संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिन्दूकरण के इस बोझ से दम घुट रहा हिन्दुस्तान का
21-Oct-2022 4:17 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिन्दूकरण के इस बोझ से दम घुट रहा हिन्दुस्तान का

महाराष्ट्र की वर्धा नाम की जिस जगह पर गांधी ने बहुत समय गुजारा था, वहां पर उनकी स्मृति में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय है। यह केन्द्रीय विश्वविद्यालय कई वजहों से अच्छी और बुरी चर्चा में रहता है। लेकिन अब तीन दिन पहले की इसकी एक ताजा चि_ी बड़ी दिलचस्प है। विश्वविद्यालय के कुलसचिव ने सारे लोगों को लिखा है कि परिसर की गौशाला में गौबारस के पावन पर्व पर 21 अक्टूबर को सुबह 8.30 बजे गाय और बछड़े के पूजन का आयोजन किया गया है। सभी विद्यार्थियों, अध्यापकों, कर्मचारियों से अनुरोध है कि इस पूजन में सपरिवार अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने का कष्ट करें। आज देश भर में भाजपा शासित प्रदेशों में और केन्द्र सरकार के संस्थानों में हिन्दू धर्म को देश के अकेले धर्म के रूप में एकाधिकार दिलवाने के लिए लगातार एक मुहिम चल रही है। यह उसी मुहिम का एक हिस्सा है। 

छत्तीसगढ़ में भी हम कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इसी तरह की पूजा-पाठ और हवन देख चुके हैं, जिसकी तस्वीरें विश्वविद्यालय बड़े गर्व से सोशल मीडिया पर पोस्ट करता है। देश के प्रधानमंत्री और दूसरे बड़े सत्तारूढ़ नेता, भाजपा के कई मुख्यमंत्री, और अब कांग्रेस के भी मुख्यमंत्री लगातार मंदिरों में जाते दिखते हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों में फर्क महज इतना है कि वे दूसरे धर्मों के कार्यक्रमों में भी चले जाते हैं, भाजपा के मंत्री-मुख्यमंत्री अपने धर्म तक सीमित रहते हैं, और इनमें किसी गैरहिन्दू की तो अधिक गुंजाइश भी नहीं है। लेकिन इस धार्मिक भेदभाव से धीरे-धीरे देश का एक माहौल जो बड़ी मुश्किल से आधी सदी में जाकर कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष सरीखा हो पाया था, वह तबाह हो गया है, और अब संविधान में संशोधन करके इसे एक हिन्दू राष्ट्र बनाए बिना भी सरकारों की तमाम कोशिशें इसे तमाम व्यवहारिक बातों के लिए हिन्दू राष्ट्र बना चुकी हैं। जेल से गलत तरीके से वक्त के पहले रिहा किए जाने वाले सामूहिक बलात्कारियों को माला और आरती सुप्रीम कोर्ट की आंखों के सामने ही मिल रही हैं, और किसी भी तरह के छोटे-मोटे जुर्म के आरोपी मुसलमानों के परिवार और कारोबार को कुछ घंटों के भीतर बुलडोजर मिल रहा है। हिन्दुस्तान की न्यायपालिका कभी इतनी बेबस और लाचार नहीं दिखी थी कि वह रात-दिन टीवी पर चलने वाले ऐसे नजारों को भी अनदेखा करना शायद अपनी हिफाजत के लिए बेहतर समझती है। उसे न तो सरकारों के संपूर्ण-हिन्दूकरण में कोई दिक्कत दिख रही है, और न ही पुलिस और प्रशासन के पूरी तरह साम्प्रदायिक हो जाने में। यह सिलसिला उन सत्तारूढ़ लोगों के लिए सहूलियत का है, और उनका हौसला बढ़ा रहा है जो कि पूरे देश को एक भगवा रंग में रंग देना चाहते हैं। 

