संपादकीय
Photo : twitter
सोशल मीडिया न हो तो परंपरागत मीडिया में किनारे रह गई खबरें लोगों तक पहुंच भी न पाएं। अभी महाराष्ट्र के सांगली में एक घटना हुई, जो खबरों में कम और सोशल मीडिया पर ज्यादा आई। एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा मूर्ति की सांगली के एक घोर विवादास्पद हिन्दूवादी सामाजिक नेता संभाजी भिड़े से मुलाकात का विवाद सोशल मीडिया पर बहुत लोगों को खींच रहा है। संभाजी भिड़े लंबे समय से अपने आक्रामक हिन्दुत्व की वजह से खबरों में रहते हैं, और उससे भी अधिक विवादों में। कुछ बरस पहले भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा के मामले में उनके खिलाफ पुलिस में केस भी दर्ज है। वे पहले आरएसएस से जुड़े थे, बाद में उन्होंने अपना समानांतर हिन्दूवादी संगठन बनाया, और कई जगहों पर आक्रामक हिन्दुत्व का मुद्दा लेकर उनके समर्थक हिंसा भी करते आए हैं। अपने इलाके में वे भिड़े गुरूजी के नाम से चर्चित हैं, और 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने भी भिड़े से मुलाकात की थी, और उनके बारे में सोशल मीडिया पर बड़ी बातें लिखी थीं। अभी जब सुधा मूर्ति अपनी किताबों के प्रचार के एक कार्यक्रम में सांगली गईं, तो वहां संभाजी भिड़े उनसे मिलने पहुंचे, और मुलाकात की इन तस्वीरों को देखकर सोशल मीडिया पर लोगों ने सुधा मूर्ति की इस बात के लिए आलोचना की कि वे ऐसे घोर साम्प्रदायिक आदमी से मिल रही हैं। सुधा मूर्ति वैसे भी अपने पति, इन्फोसिस के संस्थापक और मालिक नारायण मूर्ति की वजह से भी जानी जाती हैं, लेकिन अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सास होने की वजह से भी उनकी यह मुलाकात एक अलग विवाद की वजह बन गई है। ब्रिटेन के लोकतांत्रिक संगठन और वहां की संवैधानिक संस्थाएं पहले से भारत में साम्प्रदायिक तनाव को लेकर फिक्र जाहिर करते आई हैं, और अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सास का ऐसे हमलावर तेवरों वाले हिन्दुत्व आंदोलनकारी के पांव छूना खबरों में अहमियत की बात हो गई है। अभी यह खबर से अधिक सोशल मीडिया पर है, और वहां इसे लेकर तरह-तरह की बहस चल रही है।
अब सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उन्हें सार्वजनिक सभ्यता और संस्कृति के कुछ बुनियादी शिष्टाचार मानने भी पड़ते हैं। सुधा मूर्ति किसी वामपंथी विचारधारा की नहीं हैं जो उन्हें संभाजी भिड़े जैसे व्यक्ति के आने पर भी उनसे मिलने से परहेज होना चाहिए, और उम्र का इतना फासला होने पर उन्होंने अगर पैर छू लिए, तो यह भी बहुत बड़ा जुर्म नहीं है। सुधा मूर्ति देश में धर्मनिरपेक्षता की आंदोलनकारी भी नहीं हैं, और अपनी किताबों के मराठी संस्करणों के प्रचार के काम में इस प्रमुख मराठी व्यक्ति से मुलाकात से कुछ फायदा भी हो सकता है। इतना तो हुआ ही है कि इस विवाद के चलते लोगों को उनकी किताबों की कुछ अधिक जानकारी हुई है, और उनके मराठी संस्करणों की खबर भी हुई है। जिस कारोबार में प्रचार की जरूरत होती है वहां शोहरत और बदनामी में अधिक फर्क नहीं होता है, क्योंकि दोनों से ही चर्चा होती है। इसलिए सुधा मूर्ति का एक विवादास्पद बुजुर्ग से मिलना अटपटा नहीं रहा। यह जरूर है कि सोशल मीडिया पर लोग यह पूछने का हक रखते हैं कि सुधा मूर्ति ने भीमा-कोरेगांव हिंसा के मुख्य अभियुक्त संभाजी भिड़े के साथ मुलाकात की अपनी तस्वीर क्यों ट्वीट की?
