक सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह रही है कि ईरान जैसे देश में महिलाएँ हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही है औऱ भारत में महिलाएँ हिजाब के लिए लड़ रही है।

इसी संदर्भ में मुझे फ्रांस में पढ़ती उस मुस्लिम लडक़ी की याद आ गई जो हिजाब को आयडेंटिटी का हिस्सा बता रही थी। पिछले दिनों कई अलग-अलग तरह की चीजें पढ़ीं, सुनी, समझी। देर से सही मगर एक चीज समझ आई कि बिना सामाजिक मनोविज्ञान समझे हम चीजों की ठीक-ठाक समझ नहीं पा सकते हैं।

स्वतंत्रता का मसला चुनाव से जुड़ा हुआ है, थोपा हुआ कुछ भी स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं हो सकता है। ईरान में मुस्लिम महिलाएं हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं और इसके उलट भारत में हिजाब के समर्थन को लेकर कोर्ट में केस चल रहा है। ठीक बात है कि हिजाब, नकाब, बुरका या फिर किसी भी तरह का पर्दा पितृसत्ता के दमन का प्रतीक है।

एक दूसरी बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता का संबंध भी चुनाव से है। इन दोनों ही घटनाओं में कई सारे एंगल है। सबसे पहला तो यही चुनाव की आजादी...। दूसरा एंगल है बहुसंख्यकवाद का। चाहे कोई कितनी ही लोकतांत्रिक व्यवस्था हो बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को अपनी तरह से संचालित करने का प्रयास करेगा।

यही मसला ईरान का है, यही मसला भारत का भी है। ईरान में भी कुर्द यजीदियों को ईरान के इस्लामिक कानूनों (चाहे वो कानून हो या फिर सामाजिक व्यवहार) के अधीन रहना आवश्यक है और भारत में भी गैर हिंदुओं को हिंदू सामाजिक व्यवहार के अधीन रहना आवश्यक है।

भारत के मसले में एक तीसरी बात है, जिस पर इस सिलसिले में लिखी गई पोस्ट पर कई लोगों से लंबी बहसें हुई है, वह है हर हाल में लड़कियों के पढऩे की सहूलियत। यदि लड़कियों को हिजाब में भी पढऩे के लिए भेजा जा रहा है तो हमें उसे स्वीकारना होगा।

हिजाब या नकाब हटाने को अहम का प्रश्न नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि कानून बना देने से सामाजिक व्यवहार में बदलाव नहीं लाए जा सकते हैं। सामाजिक परंपराओं और व्यवहार में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होने वाली प्रक्रिया है। किसी वक्त में गर्ल्स स्कूल कॉलेज हुआ करते थे।

हमारे वक्त में सारी लड़कियाँ गर्ल्स स्कूल और कॉलेजों में पढ़ा करती थी। यदि कोई विषय गर्ल्स कॉलेज में नहीं होता था तो लड़कियाँ वह विषय ही नहीं लेती थी, किसी दूसरे विषय से पढ़ लिया करती थी। आज मैंने बहुत सारे लोगों को लड़कियों को जानबूझकर कोएड में पढ़ाते हुए देखा है।

एक सीधा-सा तर्क होता है उनका कि स्कूल-कॉलेज में हम उसे लड़कियों के साथ पढ़ा देंगे, दुनिया में तो उसे लडक़ों के साथ भी रहना होगा, काम करना होगा न? सोचिए ये परिवर्तन एकाएक नहीं आया है। कर्नाटक हिजाब मामले में अब जबकि यह अहम की लड़ाई हो गई है, लड़कियों की शिक्षा दाँव पर लगी हुई है।

ईरान की महिलाओं का संघर्ष तारीफ के काबिल है। यह एक तरह से पूरबी महिलाओं के अपने हक के लिए लडऩे का ऐलान है। यह भी कि आखिरकार पूरब में ही महिलाएँ जागरूक हो रही हैं, अपने अधिकारों के लिए, अपने इंसान समझे जाने के संघर्षों के लिए तैयार हो रही हैं।

उम्मीद है कि यही आग आसपास के देशों में भी फैलेगी। भारत में भी महिलाएँ हिजाब जलाएँगी, लेकिन पहले उन्हें इस सोच तक आने तो दीजिए। उनकी पढ़ाई-लिखाई और समझ को प्राथमिकता पर तो आने दीजिए। यदि हिजाब पहनने के एवज में उन्हें शिक्षा से ही वंचित किया गया तो वे क्या लड़ेंगी!

जिस तरह से चूजे को अंडे का खोल खुद ही तोडक़र बाहर आने के लिए ताकत हासिल करनी होती है, उसी तरह लड़कियों को लड़ाई लडऩे के लिए पहले ताकत तो हासिल करने दीजिए। देखिएगा कि तब वे खुद ही इन परंपराओं से निजात पाने के लिए उठ खड़ी होंगी।

चयन को ही स्वतंत्रता का मापदंड बने रहने दें, मजबूरी को स्वतंत्रता का नाम न दें।

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