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कनक तिवारी लिखते हैं- देशी विदेशी विचारक और उत्तर आधुनिकता
20-Nov-2022 8:50 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- देशी विदेशी विचारक और उत्तर आधुनिकता

  किस्त-9  

गांधी की बौद्धिक शख्सियत के निर्माण की शुरुआत 1888 से समझी जाती है। तब वे कानून के विद्यार्थी की हैसियत से पढऩे के लिए इंग्लैंड गए। उस हैसियत का अहसास 1915 में उनके भारत लौटने पर भारतीयों को हुआ। गांधी ने भूमिका में ही स्वीकार किया है कि उन्होंने इस ‘अदर वेस्ट’ से क्या ग्रहण किया है। उन्होंने कहा ‘जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं। वे मेरी आत्मा में गढ़े-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ  मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढऩे के बाद वे बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उनका इन किताबों ने समर्थन किया।’ इनमें से तॉलस्तॉय को गांधी ने अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार किया है। यह सुखद है कि गांधी ने पुस्तक के मूल गुजराती पाठ का अंग्रेजी अनुवाद खुद ही किया। गांधी की अंग्रेजी भाषा अपनी सादगी, सटीकता, तर्क और प्रत्यक्षता के लिए ईष्र्या का विषय रही है।

गांधी एक मानव आयाम हैं। उनसे वैचारिकता के झुरमुटों में रोषनी अब भी फैल रही है। यह सूत्र स्थिर होता है जब गांधी की करुणाजनित बौद्धिकता को लेकर भारत तथा बाहर हुए अकादेमिक और विश्वविद्यालयीन षोध समीक्षित किए जाते हैं। आशीष नंदी, भीखूभाई पारिख, राघवन, निर्मल वर्मा और सुधीरचंद्र जैसे चुने हुए हिन्दुस्तानी गवेशणाकारों ने महात्मा गांधी की प्रसरणषीलता के हेतु रहे आत्मबिम्बों का मानवीय सरोकारों के साथ परीक्षण किया। इस अर्थ में गांधी के मरने का अब सवाल नहीं है। यही वजह है कि गांधी की मृत्यु के बाद जॉर्ज ऑरवेल और बर्टेऊण्ड रसेल जैसे चिंतकों ने उन पर गंभीर होकर लिखा।

अमेरिका के सुसेन और लॉयड रुडोल्फ  दंपत्ति ने एक दशक से ज्यादा गांधी के राजनीतिक दर्शन और उपलब्धियों को समझने में व्यतीत किया। उनकी महत्वपूर्ण किताब का शीर्षक ही है ‘मॉर्डनिटी ऑफ टेऊडिशन’ अर्थात परंपरा की आधुनिकता। भीखूभाई पारिख ने भी यही कुछ कहते हुए खुलासा किया है कि गांधी ने भारत के अतीत की आध्यात्मिक समझ को धर्म के वितंडावाद और कर्मकांड से अलग कर उसे पश्चिम की आधुनिक भाषा अंगरेजी और बाइबिल की षिक्षाओं के अक्स में सानकर नई रसोई का उत्पाद बनाकर परोसा। कैलगरी विश्वविद्यालय केनेडा के प्रोफेसर एंथोनी जे. पारेल ने ‘हिन्द स्वराज’ के संपादन, आकलन और पुनर्मूल्यांकन को लेकर शायद सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया है। ‘हिन्द स्वराज’ के विश्व प्रसिद्ध टीकाकार एंथोनी पारेल के अनुसार गांधी कथा का उत्कर्ष सत्रहवें अध्याय में है जहां गांधी सत्याग्रह और आत्मबल की आंखों से भारत के सांस्कृतिक इतिहास और तत्कालीन राजनीतिक फलितार्थ को देखते हैं। इसके बरक्स गांधी के अधिकारी विद्वान अद्भुत इतिहासकार और भारतीयत्व के प्रस्तोता धर्मपाल ‘हिन्द स्वराज’ के चौदहवें अध्याय को गांधी कथा की अंतिम उपपत्ति बताते हैं।

