संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जिन्हें लगता है कि देश में जाति व्यवस्था खत्म हो गई है वे इसका जवाब दें...
09-Oct-2022 4:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जिन्हें लगता है कि देश में जाति व्यवस्था खत्म हो  गई है वे इसका जवाब दें...

उत्तरप्रदेश के मेरठ का एक पर्चा किसी ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है जिसमें प्रशांत कबाड़ी नाम का आदमी सभी पुराने सामानों का कबाड़ खरीदने के लिए अपने फोन नंबर के साथ प्रचार कर रहा है। ऐसे दूसरे पर्चों से यह पर्चा इस मामले में अलग है कि इसके ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में हिन्दू कबाड़ी छपा हुआ है। कबाड़ के काम में बहुत से इलाकों में मुस्लिम अधिक लगे रहते हैं, क्योंकि उनकी पढ़ाई-लिखाई कम रहती है, किसी काम में पैसा लगाने की उनकी क्षमता कम रहती है, और कबाड़ा का काम वे बिना किसी ट्रेनिंग के भी कर सकते हैं। शायद मुस्लिम कबाडिय़ों की बहुतायत के बीच यह हिन्दू कबाड़ी अपने हिन्दू होने की घोषणा करते हुए हिन्दुओं के बीच एक प्राथमिकता पाने की उम्मीद कर रहा है। देश की आज की हालत का यह एक नमूना है कि लोगों से उम्मीद की जा रही है कि वे अपना कबाड़ा भी किसी दूसरे धर्म के खरीददार को न बेचें। 

हिन्दुस्तान में यह जहर बहुत बुरी तरह फैला है, और जिन लोगों को यह लगता था कि यह और अधिक नहीं फैल सकता, उन्हें यह आए दिन हैरान करता है। अब जगह-जगह लोग किसी मुस्लिम ड्राइवर के आने पर टैक्सी को वापिस भेज देने के फतवे दे रहे हैं, तो कहीं मुस्लिम या दलित डिलीवरी मैन के आने पर उससे खाना लेने से मना कर रहे हैं। जब शहरों में यह हो रहा है तो जाहिर है कि गांवों में स्कूलों में अगर दलित महिला का पकाया दोपहर का खाना खाने से दूसरी जातियों के बच्चे और उनके मां-बाप तो मना कर ही सकते हैं। यह भी जगह-जगह हो रहा है, और जहां कहीं ऐसे बहिष्कार की वीडियो रिकॉर्डिंग हो पाती है, वहीं पर यह बात खबर बन पाती है, बाकी जगहों पर इसे भुला दिया जाता है, अनदेखा कर दिया जाता है। और हालत यह है कि अभी एक कार्यक्रम में आरएसएस के मुखिया ने यह भाषण दिया है कि वर्ण और जाति व्यवस्था जैसी चीजें अतीत की बातें हैं, और इसे भुला दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है, और वर्ण और जाति जैसी अवधारणाओं को पूरी तरह त्याग देना चाहिए। 

जो लोग आरएसएस की, या दूसरे हिन्दूवादी संगठनों की सोच को जानते हैं वे मोहन भागवत के बयान का एक और मतलब भी समझ सकते हैं। आज हिन्दुस्तान में दलित, आदिवासी, और ओबीसी आरक्षण जाति व्यवस्था के आधार पर ही है। जाति व्यवस्था को भुला देने को कहने का एक मतलब यह भी निकलता है कि आरक्षण को भी भुला दिया जाए। देश के कुछ दूसरे नेताओं ने भागवत के इस बयान में छुपे हुए खतरों को तुरंत ही पहचान लिया। लोगों को याद होगा कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने पर पूछे गए एक आलोचनात्मक सवाल के जवाब में कहा था कि सिर्फ ऊंची जातियों के लोगों को यह लग सकता है कि आज जाति व्यवस्था खत्म हो गई है, यह ठीक वैसे ही है जैसे कि जूते पहने हुए पांवों को यह पता नहीं चलता कि उनके जूतोंतले कौन से नंगे पांव कुचले जा रहे हैं, जूतोंतले कुचलने का दर्द नंगे पांव वालों को ही होता है। ठीक यही नौबत आज आरएसएस के मुखिया के बयान के साथ है। दशहरे पर संघप्रमुख के बयान पर कांग्रेस के एक सबसे मुखर नेता दिग्विजय सिंह ने तुरंत ही यह सवाल उठाया है कि क्या अगला सरसंघचालक कोई गैरब्राम्हण होगा? उन्होंने पूछा है कि क्या कोई एससी-एसटी, या ओबीसी व्यक्ति सरसंघचालक पद के लिए मंजूर किया जाएगा? क्या आरएसएस अल्पसंख्यकों को भी सदस्य बनाएगा? 

आरएसएस के मुखिया के जाति व्यवस्था के बयान को मेरठ के एक कबाड़ी के पर्चे के साथ जोडक़र देखने की जरूरत है। जब बिना पर्चों के भी जगह-जगह जुबानी बातचीत में अल्पसंख्यक समुदाय के बीच यह बात चलती है कि लोगों को अपने धर्म के लोगों से ही लेन-देन करना चाहिए, तो फिर जाति व्यवस्था या धर्म व्यवस्था के कमजोर होने की सोच खोखली लगती है। हालांकि मोहन भागवत ने धर्म व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं कहा है, और केवल हिन्दुओं के बीच की जाति व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था के बारे में ही कहा है, लेकिन यह जाति व्यवस्था कहीं से भी कमजोर पड़ी हो, कहीं पर भी अप्रासंगिक हो, ऐसा नहीं है। इसे परखने के लिए आरएसएस के मुखिया अपने कार्यकर्ताओं के लिए यह निर्देश जारी कर सकते हैं कि देश में कहीं भी कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढक़र बारात ले जाना चाहे, तो आरएसएस के स्वयंसेवक लाठियों के घेरे में उसे हिफाजत मुहैया कराते हुए ले जाएं। जहां कहीं जाति व्यवस्था की हिंसा सिर उठा रही है, वहां आरएसएस अपने स्वयंसेवक झोंके, तो उसे हकीकत का सामना करना पड़ेगा, हकीकत की जानकारी तो उसे पहले से है। अगर जाति व्यवस्था को खत्म करना है, तो इस व्यवस्था के तहत सैकड़ों-हजारों बरस से चले आ रहे ढांचे को तोडऩा होगा, और दलित-आदिवासी, या दूसरी जातियों के लोगों की खानपान की आजादी को मान्यता देनी होगी। जाति व्यवस्था इस तरह से खत्म नहीं हो सकती कि हर कोई खानपान, आचार-व्यवहार, पोशाक और बोलचाल पर ब्राम्हणवादी, शुद्धतावादी नियमों को मानने लगे। वह जाति व्यवस्था का खात्मा नहीं होगा, वह ब्राम्हणवाद को लागू करना ही होगा। इसलिए जाति व्यवस्था को गैरजरूरी और खत्म हो चुकी मानने वाले लोगों को इन सब बातों के जवाब भी देने होंगे कि अगर तमाम हिन्दू एक ही जाति के गिने जाएंगे, तो उनके भीतर संस्कारों और पसंद की कैसी आजादी रहेगी? ऐसे असुविधाजनक सवालों के जवाब दिए बिना आरएसएस प्रमुख केवल बयान देकर काम नहीं चला सकते। उन्हें मेरठ के इस हिन्दू कबाड़ी के पर्चे पर भी बयान देना चाहिए। 
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