विचार / लेख

आत्मीयता के आवरण में आतंक
22-Nov-2022 11:10 PM
आत्मीयता के आवरण में आतंक

-चैतन्य नागर

कॉलेज में अध्यापन के दौरान अजीब अनुभव हुआ। एक दिन बी.ए. की दूसरे वर्ष की एक छात्रा अचानक किसी बात पर फूट-फूटकर रोने लगी। सभी सहपाठी परेशान हो गए। बाद में अलग से बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसका बॉय फ्रेंड उसे बहुत पीटता है, एक बार तो उसका हाथ भी तोड़ दिया था। ‘तो फिर तुम उसके साथ क्यों रहती हो?’ इस सवाल के जवाब में वह चुप रही। थोडा रुक कर बोली-‘थोड़ी-बहुत खुशी तो मिलती ही है रिश्ते में’। यह ‘थोड़ी-बहुत खुशी’ रिश्तों में उम्मीद की लौ जगाये रखती है पर साथ भी यह फिक्र भी लगी रहती है कि यदि यह थोड़ी खुशी भी चली गई तो दूसरे किसी रिश्ते में हो सकता है इतनी भी नसीब न हो। इसी उम्मीद और दुश्चिंता के बीच कई रिश्ते डोलते रहते हैं। यदि निर्भरता सिर्फ भावनात्मक हो तो शोषण होता ही है, और यदि आर्थिक और भौतिक हो तो फिर शोषण की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। अलग-अलग किस्म की निर्भरता रिश्तों को व्यक्त और अव्यक्त वेदनाओं से भर देती है। रिश्ते जितने आत्मीय हों, निर्भरता और शोषण की आशंका उतनी ही ज्यादा बढ़ती है।  

जिद्दू कृष्णमूर्ति की दार्शनिक अंतर्दृष्टियों का व्यवहारिक महत्व भी कम नहीं। मानवीय संबंधों के बारे में उनकी दो बातें तो बड़ी ही कीमती हैं- एक तो यह कि संबंधों में कोई सुरक्षा नहीं होती। मनोवैज्ञानिक स्तर पर सुरक्षा जैसी कोई चीज होती ही नहीं। हम इंसानों में, रोमांटिक प्रेम में, चीजों में और विचारधाराओं में समय और ऊर्जा निवेश करते हैं, उनमें सुरक्षा ढूँढते हैं पर वास्तव में ऐसी कोई सुरक्षा होती ही नहीं। दूसरी बात उन्होंने यह कही कि जहाँ भी भावनात्मक या और किसी किस्म की निर्भरता होगी, वहां शोषण जरूर होगा।

दिल्ली में श्रद्धा नाम की युवती और उसके साथ लिव इन में रहने वाले आफताब से जुडी घटनाओं की खबरें चार-पांच दिनों से लगातार सोशल मीडिया और अन्य प्रसार माध्यमों पर ट्रेंड कर रही हैं। मन को व्यथित कर रही हैं। देश के अलग अलग हिस्सों से भी इस तरह की खबरें आ रही हैं। प्रेम संबंधों में पड़ी युवतियों की उनके तथाकथित प्रेमी ही जान ले लेते हैं। यह कैसा प्रेम है? किस आवरण में छिपा है कि युवतियां प्रेम के इस भयावह पहलू को देख भी नहीं पातीं, और रिश्तों में इतनी आगे तक चलती चली जाती हैं कि उनके आशिक उन्हें मौत के घाट भी उतार देते हैं? इन सब खबरों को सुन पढ़ कर बार-बार कई तरह के दुश्चिंताओं से भरा आता है। जिनकी अपनी बेटियां हैं वे ज्यादा परेशान हो रहे हैं। लगभग सभी वर्ग के बच्चे इन दिनों बड़े होकर बड़े शहरों में चले जाते हैं। बड़े शहरों में रहने वाले दूसरे शहरों में चले जाते हैं। एक बार घर से बाहर निकलते ही कई तरह की आजादियाँ तो मिलती हैं, पर उनके साथ उसी अनुपात में जिम्मेदारी का अहसास नहीं आ पाता। कई तरह के प्रलोभन, भौतिक और मानसिक प्लेजर का चौतरफा हमला मन पर होता है। ये बातें लडक़ों और लड़कियों दोनों पर समान रूप से लागू होती है। समाज में हिंसा और साथ ही क्षणिक सुख की खोज इतने बड़े पैमाने पर बढ़ गई है कि अपनी नई आजादी के विस्फोटक उन्माद में बच्चे विवेक खो बैठते हैं। मां बाप की बातें अप्रासंगिक लगती हैं; इंटरनेट की दुनिया और साथी संगी नए अभिभावक बन जाते हैं।  

