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भारत में नारी-हत्या, अभी तो आंकड़े तक सही नहीं हैं
25-Nov-2022 1:09 PM
भारत में नारी-हत्या, अभी तो आंकड़े तक सही नहीं हैं

श्रद्धा की हत्या हो या ऐसे ही दूसरे मामले, भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि उसके अलग-अलग पहलुओं को समझने की जरूरत है. लेकिन शुरुआत तो सही गिनती से करनी होगी.

   डॉयचे वैले पर नेहल जौहरी की रिपोर्ट-

12 नवंबर को खबर आई कि दिल्ली में रहने वाली एक महिला का कथित तौर पर उसके लिव-इन पार्टनर ने बेरहमी से कत्ल कर दिया. पुलिस ने कहा कि कत्ल के बाद शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके दिल्ली में जगह-जगह फेंक दिया गया. दो महीने पहले ही झारखंड में 19 साल की एक लड़की को एक व्यक्ति ने जलाकर मार डाला था. उस घटना के बाद भी बहुत हो-हल्ला हुआ और लोग इंसाफ के लिए सड़कों पर उतर आए थे.

मुंबई स्थित टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की निशी मित्रा ने भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सालाना आंकड़ों को समझने के लिए कई साल तक अध्ययन किया है. हालांकि, आंकड़े इस तरह जमा किए जाते हैं कि कोई यह नहीं जान सकता कि महिलाओं की कितनी हत्याएं हुईं. उन अपराधों को भी सिर्फ हत्याओं के रूप में दर्ज किया जाता है. इसीलिए मित्रा कहती हैं, "आंकड़े सबसे बड़ा मुद्दा हैं. समस्या अब तक भी अदृश्य है.”

मित्रा उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने अपने शोधपत्र में नारी-हत्या (Femicide) शब्द का प्रयोग किया. उन्होंने इस बारे में 2016 में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था. तब इस शब्द की परिभाषा तक स्पष्ट नहीं थी. जब भी पुरुष द्वारा किसी महिला की हत्या की जाए, तो क्या उसे नारी-हत्या कहा जाए? कोई महिला यदि दूसरी महिला की हत्या कर दे, उसे भी क्या नारी-हत्या कहेंगे? क्या हत्या करने की वजह से परिभाषा पर फर्क पड़ना चाहिए? इन सवालों पर भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में ही कोई एक राय नहीं थी.

मित्रा कहती हैं, "इस शब्द का इस्तेमाल इसलिए जरूरी है, क्योंकि उस अपराध को नजरों में लाना जरूरी है, जो न्याय व्यवस्था की आंखों से छिपता रहा है और नारी-हत्या को ठीक से समझा ही नहीं गया. उन जटिल लैंगिक कारकों पर ध्यान नहीं दिया गया, जिनके जरिए हिंसा संस्थागत हो जाती है और छिपी रहती है.”

मार्च 2022 में संयुक्त राष्ट्र ने अपने सदस्य देशों में नारी-हत्या के आंकड़े जमा करने के लिए एक फ्रेमवर्क तैयार किया.

क्या कहते हैं आंकड़े?
भारतीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की जो सालाना रिपोर्ट जारी होती है, उसमें पुलिस द्वारा दर्ज हत्याओं के कारण तो जारी किए जाते हैं, लेकिन यह कहीं स्पष्ट नहीं किया जाता कि महिलाओं को खासतौर पर क्यों मारा गया. इसके अलावा कत्ल कर दी गईं महिलाओं की संख्या रिपोर्ट में दर्ज कुल हत्याओं के आंकड़ों से भी मेल नहीं खाती है. बलात्कार के बाद हत्या, दहेज के कारण हत्या और आत्महत्याओं की संख्या ही कुल हत्याओं से ज्यादा निकलती है. इसकी वजह वे श्रेणियां हैं, जिनमें एक से ज्यादा अपराधों के मामलों को दर्ज किया जाता है.

मित्रा कहती हैं कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि साल दर साल की समरूपता नहीं है. वह बताती हैं, "आंकड़े जमा करने के लिए रिपोर्ट में श्रेणियां हर बार बदल दी जाती हैं. इसलिए इस साल के आंकड़ों की पिछले साल से तुलना ही नहीं कर सकते. उदाहरण के लिए बलात्कार के बाद हत्या की श्रेणी 2017 तक थी ही नहीं, जबकि एनसीआरबी का डेटा 1993 से उपलब्ध है.” वैसे नारी-हत्या को दर्ज नहीं किया जाता, लेकिन महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध हैं.

