संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक वक्त का इज्जतदार कारोबार टेक्नालॉजी ने कैसा बर्बाद कर दिया!
12-Oct-2022 4:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक वक्त का इज्जतदार कारोबार टेक्नालॉजी ने कैसा बर्बाद कर दिया!

टेक्नालॉजी किस तरह हिन्दुस्तान के एक प्रतिष्ठित समझे जाने वाले, और अहमियत रखने वाले पेशे और कारोबार को प्रभावित कर रही है, यह देखना हो तो मीडिया और सरकार को देखना चाहिए। सरकार के नियम मीडिया के तौर-तरीकों को, नीति-सिद्धांतों को, परंपराओं को किस तरह बदल रहे हैं, यह कागजों पर लिखा दिखता है। केन्द्र सरकार और बहुत सी राज्य सरकारों ने मीडिया को इश्तहार देने के जो नियम बनाए हैं, वे पहले तो इस कारोबार को, और फिर उसी वजह से पत्रकारिता के पेशे को कुचल रहे हैं। इसमें एक सिलसिला तो पुराना है जो कि अखबारों के एकाधिकार के वक्त से चले आ रहा है जिसके तहत केन्द्र सरकार की एक एजेंसी अखबारों की प्रसार संख्या तय करती है। और इस एजेंसी के नियमों को पूरा करने के लिए अखबारों का पूरा कारोबार फर्जी आंकड़ों पर खड़ा किया जाता है, इन आंकड़ों से अखबारों के केन्द्र सरकार के विज्ञापनों के रेट भी तय होते हैं, और कई राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के इसी रेट को ज्यों का त्यों मान लेती हैं। अब प्रसार संख्या का यह खेल पूरी तरह से जालसाजी के आंकड़ों पर टिका रहता है, और मीडिया-कारोबार पर लिखने वाले लोग यह लिखते आए हैं कि अधिक प्रसार संख्या दिखाने के लिए बड़े अखबार किस तरह लाखों कॉपियां ऐसी छापते हैं जो कि छापते ही ट्रकों में भरकर लुग्दी कारखाने भेज दी जाती हैं, दुबारा कागज बनाने के लिए। बहुत से अखबार तरह-तरह की प्रतिबंधित योजनाएं लागू करते हैं ताकि फर्जी या असली ग्राहक जुटाए जा सकें, और उससे सरकारी रेट बढ़वाया जा सके, और फिर उस रेट को दिखाकर बाजार का रेट भी बढ़वाया जा सके। लेकिन इस फर्जीवाड़े से परे पहले से एक बात तो यह भी चली आ रही थी कि अखबारों में समाचार और विचार ऐसे छपें जिन्हें अधिक से अधिक लोग पढ़ें, फिर चाहे वे गैरजिम्मेदार और सनसनी के हों, लोगों को लुभाने और भडक़ाने वाले हों, या झूठे भी हों। यह पूरा सिलसिला तो पहले से चले आ रहा था, और इसे आज की टेक्नालॉजी से जोडक़र देखना गलत होगा।