जिन विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की पढ़ाई होनी चाहिए, वहां पर एक धर्म के हवन-पूजन का सिलसिला चला हुआ है, देवी-देवताओं के साथ-साथ अब वहां गाय-बछड़े की पूजा भी हो रही है, और उसका बड़ा जलसा हो रहा है, जिसका न तो पढ़ाई से कोई लेना-देना है, और न ही देश की धर्मनिरपेक्षता से। जो जाहिर तौर पर सोच-समझकर एक धर्म को बाकी सब पर लादने की एक हिंसक और हमलावर कोशिश है जो कि पूजा की शक्ल में पेश की जा रही है। यह बात साफ है कि देश की आबादी के गैरहिन्दू तबकों में यह सब देखकर एक निराशा है, और नाराजगी है। उनके बीच यह बात घर कर रही है कि वे सब दूसरे दर्जे के नागरिक हैं, और तमाम नागरिक हक अगर पाने हों, तो उन सबको भी हिन्दू हो जाना चाहिए। देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को जिस रफ्तार के साथ तहस-नहस कर दिया गया है, वह अविश्वसनीय है। दस बरस पहले किसी से यह कल्पना करने को कहा गया होता कि किसी एक धर्म की तानाशाही हिन्दुस्तान पर इस हद तक हावी हो सकती है, तो शायद लोग आसानी से इस बात को नहीं मानते। लेकिन अब इसे साबित करने के लिए किसी सुबूत की भी जरूरत नहीं बची है क्योंकि यह चारों तरफ सरकारी स्तर पर अच्छी तरह से स्थापित है।

दिक्कत यह है कि आज संसद में एक ही सोच का बाहुबल, देश की अधिकतर विधानसभाओं में उसी सोच का बाहुबल ऐसा है कि वह किसी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की तरह चारों तरफ पहुंच रहा है, और अपना झंडा गाड़ रहा है। मतदाताओं के बीच इस सोच ने लोकतांत्रिक संसदीय चुनावों को एक धार्मिक जनगणना की तरह बनाकर रख दिया है। इस बात को हिन्दुस्तान के गैरहिन्दू तो भुगत ही रहे हैं, वे हिन्दू भी भुगत रहे हैं जिनकी ऐसी हमलावर सोच पर कोई आस्था नहीं है। दुनिया के बाकी देशों में जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र हैं वे लगातार यह पा रहे हैं कि हिन्दुस्तान में धार्मिक स्वतंत्रता न्यायपूर्ण नहीं रह गई है, एक धर्म की स्वतंत्रता रह गई है, और बाकी धर्मों के लिए इसका अकाल पड़ गया है। इससे आज तो जितना नुकसान हो रहा है, जितना खतरा दिख रहा है, वह तो है ही, इससे भी अधिक बढक़र इसका नुकसान आने वाले बरसों में दिखेगा जब अगली पीढिय़ां अपने इर्द-गिर्द ऐसी ही धार्मिक हिंसा को देखते हुए बड़ी होंगी, और उन्हें यह समझ आएगा कि यही नवसामान्य हिन्दुस्तान है। उन्हें दिक्कत तब होगी जब वे विकसित लोकतंत्रों में काम करने जाएंगे, और उन्हें पता लगेगा कि हिन्दुस्तान के भीतर के धार्मिक भेदभाव और साम्प्रदायिक हिंसा की वजह से उन्हें उन देशों में शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। धर्मान्धता सिर्फ अफगानिस्तान या ईरान जैसे देशों को अछूत नहीं बनाती, हिन्दुस्तान जैसे देश के खिलाफ भी दुनिया के कई देशों में संसदों में चर्चा हो चुकी है, और कई देशों के संवैधानिक संगठन भारत के इस भेदभाव पर फिक्र कर चुके हैं। ऐसी साम्प्रदायिकता से हिन्दुस्तान अपनी संभावनाओं से कोसों दूर रह जाएगा क्योंकि आबादी के कई हिस्सों को विकास की मूलधारा से काटकर रखने का नुकसान तो हो ही रहा है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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