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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिल्ली म्युनिसिपल पर झाड़ू, बाकी म्युनिसिपल भी जागें..
07-Dec-2022 3:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  दिल्ली म्युनिसिपल पर झाड़ू, बाकी म्युनिसिपल भी जागें..

कुछ महीने पहले जब केन्द्र सरकार ने दिल्ली की तीनों म्युनिसिपलों को मिलाकर एक किया था, तो उसे दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार के मुकाबले एक चुनौती खड़ी करने का काम माना गया था। इन तीनों म्युनिसिपलों के जो ढाई सौ वार्ड आज मतगणना देख रहे हैं, वे मिलाकर राज्य सरकार सरीखी एक ताकतवर संस्था बनाने जा रहे हैं। अभी तक की मतगणना में आम आदमी पार्टी पर्याप्त आगे चलते दिख रही है, जिस केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली प्रदेश के बहुत से काम होते हैं, उसकी सत्तारूढ़ भाजपा एक्जिट पोल के नतीजों को शिकस्त देकर आप के पीछे-पीछे चल रही है। दोनों के बीच फासला काफी है, लेकिन उतना भी नहीं जितना कि तमाम एक्जिट पोल बतला रहे थे। अभी कुछ और घंटे की मतगणना यह तय करेगी कि म्युनिसिपल पर किसका राज रहेगा, लेकिन एक बात तो तय है कि सत्ता की इन सतहों पर अगर अलग-अलग पार्टियों का राज रहता है, तो टकराव के बावजूद लोकतंत्र की एक विविधता दिखती है। केन्द्र सरकार ने दिल्ली प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा कभी नहीं दिया, दिल्ली के दो बार के निर्वाचित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी का केन्द्र सरकार से लगातार टकराव चलते रहा, लेकिन केजरीवाल ने दिल्ली में स्थानीय प्रशासन के कुछ नए तरीके सामने रखे, और उन्हीं की कामयाबी गिनाते हुए वे पंजाब प्रदेश जीतने वाले बने। दिल्ली में उनके किए काम सीमित किस्म के थे, लेकिन उन्होंने यह भी साबित किया कि एक राज्य को किस तरह, म्युनिसिपल की तरह कैसे चलाया जा सकता है। और अब जब म्युनिसिपल पर उनकी पार्टी काबिज होते दिखती है, तो इसके पीछे दिल्ली सरकार में उनका कामकाज शायद सबसे बड़ा मुद्दा रहा होगा। 

वैसे तो पूरे हिन्दुस्तान में लोकतांत्रिक सरकार के तीन स्तर तय हैं। संसद से बनी केन्द्र सरकार, विधानसभा से बनी राज्य सरकार, और शहर या गांवों के स्थानीय वोटों से बनी म्युनिसिपल या पंचायत सरकार। इनमें दिल्ली का मामला सबसे अटपटा इसलिए है कि दिल्ली की पुलिस, वहां की जमीन, और कुछ दूसरे विभाग प्रदेश सरकार के मातहत नहीं आते, वे केन्द्र सरकार के तहत ही काम करते हैं। ऐसे में राज्य सरकार के पास अपना काम दिखाने का मौका स्कूलों और मुहल्ला क्लीनिक तक सीमित था, और केजरीवाल सरीखे अफसर जैसे काम करने वाले निर्वाचित मुख्यमंत्री को भी यह ठीक लगता था, क्योंकि वे दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह देश की राजनीति में हिस्सा लेना नहीं चाहते थे। वे आखिर प्रदेशों में चुनाव लडऩे के लिए गए, पंजाब को जीता भी, लेकिन उन्होंने देश के जलते-सुलगते सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर कुछ बोलने से कतराना जारी रखा। उन्होंने एक म्युनिसिपल कमिश्नर की तरह स्थानीय विकास के पैमाने पर दिल्ली को कामयाब साबित किया, और अब वही कामयाबी दिल्ली के म्युनिसिपल चुनाव में उनके काम आ रही है। अगर मतगणना का यह रूझान जारी रहता है, तो दिल्ली की स्थानीय राजनीति में भाजपा और कांग्रेस का दखल घटेगा, और केजरीवाल प्रदेश सरकार से लेकर म्युनिसिपल तक अपना काम और दिखा पाएंगे। 