किसी का साथी बहुत हिंसक और आक्रामक निकल जाए तो दुर्भाग्य की बात तो है ही, पर ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। और जब तक इसका आभास हो, तब तक हो सकता है रिश्ता इतनी आगे तक बढ़ गया हो कि वापस लौटना मुश्किल और जटिल हो जाए। यदि ऐसे में युवक युवतियां मां बाप की इच्छाओं के खिलाफ जाकर साथ रहने या विवाह करने का फैसला करते हैं तो मामला और भी जटिल बन जाता है। क्योंकि एक बार संबंध विफल हुए या उसमें हिंसा का आगमन हुआ, तो फिर खासकर स्त्रियाँ माता पिता का सहारा और समर्थन भी खो बैठती हैं। खासकर तब जब वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हों।  

विवेकपूर्ण होना, समझदारी से काम लेना, घर परिवार के लोगों के साथ कम्युनिकेशन बनाये रखना, वगैरह इस तरह की समस्याओं के कुछ पहलू हैं। पर इनके गहरे पहलू भी हैं। क्या हमें स्कूलों और परिवारों में परतंत्र न रहने की शिक्षा दी जा सकती है? क्या किसी पर भी निर्भर न रहने की शिक्षा दी जा सकती है? क्या हमें भीतर से इतना आजाद रहना सिखाया जा सकता है कि हम किसी को खुद के साथ मानसिक और भौतिक हिंसा करने की इजाजत ही न दें? हादसों की बात अलग है। कोई मानसिक रुग्णता का शिकार हो जाए, यह बात भी अलहदा है। पर आम तौर पर क्या हम खुद यह सीख सकते हैं, और अपने साथ के लोगों को भी सिखा सकते हैं कि किसी भी व्यक्ति, वस्तु पर इतना निर्भर न रहा जाए, कि जाने अनजाने में हम शोषण और आखिरकार भयावह हिंसा तक का शिकार हो जाएं?

भावनात्मक निर्भरता होती क्यों है? अक्सर किसी पर बुरी तरह निर्भर करने वाले लोग खुद को बहुत छोटा, क्षुद्र समझते हैं। उनमे असुरक्षा का गहरा भाव होता है और आत्मविश्वास की कमी होती है। अपने ‘कम होने को’ वह किसी और की मदद से, उसके साथ से पूरा करने की कोशिश करते हैं। पिछले रिश्तों का अनुभव भी इसमें भूमिका निभाता है। कभी-कभी तो यह निर्भरता आजीवन बनी रहती है। असुरक्षित महसूस करने की आदत बन जाती है। किसी के साथ चिपके रहने की भी उतनी ही गहरी आदत बन जाती है। ऐसे लोगों के लिए जरूरी है कि वे व्यक्तिगत विकास पर जोर दें, आत्मविश्वास बनाये रखें। किसी पर इतना अधिक निर्भर न करें, कि अपना आत्मसम्मान खोकर भी उसके सामने प्रेम की भीख मांगनी पड़ जाए। हम भीतर से जितने मजबूत होंगे, बाहरी लोगों और वस्तुओं पर हमारी निर्भरता वैसे ही कम होती जाएगी। आत्मीयता का अपना एक भयावह किस्म का आतंकवाद होता है और यह भले ही छोटे पैमाने पर हो, पर इसकी तीव्रता और वेदना उतनी ही दुखदायी होती है, जितनी कि बड़े पैमाने पर होने वाले आतंकवाद की। इसमें भरोसे की निर्मम हत्या होती है और किसी रिश्ते में भी भरोसे का टूटना कई ऐसे रिश्तों में संदेह के बीज बो देता है जो साफ-सुथरे होते हैं, हिंसा और फरेब की गंदगी से मुक्त होते हैं।    
    
गांधीजी का एक महामंत्र इससे संबंधित ही था। वह कहते थे कि मेरे इजाजत के बगैर कोई अपने गंदे पाँव लेकर मेरी चेतना से होकर नहीं गुजर सकता। श्रद्धा के साथ हुआ वह तो एक भयावह हादसा था और उसके बॉय फ्रेंड ने जो किया वह अक्षम्य है, पर यदि हमारी दूसरों पर निर्भरता कम हो जाए तो जाने अनजाने में होने वाले कई तरह के भावनात्मक, मानसिक और भौतिक रक्तपात से हम स्वयं को बचा सकते हैं। आत्मबल और दृढ़ता के साथ प्रेम करने का अपना अलग सौदर्य है। स्वयं को किसी का गुलाम मान लेना, और किसी को खुद का आका बना लेना, भले ही वह कितना ही निर्दयी क्यों न हो, यह प्रेम नहीं, उसका एक बहुत ही कमजोर और सस्ता रूप है। यह प्रेम न होकर एक तरह का व्यसन बन जाता है।

डिपेंडेंस होने पर प्रेम नहीं बढ़ता। न ही डिपेंडेंस खत्म होने पर प्रेम खत्म होता है। इस बात को मिल बैठ कर खंगाला जाना चाहिए।  

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