विचार / लेख

आस का धागा तोडऩे का दुख
03-Dec-2022 1:50 PM
आस का धागा तोडऩे का दुख

गैस त्रासदी की बरसी पर

डॉ. परिवेश मिश्रा

एक डॉक्टर के रूप में पहली बार किसी मरीज की मृत्य की आधिकारिक घोषणा करने का क्षण उस डॉक्टर की स्मृतियों में मील के पत्थर की तरह स्थापित हो जाए यह स्वाभाविक है। मरीज अबोध शिशु हो, डॉक्टर असहाय खड़े उसे मौत के मुंह में जाते देख रहा हो, चिकित्सीय सहायता तो दूर, डॉक्टर को उस क्षण तक मरीज की बीमारी भी समझ में न आयी हो तो उसके बाकी जीवन में यह स्मृति कितनी पीड़ादायक हो जाती है, इसे मैं समझता हूं। मेरे साथ यह आज ही के दिन हुआ था। अड़तीस वर्ष पहले मैं ही वह डॉक्टर था।

उस दिन की शुरुआत तब हो गयी थी जब रात पूरी बीती नहीं थी। कोई साढ़े तीन - चार बजे जब लगातार होती खटखटाहट ने मुझे नींद से निकल कर दरवाजा खोलने पर मजबूर किया था।

मैं उन दिनों गांधी मेडिकल कॉलेज के एक हॉस्टल में रहता था। कॉलेज के ही कुछ वरिष्ठ प्रोफेसर इन हॉस्टलों के वार्डन थे। किन्तु सिर्फ नाम के। परम्परा रही कि अपने अपने विभाग के किसी डिमॉन्स्ट्रेटर या पी.जी. कर रहे विद्यार्थी को असिस्टेंट वॉर्डन के पद के साथ जिम्मेदारियां सौंपकर सीनियर प्रोफेसर अस्पताल और कॉलेज के अपने काम में व्यस्त हो जाते थे। इनमें से 'ई' ब्लॉक होस्टल इन्टर्नशिप और हाऊस जॉब कर रहे युवा डॉक्टरों के लिए था। रेडियोलॉजी के विभागाध्यक्ष इस हॉस्टल के वॉर्डन थे और चूंकि मैं उनके विभाग में एम.डी. के विद्यार्थी के रूप में अपने टर्म के अन्त के करीब था सो असिस्टेंट वॉर्डन होने के धर्म का निर्वाह कर रहा था।

किन्तु यह सुबह अप्रत्याशित थी। दरवाज़ा खोला तो सामने डॉ. ओ. पी. शर्मा सर को खड़े पाया था। डॉ. ओ. पी. शर्मा ऑर्थोपीडिक्स के विभागाध्यक्ष होने के साथ साथ कॉलेज के डीन भी थे। उन्हें कमरे के सामने देख कर पहले कुछ क्षण शांत खड़े रह कर में मैंने सुनिश्चित किया कि मैं नींद से पूरी तरह बाहर आ चुका हूं। किसी प्रोफेसर को किसी होस्टल में इससे पहले मैंने कभी नहीं देखा था। दिन में भी नहीं।

डॉ. शर्मा का चेहरा बता रहा था कि बात कुछ गंभीर है। उन्होंने उस समय केवल इतना ही कहा कि एक मेजर एमर्जेंसी आन पड़ी है। मरीज अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं और डॉक्टर कम पड़ गये हैं। उन्हे वॉलेन्टियर डॉक्टरों की सख्त जरूरत हैं। उन्होंने मुझे जिम्मा दिया कि सभी कमरों से सोते हुओं को नींद से उठाकर शीघ्र अस्पताल पहुंचूं। अस्पताल याने हमीदिया अस्पताल जो कि हमारे कॉलेज का संबद्ध अस्पताल था।

होस्टल से निकल कर कॉलेज बिल्डिंग पार कर अस्पताल की ओर जाने की दिशा में ढाल है। एक लम्बा कॉरीडोर था जो लगभग पूरे अस्पताल से गुजऱता हुआ दूर तक जाता था। डॉक्टर और मरीज इसी कॉरीडोर का उपयोग करते थे। भवन के बाहर और इस गलियारे के समानांतर एक पक्की सडक़ थी।

