संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्तारूढ़ नेताओं की खुली बदसलूकी क्यों बर्दाश्त करते हैं अफसर-कर्मचारी?
29-Oct-2022 3:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्तारूढ़ नेताओं की खुली बदसलूकी क्यों बर्दाश्त करते हैं अफसर-कर्मचारी?

Photo : Twitter

मुस्लिमों की तरफ इशारा करते हुए एक समुदाय के पूरे आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार करने का सार्वजनिक फतवा देने वाले भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा अभी अपने उस बयान के विवाद से उबरे नहीं हैं कि अब उनका एक नया विवाद सामने आ गया है। छठ पूजा के लिए दिल्ली में यमुना के पानी की सफाई के लिए दिल्ली जलबोर्ड द्वारा उसमें डाले जा रहे केमिकल पर प्रवेश वर्मा ने जमकर आपत्ति की, और जलबोर्ड के अफसर से सार्वजनिक रूप से खूब बदसलूकी की। उनका जो वीडियो तैर रहा है, और अखबारों में जो समाचार आए हैं, उनके मुताबिक उन्होंने अफसर को कहा-‘नदी साफ करना तुझे आठ सालों में याद नहीं आया? तुम यहां लोगों को मार रहे हो, पिछले आठ सालों में यमुना साफ नहीं कर पाए। उन्होंने अफसर से कहा- यह केमिकल तेरे सिर पर डाल दूं, बकवास कर रहा है, बेशर्म और घटिया आदमी।’ दिलचस्प बात यह है कि नेता आमतौर पर जनता जो कि ऐसे मौके पर नेता की हां में हां मिलाती है, इस मामले में खुलकर अफसर के साथ रही, और वहां मौजूद लोगों ने भाजपा सांसद के बर्ताव का जमकर विरोध किया। उन्होंने कहा कि वे देख रहे हैं कि अफसर यहां काम कर रहे हैं, और आपकी पार्टी का यहां कोई नहीं आता। लोगों ने इस पर आपत्ति की कि सांसद किसी अफसर से ऐसे बात कैसे कर सकते हैं। 

यह मामला अपने किस्म का कोई बहुत अनोखा मामला नहीं है। मध्यप्रदेश में तो बहुत से मंत्री अफसरों को पीटते नजर आए हैं, और दूसरे भी कई प्रदेशों में ऐसा होता है। छत्तीसगढ़ में भी पिछली भाजपा सरकार में एक ताकतवर मंत्री रहे रामविचार नेताम ने सर्किट हाऊस के एक कमरे को लेकर एक डिप्टी कलेक्टर को ही पीट दिया था। इंदौर का मामला अदालत तक पहुंचा था जिसमें भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय के विधायक बेटे आकाश विजयवर्गीय ने क्रिकेट की बैट से एक अफसर को दिनदहाड़े खुली सडक़ पर पीटा था, और चारों तरफ दूसरे अफसर यह देख रहे थे, लेकिन इस वीडियो के बावजूद जब मामला अदालत पहुंचा तो उस अफसर ने यह कह दिया कि उन्होंने मारने वाले को नहीं देखा था, जबकि मार खाते हुए वे खुली आंखों से आकाश विजयवर्गीय को देख रहे थे। अफसरों की हालत नेताओं के सामने इसी किस्म की रहती है कि जबरा मारे भी, और रोने भी न दे। यह बात समझ से परे है कि कर्मचारियों और अधिकारियों के बहुत से संगठन होते हैं, अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के भी एसोसिएशन होते हैं, लेकिन जब नेता इनसे बदसलूकी करते हैं, तो इनमें से कोई भी उसका कानूनी जवाब देने की हिम्मत नहीं दिखाते। बहुत कम ऐसे मामले होते हैं जिनमें कलेक्टर स्तर के किसी अफसर की बड़ी पैमाने की बदसलूकी का विरोध किया जाता है, लेकिन मंत्री और मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या सांसद की बदसलूकी का विरोध कर्मचारी और अधिकारी आमतौर पर नहीं कर पाते। 