लेकिन इतनी बातचीत के आगे हम आज की इस चर्चा को दिल्ली से बाहर भी निकालना चाहते हैं, और यह देखना चाहते हैं कि देश के बाकी हिस्सों में राज्य सरकार और म्युनिसिपलों या पंचायतों के बीच अलग-अलग पार्टियों का राज रहने से संबंध किस तरह के रह पाते हैं। आज ही छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख जिले राजनांदगांव की खबर है कि वहां एक पखवाड़े से म्युनिसिपल कर्मचारियों के मोबाइल रिचार्ज नहीं हो पाए हैं, और बड़ी दिक्कत हो रही है। अब यह नौबत खतरनाक है कि एक तरफ तो राज्य सरकार प्रदेश स्तर पर बड़ी-बड़ी योजनाएं घोषित कर रही है, राजधानी रायपुर का म्युनिसिपल सैकड़ों करोड़ रूपये की फिजूलखर्ची की तोहमतों से घिरा हुआ है, एक जिला मुख्यालय का म्युनिसिपल अपने मोबाइल भी रिचार्ज नहीं करवा पा रहा है। ऐसा बहुत सी जगहों पर होता है कि राज्य में सरकार एक पार्टी की है, और म्युनिसिपल या जिला पंचायत में किसी दूसरी पार्टी का बहुमत है। ऐसे में कई जगह राज्य सरकार अपने को नापसंद पार्टी के नेताओं के लिए दिक्कत भी खड़े करती रहती है, लेकिन जहां पर ये दोनों ही सरकारें एक ही पार्टी की रहती हैं, वहां पर एक मिलीजुली साजिश की तरह ये गिरोहबंदी से काम करती हैं, और बहुत किस्म के गलत काम होते हैं। लोकतंत्र में एक ही पार्टी के राज का यह सिलसिला कोई अनिवार्य शर्त नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसी का दूसरा रूप फिर यह हो जाएगा कि प्रदेश में उसी पार्टी का राज रहना चाहिए जिसका राज देश पर है। ऐसे में लोकतंत्र की विविधता खत्म हो जाएगी, और रूस या चीन की तरह का एक पार्टी का राज कायम हो जाएगा। लोकतंत्र के विकास के लिए चेक और बेलैंस की यह व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। 

एक तरफ आम आदमी पार्टी को दिल्ली प्रदेश सरकार चलाने का नफा या नुकसान दिल्ली म्युनिसिपल चुनाव में मिलेगा, दूसरी तरफ केन्द्र पर सत्तारूढ़ भाजपा के हाथ उसके कब्जे की तिहाड़ जेल से निकले हुए वे तमाम वीडियो थे जो कि ईडी द्वारा बंद किए गए केजरीवाल के मंत्री को मिल रही सहूलियत दिखा रहे थे। केन्द्र सरकार के ये गोपनीय वीडियो दिल्ली में म्युनिसिपल पर सत्तारूढ़ भाजपा के चुनाव प्रचार के सबसे ताकतवर वीडियो माने जा रहे थे, लेकिन वे भी काम नहीं आए, और भाजपा वार्डों को बहुत बुरी रफ्तार से खो रही है। अभी तक के आंकड़ों से यह साफ है कि आम आदमी पार्टी का मेयर दिल्ली पर काबिज होने जा रहा है, और अब केन्द्र के भाजपा नेताओं के मुकाबले दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ म्युनिसिपल मेयर का एक और सत्ता केन्द्र खड़ा हो जाएगा। 

अब इस मुद्दे पर चूंकि लिखा ही जा रहा है, इसलिए कांग्रेस के बारे में भी यह लिख देना ठीक है कि लंबे समय तक दिल्ली का मुख्यमंत्री रखने वाली कांग्रेस पार्टी दिल्ली म्युनिसिपल में भी मटियामेट है, और वह जितने वार्ड पाते दिख रही है, उससे दुगुने वार्ड वह इस चुनाव में खो भी रही है। भारत जोड़ो पदयात्रा पूरी होने के बाद कांग्रेस पार्टी को एक अलग अभियान अपनी पार्टी को जोडऩे का भी चलाना पड़ेगा क्योंकि राजनीतिक दल को महज जनसंगठन की तरह तो चलाया नहीं जा सकता, उसे चुनावी राजनीति में भी अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा। आज दिल्ली के स्थानीय चुनाव पर लिखने की जरूरत इसलिए हुई कि भाजपा ने यहां चुनाव प्रचार में अपने आधा दर्जन मुख्यमंत्रियों को झोंक दिया था, केन्द्रीय मंत्री गली-गली घूम रहे थे, और भाजपा ने इसे अपने अस्तित्व की लड़ाई मानकर लड़ा था। जब पार्टी अपनी इतनी साख दांव पर लगा देती है, तो उसकी शिकस्त भी अहमियत रखती है। भाजपा की शिकस्त की यह अहमियत उसे लंबे समय तक परेशान करेगी। इसकी एक वजह वहां यह बताई जा रही है कि निर्वाचित पार्षद बहुत बुरी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं, उनके चुने गए महापौर भी भ्रष्ट हो जाते हैं, इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी म्युनिसिपलों को आमतौर पर हारती है। इस बात को देश भर में हर म्युनिसिपल पर सत्तारूढ़ पार्टी को समझ लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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