हम संभाजी भिड़े की सोच और उनके तौर-तरीकों से पूरी असहमति रखते हुए भी इस बात को जायज मानते हैं कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के बीच बातचीत का सिलसिला चलते रहना चाहिए। लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे और गांधी के एक बेटे के बीच इस हत्या के पीछे की सोच को लेकर लंबा पत्र व्यवहार हुआ था, दोनों ने एक-दूसरे से कई बातें पूछी थीं, और कई बातें बताई थीं। लोगों को यह भी याद होगा कि 2008 में प्रियंका गांधी ने तमिलनाडु की वेल्लूर जेल जाकर राजीव गांधी की हत्या की सजा काट रही उम्रकैदी नलिनी से मुलाकात की थी जो कि 26 बरस से जेल में थी। इससे अधिक विपरीत सोच और क्या हो सकती है कि हत्यारे या हत्यारे के परिवार से मृतक के परिवार के लोग बातचीत करें, और एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें। लोकतंत्र का तकाजा यही होता है कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के बीच बातचीत का रिश्ता खत्म नहीं होना चाहिए, फिर चाहे उनमें से एक तबका गांधीवादी अहिंसकों का हो, और दूसरा तबका साम्प्रदायिक संगठनों, या हथियारबंद नक्सलियों का हो। तमाम लोगों के बीच बातचीत जारी रहनी चाहिए, क्योंकि किसी की निंदा या भत्र्सना से उसकी सोच को नहीं बदला जा सकता, बातचीत से ही बदला जा सकता है। सुधा मूर्ति के मन में अगर भिड़े की हिंसक सोच को बदलने की बात भी होगी, तो भी उसके लिए बातचीत ही एक जरिया हो सकता है। प्रियंका गांधी ने जेल में नलिनी से मुलाकात में यही पूछा था कि उनके पिता को क्यों मारा गया, जो भी वजह थी उसे बातचीत से भी सुलझाया जा सकता था। गांधी के बेटे और गोपाल गोडसे के बीच लंबा पत्र व्यवहार हुआ था, और दोनों ने परस्पर सम्मान के साथ एक-दूसरे की सोच को समझने की कोशिश की थी।
इसलिए आज सुधा मूर्ति की एक विवादास्पद आक्रामक हिन्दुत्ववादी बुजुर्ग से मुलाकात को ही आलोचना का सामान बना लेना ठीक नहीं है। वे लिखने-पढऩे वाली महिला हैं, सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाती हैं, और उनसे जगह-जगह इस मुलाकात के बारे में कई सवाल किए जा सकते हैं, लोग सोशल मीडिया पर उनके और उनकी मुलाकात के बारे में लिख भी रहे हैं, और लोकतंत्र में एक-दूसरे को प्रभावित करने का यही जरिया होना चाहिए। अब विचारधारा के आधार पर किसी को अछूत करार देना ठीक नहीं है, किसी के काम अगर उसे अछूत बनाने लायक हैं, तो उन कामों पर उनसे चर्चा होनी चाहिए, और उनकी सोच को बदलने की कोशिश होनी चाहिए। लोगों के पास आज सोशल मीडिया एक बड़ा जरिया है, और उसके इस्तेमाल से कल तक के बेजुबान लोग भी आज अपनी बात दूर-दूर तक पहुंचा सकते हैं। आज लोकतंत्र में तो इतनी गुंजाइश भी है कि ब्रिटेन में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को अपनी सास की इस मुलाकात पर सवालों का सामना करना पड़ सकता है। लोकतंत्र को वैसा ही लचीला रहने देना चाहिए।