असम में सबसे ज्यादा हिंसा
एनसीआरबी के मुताबिक पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सबसे ज्यादा मामले दर्ज होते हैं. 2021 में हर दस लाख पर 800 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए, जबकि राष्ट्रीय औसत 282 का है. दिल्ली में यह आंकड़ा 610 का रहा और उसके बाद ओडिशा (685), हरियाणा (563), तेलंगाना (552) और राजस्थान (512) का नंबर है. महिलाओं के खिलाफ सबसे कम अपराध नगालैंड (25), गुजरात (105) और तमिलनाडु (111) में दर्ज किए गए.

नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क (एनईएन) एक समाजसेवी संगठन है, जो कई साल से पूर्वोत्तर में महिला अधिकारों के लिए काम रहा है. संस्था की असम प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर अनुरिता पाठक इन आंकड़ों से जरा भी हैरान नहीं होतीं. वह कहती हैं, "यह तो असली तस्वीर का सिर्फ छोटा सा हिस्सा है. मेरा कहना है कि धरातल के नीचे कहीं ज्यादा मामले हैं. मसलन, वे मामले जो हमारे केंद्र में आते हैं.”

एनईएन ने ग्रामीण महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह बनाई हैं, जिन्हें ग्रामीण महिला केंद्र कहा जाता है. वहां घर या अन्य किसी स्थान पर हिंसा की पीड़ितों को मानसिक देखभाल सामाजिक सेवाएं उपलब्ध कराई जाती है. स्थानीय समुदायों को अपने साथ जोड़कर एनईएन ने बड़ी संख्या में ऐसी महिलाओं तक पहुंचने में कामयाबी पाई है. पाठक बताती हैं कि ये महिलाएं एनसीआरबी के आंकड़ों में नजर नहीं आतीं, क्योंकि इन मामलों को पुलिस स्टेशन नहीं ले जाया जाता और सामुदायिक स्तर पर ही हल कर लिया जाता है.

पाठक कहती हैं, "पीटी गई या शोषण का शिकार हुई हर महिला थाने नहीं जाती है.” पुलिस के पास जाने की यह अनिच्छा ऐतिहासिक है. असम में नस्लीय हिंसा और आपसी संघर्षों का लंबा इतिहास, जिनमें महिलाएं निशाने पर रही हैं. कुछ विशेषज्ञ तो कहते हैं कि उन्हें युद्ध के एक औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है.

पाठक कहती हैं, "एक वक्त था, जबकि सुरक्षा का मतलब होता था कानून-व्यवस्था बनाए रखना. तब राज्य में बहुत सारे संघर्ष एक साथ चल रहे थे. तब लिंग, महिलाओं और सुरक्षा की बात करने वाला कोई था नहीं.”

हाल के सालों में समाजसेवी संगठनों और संयुक्त राष्ट्र के जुगनू क्लबों की कोशिशों का इतना असर हुआ है कि असम में ज्यादा बड़ी संख्या में महिलाएं लिंग-आधारित हिंसा के बारे में अपने अनुभव साझा करने लगी हैं. उनकी कहानियां दिखाती हैं कि जहां हालत पहले ही देश में सबसे खराब है, उस असम में लैंगिक हिंसा के अधिसंख्य मामले तो दर्ज ही नहीं हो रहे हैं.

यह संयोग है कि असम के पड़ोसी राज्य नगालैंड में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सबसे कम मामले दर्ज हुए. हालांकि, एनईएन के मुताबिक जो लोग लैंगिक हिंसा झेलते हैं, वे परंपराओं के बोझ तले दबे रहते हैं.

पाठक बताती हैं, "ये पारंपरिक कानून लिखित नहीं हैं. ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाते रहते हैं. वहां समाज के बड़े-बुजुर्गों की एक संस्था होती है, जिसमें अधिकतर पुरुष ही होते हैं और वे ही मामलों पर फैसले लेते हैं. इसका महिलाओं को बहुत नुकसान होता है.” इस कारण नगालैंड के बारे में एनसीआरबी के आंकड़े भी संदेह के घेरे में आ जाते हैं.