अब सरकारी अमले को लेकर दो किस्म की बातें हैं, एक तो यह कि कुछ लोग भ्रष्टाचार करने के आदी रहते हैं, जमकर कमाई करने की कुर्सी की ताक में रहते हैं, और वे किसी महत्वहीन या कमाईविहीन कुर्सी पर जाने से डरते हैं, और इसलिए नेताओं को जवाब देने के बजाय उनकी बदसलूकी झेलते हैं। एक दूसरा तबका ऐसा भी रहता है जो कि रिश्वतखोर नहीं रहता है, लेकिन जो अपने परिवार के साथ चैन की जिंदगी गुजारते रहता है, और उसे देश-प्रदेश में किसी दूर की जगह फेंक दिए जाने का डर रहता है, और परिवार के साथ रहने के लालच में, बच्चों की पढ़ाई एक ही जारी रहने के लालच में वे राजनीतिक गुंडागर्दी का विरोध नहीं कर पाते। कुछ लोग सरकारी नौकरी में रगड़े खा-खाकर यह बात समझ चुके रहते हैं कि अगर उन्हें नौकरी में कामयाबी पाने वाला लंबी रेस का घोड़ा बनना है, तो उन्हें सत्ता की बदमिजाजी को बर्दाश्त करना सीखना होगा। और अपनी लंबी नौकरी को ध्यान में रखते हुए वे छोटी-मोटी बदतमीजी को अनदेखा करना सीख लेते हैं। 

लेकिन दिल्ली के जिन लोगों ने इतने वजनदार भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा  की बदसलूकी का खुलकर विरोध किया, उन्होंने बाकी देश की जनता के लिए भी एक राह दिखाई है। उन्होंने यह साबित किया है कि बिना ताकत वाले आम लोग भी जुल्म और बदसलूकी के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं, और उस वक्त भी आवाज उठा सकते हैं जब निशाने पर वे नहीं हैं, कोई सरकारी अधिकारी या कर्मचारी है। यह एक भारी सामाजिक परिपक्वता की बात है कि जनता अपने अफसरों को राजनीतिक बदतमीजी से बचाने के लिए इस तरह खुलकर सांसद के सामने खड़ी हो रही है। बाकी देश में जनता के पास अगर ऐसा हौसला नहीं है, अगर ऐसी राजनीतिक जागरूकता नहीं है, तो उन पर धिक्कार है। सार्वजनिक जगह पर कोई भी व्यक्ति गलत काम कर रहे हैं, तो उसका विरोध करने का हौसला एक लोकतांत्रिक जिम्मेदारी की बात है। बुरे अफसरों का भी लोगों को सार्वजनिक विरोध करना चाहिए, और बुरे नेताओं का भी। भारत जैसे लोकतंत्र में निर्वाचित नेताओं का ऐसा कोई अधिकार नहीं होता कि वे अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ गुंडागर्दी करें। हमारा ख्याल यह है कि ऐसे वीडियो सुबूत रहने पर यह आम जनता का भी हक है कि ऐसे नेताओं के खिलाफ मानवाधिकार आयोग, या अदालत तक जाकर शिकायत करें। जिस देश-प्रदेश में जनता जितनी जागरूक होती है, वहां पर अफसर और नेता उतने ही काबू में भी होते हैं। केरल जैसे शिक्षित राज्य में नेता या अफसर न तो जनता से ऐसी बदसलूकी कर सकते हैं, और न ही एक-दूसरे से। और यह बात सिर्फ शिक्षा से जुड़ी हुई नहीं है, यह राजनीतिक जागरूकता से जुड़ी हुई है जो लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी देती है। दूसरी तरफ उत्तर भारत के राज्यों में हाल बुरा है जहां पर नेता और अफसर सभी तानाशाह की तरह काम करते दिखते हैं, लोगों को हिकारत से देखते हैं, गैरकानूनी काम करते और करवाते हैं, और कानून की तरफ से, लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफ से बेपरवाह रहते हैं। कुल मिलाकर लोकतंत्र में लोगों की मनमानी को खत्म करने का अकेला जरिया यही रहता है कि लोग सरकारी गुंडागर्दी के सामने एकजुट होकर खड़े हों। देश के बहुत से प्रदेशों से ऐसे वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें गैरजिम्मेदार मंत्री और दूसरे नेता जब किसी इलाके में पहुंचते हैं, तो वहां जनता की भीड़ उन्हें धक्के देकर बाहर हकाल देती है। हम किसी तरह की हिंसा की हिमायत नहीं कर रहे, लेकिन सार्वजनिक बहिष्कार की जागरूकता एक लोकतांत्रिक अधिकार है, और जनता को तानाशाह नेताओं और अफसरों के खिलाफ इसका इस्तेमाल करना चाहिए।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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