लेकिन अब छपे हुए अखबारों से परे की बात करें, तो पहले तो समाचार चैनलों जैसा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बाजार में बढ़ते चले गया, और अपने गलाकाट मुकाबले में उसने फर्जी दर्शक संख्या जुटाने का संगठित जुर्म किया। लोगों को याद होगा कि मुम्बई में किस तरह ऐसी ही फर्जीवाड़े में कुख्यात टीवी पत्रकार-मालिक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी हुई थी, और फर्जी दर्शक संख्या जुटाने वाला पूरा गिरोह गिरफ्तार हुआ था। अब हालत यह है कि भारत में इस दर्शक संख्या को गिनने के लिए जो संस्था बनी है, उसका एनडीटीवी से लेकर जीन्यूज तक बहुत से समाचार चैनलों ने बहिष्कार कर दिया है क्योंकि वह नाजायज तौर-तरीके इस्तेमाल करके कुछ खास लोगों को बढ़ावा देने की एक मशीन बन गई है। फिर मानो मीडिया को तबाह करने के लिए यह भी काफी नहीं था, तो ऑनलाईन मीडिया विकसित हुआ, और उस पर पहुंचने वाले दर्शकों या पाठकों की गिनती के तरीके निकले। यहां से मीडिया मालिकों के हाथ एक हथियार भी लगा कि किस तरह किसी समाचार, फोटो, विचार, या वीडियो तक पहुंचने वाले लोगों को गिना जाए, वहां पर उनका कितना वक्त गुजरता है इसे जोड़ा जाए। यह औजार मीडिया मालिकों के हाथ भी है, और इंटरनेट-तकनीक की मेहरबानी से यह बाजार के हाथ भी है। अब सरकारी या कारोबारी इश्तहारों के लिए यह एक पैमाना बना दिया गया है कि अलग-अलग कितने लोग किसी वेबसाईट पर रोज पहुंचते हैं, या उस पर कितना वक्त गुजारते हैं। किसी समाचार पर आधा मिनट अगर लोग नहीं गुजारते हैं, तो कुछ पैमाने उन्हें उस समाचार का पाठक ही नहीं मानते। ऐसे पैमानों से अब सरकारी इश्तहार तय होते हैं, और ऑनलाईन मीडिया, पत्रकारिता की पुरानी परंपराओं को कचरे की टोकरी में डालकर इन्हीं पैमानों के मुताबिक काम करने लगा है। अब वेबसाईट पर हिट्स बढ़ाने के लिए लोग वहां पर दस-दस किस्म के भविष्यफल देने लगे हैं, पूरे देश और दुनिया के सेक्स और जुर्म की खबरों से वेबसाईट पाट दी गई हैं, और तरह-तरह की नग्न या अश्लील तस्वीरों से लोगों को वहां खींचा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि सरकारी पैमाने भी ऐसी तमाम हिट्स को गिनते हैं, और उसी के मुताबिक इश्तहार के रेट और इश्तहार तय करते हैं। जाहिर है कि गांवों मेें सौर ऊर्जा से चलने वाले सिंचाई पम्प के समाचार के मुकाबले उर्फी जावेद के कपड़े न पहनने के समाचार और फोटो को हजार गुना लोग देखेंगे, और लोगों को धोखा देने वाले भविष्यफल को हजारों लोग रोजाना ही नशे की तरह इस्तेमाल करेंगे। फिर मानो इतना भी काफी नहीं हो, तो अब यह पैमाना तय कर दिया गया है कि जिस समाचार पर लोग तीस सेकेंड नहीं रूकेंगे, उसे पढ़ा हुआ भी नहीं गिना जाएगा। नतीजा यह है कि तीस सेकेंड से कम में पूरा पढ़ लिए जाने लायक समाचार को वेबसाईटें अब तरह-तरह से पानी मिलाकर लंबा बनाती हैं, बीच-बीच में इश्तहार डालकर समाचार के वाक्य दूर तक खींचती हैं, और यह गारंटी करती हैं कि लोगों के तीस सेकेंड उस पर लग ही जाएं। मतलब यह कि लोगों का वक्त बर्बाद करने, काम की जानकारी को छुपाने, प्रदेश या शहर का नाम शुरू में न बताने, और लोगों को गैरजरूरी कचरा पढ़वाने से अब अधिक सरकारी कमाई हो सकती है। नतीजा यह हुआ है कि पत्रकारिता की जिस तकनीक और परंपरा में कम से कम शब्दों में जानकारी देने को बेहतर समझा जाता था, सबसे शुरू में ही बुनियादी जानकारी देना जरूरी समझा जाता था, आज सरकारें इसका ठीक उल्टा करने पर अधिक भुगतान कर रही हैं। जिन लोगों ने बेहतर अखबारनवीसी की हुई हैं, उनका तजुर्बा और उनका तौर-तरीका आज के कारोबारी और सरकारी पैमानों पर नुकसान का सौदा हो गया है। समाचार लिखने के जो तरीके सदियों से चले आ रहे थे, उन्हें दशकों में खत्म कर दिया गया है। जैसे भविष्यफल को छापना नाजायज माना जाता था, वह आज वेबसाईटों की हिट्स बढ़ाने का हथियार हो गया है, जैसी अश्लीलता किसी वक्त लोगों को कोर्ट पहुंचा सकती थी, वह आज कारोबारी कामयाबी तक पहुंचा रही है। बाजार के तो कोई उसूल होते नहीं हैं, लेकिन अब सरकारें भी टेक्नालॉजी के औजारों की सहूलियत से खुश हैं, और उन्होंने भी मीडिया से किसी भी उसूल की उम्मीद रखना बंद कर दिया है।

अखबारों के फर्जी आंकड़ों से होते हुए, टीवी समाचार चैनलों की फर्जी दर्शक संख्या के बाद अब वेबसाईटों के फर्जी हिट्स तक, मीडिया-कारोबार ने काफी तरक्की कर ली है। और अब आगे सोशल मीडिया पर, ट्विटर और फेसबुक पर, इंस्टाग्राम पर फर्जी बोट्स के सहारे अपने कारोबार को अधिक दिखाने का एक नया फर्जीवाड़ा चल रहा है, और वह भी उजागर होना शुरू हो गया है। लेकिन जिस तरह जुर्म की दुनिया नकली नोटों पर चलती है, उसी तरह आज का मीडिया कारोबार सरकारों की मेहरबानी से नकली आंकड़ों पर चल रहा है, ऐसे में पाठक और दर्शक को पत्रकारिता के किन्हीं सिद्धांतों की उम्मीद नहीं करना चाहिए। इन दिनों कुछ समाचार वेबसाईटें बिना इश्तहारों के चल रही हैं, और वे अपने पाठकों से एक भुगतान लेती हैं, या दान मांगती हैं। मीडिया में शायद यही एक हिस्सा अभी ईमानदार रह गया दिखता है जो कि सिर्फ पाठकों के प्रति जवाबदेह है, किसी फर्जीवाड़े के प्रति नहीं।
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