संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : साम्प्रदायिक हिंसा और नफरत अब इस हिन्दुस्तान में बन गई हैं नवसामान्य..
14-Oct-2022 4:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  साम्प्रदायिक हिंसा और  नफरत अब इस हिन्दुस्तान में बन गई हैं नवसामान्य..

हिन्दुस्तान की इन दिनों की खबरें देखें तो कहीं हरियाणा में मस्जिद में घुसकर नमाज पढ़ते लोगों की पिटाई, और गांव से निकालने की धमकी दिखाई देती है, तो कहीं यूपी के बागपत में एक मुस्लिम की पीट-पीटकर हत्या करने वाले और जयश्रीराम का नारा लगाकर फरार होने वाले चार हिन्दू युवकों को गिरफ्तार किया गया है। इसके पहले कर्नाटक के एक मदरसे में घुसकर जबर्दस्ती वहां पूजा करने वाले कुछ लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। दिल्ली में भाजपा के सांसद परवेश वर्मा ने अभी एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच और माईक से एक समुदाय के पूरे बहिष्कार की बात कही है और कहा है कि इस समुदाय की अक्ल ठिकाने लगानी है तो फिर इनकी दुकानों का बहिष्कार करो, इनके लोगों के ठेलों से कुछ न खरीदो, और इन्हें रोजगार भी न दो। 

हिन्दुस्तान में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरता है जब मुस्लिमविरोधी लोग देश में कहीं न कहीं इस तरह की हरकतें न करते हों, या इस तरह के फतवे जारी न करते हों। हर कुछ हफ्तों में भीड़त्या दिखाई पड़ती है जिसमें जानवर ले जा रहे डेयरी कारोबारी भी पीट-पीटकर मारे जाते हैं, या किसी के पास किसी भी तरह का गोश्त मिलने पर उसे गोमांस के शक में मार दिया जाता है। देश की अदालतें मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर बहसों से भरी हुई हैं, और ऐसा लगता है कि तमाम देश ही इस एक समाज में सुधार करने पर आमादा है। कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं के बाल और कान न दिखने पर मानो हिन्दू छात्र-छात्राओं का मन पढ़ाई की तरफ से हट जा रहा है, और मुस्लिम बच्चियों के पढऩे की संभावना को भी हिजाब हटाने की जिदतले दफन कर दिया जा रहा है। पूरा का पूरा देश एक ऐसे जुनून से भर दिया जा रहा है कि जो कुछ मुस्लिम है, वह गलत है, उसमें सुधार और मरम्मत होनी चाहिए, रिवाजों में मरम्मत के साथ-साथ मुस्लिमों की मरम्मत भी होनी चाहिए, और इन तब तक सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए जब तक ये भूखे मरकर सुधर न जाएं, बदल न जाएं। नफरत के ऐसे सैलाब के बीच झांसा और धोखा देने के लिए तरह-तरह की बातें की जाती हैं, मुस्लिमों का डीएनए हिन्दुस्तान के हिन्दुओं के डीएनए वाला ही बताया जाता है, और ऐसे डीएनए-भाई को कूट-कूटकर उसका कीमा बना देने का भाईचारा दिखाया जाता है। 
दिक्कत यह नहीं है कि समाज का एक छोटा हिस्सा इतना हिंसक हो गया है, और लोकतंत्र के सारे संवैधानिक स्तंभ इस तरह बेअसर हो गए हैं, बेरहम हो गए हैं कि वे एक स्कूली बच्ची की पढ़ाई छुड़वा देने की कीमत पर भी उसका हिजाब उतरवाने पर आमादा हैं मानो उसके हिन्दू सहपाठियों की पढ़ाई उसके बाल और कान देखकर बेहतर हो जाएगी। यह पूरा सिलसिला कम खतरनाक है, अधिक खतरनाक है देश की बहुसंख्यक आबादी के बहुसंख्यक हिस्से का ऐसी हिंसा की तरफ से बेपरवाह हो जाना। यह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में अब एक नया सामान्य वातावरण है, एक नवसामान्य माहौल। हिंसा जितनी खतरनाक होती है उससे कहीं अधिक खतरनाक हिंसा के लिए बर्दाश्त होती है। अब मुस्लिमों के साथ हिंसा हिन्दुस्तान के मीडिया के एक बड़े हिस्से में तो तब तक खबर नहीं बनती, जब तक सोशल मीडिया का एक हिस्सा उसके सुबूत पेश नहीं कर देता। कुछ इंसानों का कातिल हो जाना उतना खतरनाक नहीं है जितना कि कातिलों के लिए लोगों के मन में सम्मान हो जाना है, बलात्कारियों के लिए मन में इज्जत, और हाथों में माला आ जाना है। आज हिन्दुस्तान में मुस्लिम को मारने वाले, उनकी महिलाओं से बलात्कार करने वाले लोगों का सम्मान, सामान्य हो गया है, यह लोगों के बीच मान्य हो गया है। अधिक खतरनाक यह बर्दाश्त है, और लोकतंत्र इससे जीत नहीं सकता। 
हिन्दुस्तान का लंबा इतिहास रहा है जिसमें पिछले सैकड़ों बरस तो कई धर्मों के लोगों के सहअस्तित्व के रहे हैं। जब लोकतंत्र नहीं था, अदालतें नहीं थीं, तब भी लोग एक-दूसरे को बर्दाश्त करते हुए साथ जी लेते थे। राजाओं के वक्त भी इस तरह की हिंसा मुमकिन नहीं थी। अधिकतर जगहों पर कई धर्मों के रिवाज साथ-साथ चल जाते थे। लोकतंत्र आने के बाद जो सौ फीसदी बराबरी की संवैधानिक सोच थी, वह अभी दस बरस पहले तक तो तकरीबन ठीक-ठाक चलती रही, लेकिन इन दस बरसों में यह पूरी तरह कुचलकर खत्म कर दी गई। पौन सदी के पहले जो लोकतंत्र नहीं था, और लोकतंत्र ने आधी सदी के सफर में जो कुछ सीखा था, उस स्लेट को इन दस बरसों में पूरा ही साफ कर दिया गया है। मतलब यह कि लोकतंत्र में जितना सभ्य होने की गुंजाइश थी उससे सौ गुना अधिक क्षमता उसकी असभ्य होने की है, और उसने बहुत रफ्तार से असभ्य होकर एक हिंसक शक्ल अख्तियार कर ली है। यह बात तय है कि देश के हालात अगर कभी बेहतर भी होंगे, तो भी इस हिंसा और नफरत से उबरने में उसे कई गुना अधिक वक्त लगेगा, उस वक्त के मुकाबले जो कि उसने हिंसक और नफरतजीवी होने में लगाया है। लोगों को अपनी आने वाली पीढिय़ों की भी फिक्र करना चाहिए कि इतनी नफरत के बीच, इतनी हिंसा के बीच, वह किस तरह जिंदा रहेगी, कितनी महफूज रहेगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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