जटिल है समस्या
जिस स्तर पर भारतीय महिलाएं वित्तीय, पेशेवराना और सामाजिक रूप से सशक्त हुई हैं, उनके खिलाफ हिंसा उस दर से कम नहीं हुई है. 2021 में हुआ एक अध्ययन तो कहता है कि जो महिलाएं अपने जीवनसाथी के बराबर या उससे ज्यादा कमाती हैं, उन्हें ज्यादा घरेलू हिंसा झेलनी पड़ती है.

कैंब्रिज विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की अध्यक्ष मनाली देसाई कहती हैं, "एक दुष्चक्र है. लैंगिक हिंसा पितृसत्तात्मक भाव है. यह तो पौरुष का संकट है या फिर आर्थिक असुरक्षा जैसी सफाइयों से ऐसी जटिल प्रक्रियाओं को नहीं सुलझाया जा सकता.”

देसाई ऐसी कई परियोजनाएं चलाती हैं, जिनमें दिल्ली में हिंसा के मामलों की तुलना दक्षिण अफ्रीका में जोहानिसबर्ग के मामलों से की जाती है. उन्होंने पाया है कि तेजी से हुए शहरीकरण और दोनों ही क्षेत्रों में बहुत अधिक हिंसा के बावजूद लैंगिक हिंसा के बारे में हो रही चर्चा एकदम अलग है. वह बताती हैं, "दक्षिण अफ्रीका में हमें ऐसा नहीं लगा कि महिलाओं को हिंसा के बारे में बात करने में दिक्कत है.”

इस संगठन के काम से यह पता चलता है कि भारत में हिंसा के मामलों को दबाया जाना इस समस्या को हल कर पाने के उपायों के नाकाम होने ही एक बड़ी वजह है. इस बात के भी सबूत हैं कि कुछ हद तक हिंसा की स्वीकार्यता है.

ताजा नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे  की रिपोर्ट इसी साल जारी हुई है. यह सर्वे 2019 से 2021 के बीच किया गया था. इसमें लोगों से "पत्नी को पीटने के बारे में” उनकी राय पूछी गई. सर्वे के मुताबिक 45.4 प्रतिशत महिलाओं और 44.2 प्रतिशत पुरुषों ने कहा कि कुछ विशेष कारणों से किसी पुरुष का उसकी पत्नी को पीटना जायज है.

एनसीआरबी के आंकड़े सर्वे के इन नतीजों की पुष्टि करते हैं. घरेलू हिंसा भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का प्रमुख अपराध है. सालाना कुल मामलों में से 35 प्रतिशत घरेलू हिंसा के ही होते हैं.

नारी-हत्या को दर्ज करने की जरूरत
संयुक्त राष्ट्र पूरी दुनिया में नारी-हत्या के मामलों की गिनती का अह्वान कर रहा है लेकिन बहुत से देश उन्हीं चुनौतियों से जूझ रहे हैं जो भारत में देखी जा रही हैं. कई सालों तक आंकड़े ऐसे प्रारूप में दर्ज नहीं किए गए हैं जहां नारी-हत्याओं को गिना जा सके. ऐसे सभी देशों में न्याय व्यवस्था, पुलिस और सरकार में बदलाव की जरूरत है.

मित्री भारत में बदलाव की अगुआई करने की कोशिश कर रही हैं. वह सरकारी एजेंसियों और शोधकर्ताओं के साथ मिलकर नारी-हत्या के मामलों को दर्ज करने की व्यवस्था तैयार करने में जुटी हैं. इस तरह की व्यवस्थाएं इस्राएल, कनाडा और पोलैंड में मौजूद हैं. मित्र कहती हैं कि भारत इन प्रारूपों से सीखकर अपना एक मॉडल तैयार कर सकता है.

वह कहती हैं, "दुनियाभर में हम इस बात को मान रहे हैं कि न्याय व्यवस्था में ऐसे सुधारों की जरूरत है जो महिलाओं के हिंसा से मुक्त जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करे. लेकिन समस्या का विशाल आकार पहला ऐसा मुद्दा है जिस पर बात करने की जरूरत है.” (dw.com)

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