उस दिन मेरे पंहुचने तक कॉरीडोर में चलने फिरने की जगह नहीं बची थी इसलिए सडक़ की ओर से आगे पंहुचने का प्रयास किया लेकिन उसमें भी सफलता नहीं मिली। पूरी सडक़ बदहवास लोगों की भीड़ से पटी थी। सडक़ पर लोग जमीन पर लेटे भी थे, बैठे भी थे। मैं आगे बढ़ पाता उसके पहले गोद में एक दो साल के बच्चे को लिए एक व्यक्ति सामने आ गया। साथ में एक महिला थी जो शायद बच्चे की माँ थी। पिता की गोद में बच्चा शांत लेटा था और माँ उसकी आँखों में आई-ड्रॉप्स जैसा कुछ डालते जा रही थी। पिता ने मुझे रोक कर बच्चे की जांच करने का आग्रह किया।

उस रात लगभग डेढ़ बजे भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से एक जहरीला गैस लीक हुई थी। कड़ाके की ठंड की उस रात जब सांस लेने में तकलीफ शुरू हुई तो लोगों ने घरों से निकल कर भागना शुरू किया। देखते देखते कोई दो लाख लोग अपने घरों को छोड़ भाग चुके थे। मेरे हॉस्टल के आस-पास रहने वाले भी प्रभावित हुए थे किन्तु उनके बीच हमारे अपेक्षाकृत कम प्रभावित होने का एक कारण था कड़ाके की ठंड। हॉस्टल में रहने वाले युवा छात्र रजाईयां खरीदने में पैसा खर्च करने की अपेक्षा खिड़कियां पूरी तरह से बंद कर इलेक्ट्रिक हीटर से कमरे को गर्म रखने में अधिक विश्वास करते थे (हॉस्टल में बिजली का बिल किसी छात्र से नहीं वसूला जाता था)। बंद खिड़कियों ने हमें गैस से बचाने में मदद की।

घटना के दो तीन घंटों तक किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हुआ है और आगे क्या करना है। गैस छूटी है - हवा में बस यही शब्द थे जो तैर रहे थे। गैस कौन सी है और उसकी केमिस्ट्री या एन्टीडोट क्या है इसके बारे में सिर्फ अटकलें थीं। उस समय तक अस्पताल में मरीजों की बाढ़ आना बस शुरू ही हुई थी। जो शुरुआती मरीज आए उनमें लगभग सभी ने आंखों में तेज जलन की शिकायत की थी और तत्काल अस्पताल की ओर से उन्हे आई-ड्रॉप्स दे दिये गये थे। सांस फूलने की शिकायत भी थी लेकिन चूंकि लोग मीलों दूर से दोड़ते भागते आ रहे थे इसलिए किसी संभावित मेडिकल समस्या के रूप में अनेक लोगों का इस तकलीफ की ओर ध्यान नहीं गया। पहले वॉर्ड भरे, फिर गलियारे और मेरे पंहुचने तक मरीज सडक़ पर काबिज होने लगे थे।

उन्ही के बीच यह बच्चा भी था। मेरा हाथ बच्चे की नब्ज़ तक जाता उसके पहले मैने पाया मैं गोद में बच्चे लिए तीन या चार माता-पिता से घिर चुका हूं।

पिता शायद जानता था कि उसकी गोद में जिस बच्चे की आंख में माँ आई-ड्रॉप्स डाले जा रही थी वह बच्चा कब का दम तोड़ चुका था। फिर भी एक डॉक्टर की पुष्टि के बिना शायद वह भी आस नहीं छोडऩा चाहता था। उनकी आस का धागा तोडऩे का दुख मेरे भाग्य में लिखा था।

(बाद में पता चला भोपाल में उस रात (3 दिसम्बर 1984) यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से मीथाईल आईसोसायनेट या रूढ्ढष्ट नामक अत्यधिक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ था। पांच लाख लोग इससे प्रभावित हुए। लगभग 2400 मौतें तत्काल हुईं और हज़ारों कुछ समय के बाद। गैस के अनुवांशिक प्रभावों का कष्ट बाद की पीढिय़ों ने भी झेला है।)

 

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