मारग्रेट चटर्जी के अनुसार गांधी विचारों का यह बुनियादी दस्तावेज है। बलराम नंदा इसे गांधी विचारों का स्वीकारनामा कहते है। एरिकसन के लिए यह एक आस्थावान घोषणा-पत्र है। डेनिस डॉल्टन के अनुसार यह वैचारिक आजादी की घोषणा के समान है। जुडिथ ब्राउन का कहना है कि यह गांधी की राजनीतिक थ्योरी का एक फलीभूत उत्पाद है। जॉर्ज कैटलिन ‘हिन्द स्वराज’ की तुलना सेंट इग्नेशियस लोयोला की ‘स्पिरिचुअल एक्सरसाइजेज’ से करते हैं। ‘हिन्द स्वराज’ की तुलना नई बाइबिल में सेंट मेथ्यू और सेंट ल्यूक के कथनों से भी की जाती है। गांधी पर तोहमत भी लगाई जाती है कि उनका सिक्का भारत से ज्यादा विदेशों में चलता है। अपने देश में गांधी को समझने, स्वीकारने और विचार करने की वांछित जहमत भारतीयों ने तो उठाई ही नहीं है। 1980 के दशक में गांधी की छबि और प्रतिष्ठा को लेकर भारत में गांधी के पुनर्मूल्यांकन की सघनता दिखाई पड़ी। आशीष नंदी की पुस्तक ‘ऐट द ऐज ऑफ साइकोलाजी: एसेज इन पॉलिटिक्स एण्ड कल्चर’ तथा ‘द इन्टीमेट एनेमी : लॉस एण्ड रिकवरी ऑफ सेल्फ अंडर कोलोनियलिजम’, मकरंद परांजपे की ‘दि कोलोनाइजेशन एण्ड डेवलपमेंट : हिन्द स्वराज रीविजन्ड’, नागेश्वर प्रसाद द्वारा संपादित ‘हिन्द स्वराज: ए फ्रेश लुक’ वगैरह का इस सिलसिले में उल्लेख किया जाना चाहिए। वैसे 1969 में गांधी की जन्मशताब्दी के समय प्राण चोपरा की किताब ‘द सेज इन रिवोल्ट: ए रिमेम्बरेन्स’ बहुत महत्वपूर्ण रही है। 1997 में केनेडा के विद्वान एंथोनी पारेल ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘गांधी, हिन्द स्वराज एण्ड अदर राइटिंग्स’ प्रकाशित कर एक नये विमर्श को अंतरराष्ट्रीय आमंत्रण दिया।

हिन्दुस्तान के बहुत से प्रखर विचारकों ने कभी एक साथ तो कभी अलग अलग उत्तर-आधुनिक युग में गांधी को ढूंढऩे की कोशिशें की हैं। रजनी कोठारी, रामाश्रय रॉय, आशीष नंदी, भीखू पारेख और पार्थ चटर्जी वगैरह ने गांधी का एक उत्तर आधुनिक नवभाष्य पढऩे बल्कि गढऩे की भी अभिनव कोषिषें की हैं।

गांधी के एक बड़े अध्येता भीखू पारेख उनकी कुछ कमियों की ओर भी इशारा करते हैं। उनका तर्क है कि आधुनिक सभ्यता की गांधी-समीक्षा कुछ उपलब्धियों की अनदेखी करती है। उत्तर आधुनिक ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में भी गांधी उल्लेखनीय हैं। एक सदी से ज्यादा पहले लिखी उनकी कृति ‘हिन्द स्वराज’ में की गई पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा आज उत्तर आधुनिकता द्वारा की जा रही सभ्यता-समीक्षा की पूर्वज ही है। स्टीफन टोलमिन अपनी पुस्तक ‘कॉस्मोपोलिस, दी हिडन एजेण्डा ऑफ  माडर्निटी’ में आधुनिक सभ्यता की ऐतिहासिकता की जांच करते हैं। उन्हें आधुनिकता का गर्भगृह देकार्ते के आधुनिक दर्शन, न्यूटन के आधुनिक विज्ञान और होब्स के आधुनिक राज्य सिद्धांत में प्रतीत होता है। अपनी कृति ‘पोस्ट मॉडर्निज्म एंड इट्स क्रिटिक्स’ में जॉन मॅक गोवन भी तो यही पूछते हैं ‘उत्तर आधुनिकता शब्द का अर्थ आखिर क्या है?’

यह सुविधापूर्वक कहा जाता है कि ‘हिन्द स्वराज’ ने पश्चिमी सभ्यता की निर्मम समीक्षा और चुनौती के नवयुग का उद्घाटन किया। इसके बरक्स गांधी खुद कहते हैं कि यह काम तो उनसे पहले तॉल्स्तॉय, जॉन रस्किन, एमर्सन और थोरो वगैरह ने भी किया है। मार्टिन ग्रीन अपनी पुस्तकों में साफ  लिखते हैं कि ऐसा करने में गांधी किसी नवयुग के उद्घाटक नहीं थे क्योंकि तॉल्स्तॉय इस पूरे सभ्यता विमर्र्श को लेकर उनके अगुआ अर्थात वरिष्ठ थे। नंद किशोर आचार्य ‘हिन्द स्वराज’ को समझने के लिए अपनी एक नई तर्कदृष्टि प्रस्तुत करते हैं। ‘हिन्द स्वराज’ को एक किताबी पाठ की तरह समझकर उसके निष्कर्षों को राजनीतिक शब्दावली, प्रयोगधर्मिता और सैद्धांतिक बहस में उलझाकर रखने के बदले आचार्य के अनुसार यह देखना ज्यादा मुनासिब होगा कि जिस भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए गांधी ने उसके नैतिक उत्कर्षों को लेकर दृढ़ मान्यताएं स्थापित की थीं क्या वे भारतीय वंशज गांधी के आकलन के अनुकूल हैं भी या नहीं। कई बार लगता है कार्ल माक्र्स और गांधी में विरोधाभासों के अवयव ऊपरी तौर पर ही वाचाल हैं।

महात्मा के साथ दिक्कत है। उन्हें जब-जब और जितनी दफा पढ़ा जाए, लगता है कोई विचार-दलदल है। वहां से ऊपर आने की कोशिश करना अंदर अंदर धंसते जाने का जतन है।

एक घटना गांधी के जीवन में घटित हुई थी। किल्डोनन कैसल के दक्षिण अफ्रीका पहुंचते पहुंचते अति उत्साह में गांधी के समर्थकों ने दक्षिण अफ्रीका स्थित ‘फीनिक्स आश्रम’ का नाम बदलकर गांधी-आश्रम करने का एक तरह का अभ्यावेदन कर दिया। गांधी को यह स्वाभाविक ही मंजूर ही नहीं हुआ। एक तो गांधी उस अंगरेजी शब्द को अपने नाम की स्थानापन्नता में बदलना ही नहीं चाहते थे। लेकिन उसका निहितार्थ या दार्शनिक पेंच कुछ और था। फीनिक्स पक्षी वही पौराणिक प्रतीक है जो आग में राख हो जाने के बावजूद दुबारा जी उठने की क्षमता लिए हुए होता कहा जाता है। ‘हिन्द स्वराज’ के अर्थ में फीनिक्स शब्द का रूपांतरण इतिहास के शोध का विषय है। ‘हिन्द स्वराज’ गांधी विचार का फीनिक्स आश्रम है। उसमें लगातार आधुनिक सभ्यता की आंच में जलते रहने के बावजूद दुबारा उठ खड़े होने का अंतर्निहित साहस और संकल्प संजोया हुआ है।

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