संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कोटा कोचिंग कारखानों में एक दिन में तीन छात्रों की आत्महत्याओं से तो जागें!
13-Dec-2022 2:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :     कोटा कोचिंग कारखानों में  एक दिन में तीन छात्रों की  आत्महत्याओं से तो जागें!

राजस्थान के कोटा में संपन्न बच्चों को ऊंची पढ़ाई के दाखिला इम्तिहान के लिए तैयार करने के कारखाने चलते हैं। इन कारखानों का हाल किसी औद्योगिक शहर के इंडस्ट्रियल एरिया जैसा है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट की ऊंची पढ़ाई के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले का इम्तिहान होता है, और उसके लिए तैयारी करवाते हुए तीन से लेकर पांच बरस तक इस शहर में बच्चों के तन-मन, दिल-दिमाग का तेल निकाल दिया जाता है। कोचिंग सेंटर हॉस्टल भी चलाते हैं, ऐसी स्कूलें भी चलाते हैं जहां अपने बच्चों को फर्जी हाजिरी देकर स्कूल की इम्तिहान भी साथ-साथ पास करा दी जाए। जिस तरह किसी हिन्दू तीर्थस्थान में पंडे पूजा-पाठ, पिंडदान से लेकर दूसरी कई किस्म की पूजाओं तक के सामान तैयार रखते हैं, जजमान को ठहरा भी देते हैं, उनका रिजर्वेशन भी करा देते हैं, ठीक उसी तरह राजस्थान के कोटा में कोचिंग उद्योग चलता है जो कि मां-बाप की हसरतों को पूरा करने का तीर्थस्थान सरीखा है, और यहां पर हर बरस जाने कितने ही बच्चे आत्महत्याएं करते हैं। अभी इस पर लिखने की जरूरत इसलिए हुई कि कल ही कोटा में कोचिंग पा रहे तीन अलग-अलग लडक़ों ने अलग-अलग आत्महत्याएं की हैं। एक दिन में तीन लाशों ने लोगों को कुछ दिनों के लिए हिलाया होगा, और इसके बाद हिन्दुस्तानी मां-बाप अपने बच्चों की जिंदगी हलाकान करने में लग जाएंगे। रोज फोन करके उनसे पढ़ाई, कोचिंग, और तैयारी पूछेंगे, और उन्हें याद दिलाते रहेंगे कि मां-बाप की हसरत पूरी करना अब उन्हीं के ऊपर है। नतीजा यह होता है कि कारखानों की फौलादी मशीनों में कच्चा माल डालकर फिनिश्ड प्रोडक्ट निकालने के अंदाज में जब बच्चों को झोंका जाता है, तो उनमें से कई लोग इस तनाव को नहीं झेल पाते। लोगों को यह भी याद होगा कि आईआईटी में दाखिला पा लेने के बाद भी हर बरस वहां कई छात्र आत्महत्याएं कर लेते हैं क्योंकि वे पढ़ाई के उस स्तर के दबाव को नहीं झेल पाते।

हिन्दुस्तान में छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की जिम्मेदारी मोटेतौर पर मां-बाप की होती है जो कि अपनी हसरतों को औलाद की हकीकत बनाने पर उतारू रहती हैं। कई परिवारों में मां-बाप गोद में खेलते अपने बच्चों का भविष्य तय करने लगते हैं कि उनमें से कौन इंजीनियर बनेगा, और किसे सीए बनाया जाएगा। देश में कुल मिलाकर चार या पांच ऐसे कोर्स हैं जिनके लिए मां-बाप में दीवानगी भरी हुई है, और इनमें से भी मर्जी से किसी एक को छांटने की छूट बच्चों को नहीं मिलती है, उन्हें मां-बाप मार-मारकर उस सांचे में ढालना चाहते हैं जो कि उन्हें पसंद है। लोगों ने चीन की कई तस्वीरों को देखा होगा जिनमें नाशपाती जैसे फल पेड़ों पर लगे हुए ही प्लास्टिक के सांचों में बंद कर दिए जाते हैं, और वे वहां से बुद्ध प्रतिमा के आकार में ढलकर ही पकते हैं। आम हिन्दुस्तानी मां-बाप की हसरतों का हाल कुछ ऐसा ही रहता है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहती कि दुनिया में आगे किस-किस तरह के पेशों की संभावनाएं हैं, उनके अपने बच्चों की दिलचस्पी क्या पढऩे में है। शायद ही ऐसे कोई मां-बाप होंगे जिन्होंने अपने बच्चों को दुनिया के हजारों किस्म के पेशों में से कुछ दर्जन से भी सामना करवाया हो, उनके लायक पढ़ाई की विविधता को बताया हो। लोग अपने पड़ोस और रिश्तेदार, दफ्तर और जान-पहचान के दूसरे लोगों की पसंद, और उनके बच्चों की कामयाबी की कहानियां सुनकर अपने बच्चों को इन गिनी-चुनी चार-छह किस्म की पढ़ाई में से अपनी पसंद की किसी एक में झोंक देने के लिए जान लगा देते हैं। यही वजह रहती है कि बचपन से मां-बाप की हसरतें सुनते हुए बच्चे इस तनाव में रहते हैं कि उन्हें मां-बाप के सपनों को पूरा करना है। और फिर इन सपनों के कारखाने में जब कच्चेमाल की तरह उन्हें भेजा जाता है, तो वे पारिवारिक सम्मान के चलते उन्हें मना भी नहीं कर पाते, कारखाने की फौलादी मशीनों के दबाव को झेल भी नहीं पाते, और उनकी कुंठा, उनके तनाव का अहसास भी परिवार और समाज को तब होता है जब उनका पोस्टमार्टम होता है। मरने के पहले कोई अवसाद, कोई निराशा, खबर नहीं बन पाते, और मौतें गिनती में उतनी अधिक नहीं रहतीं कि ऐसे इंडस्ट्रियल एरिया पर देश रोक लगा दे। जीते जी ही बच्चे मर जाते हैं, टूट जाते हैं, और जिंदगी में अपनी पसंद की किसी कामयाबी के लायक भी नहीं रह जाते।

हिन्दुस्तानी मां-बाप जिस तरह अपने बच्चों पर उनके जीवनसाथी थोपने के आदी हैं, ठीक उसी तरह वे अपने बच्चों पर अपनी पसंद की पढ़ाई थोपने के आदी हैं। बच्चों को कभी बड़ा होने ही नहीं दिया जाता, और उनकी संभावनाओं को कोई मौका नहीं दिया जाता। यह सिलसिला उस वक्त भी जारी रहता है जब शादी के बाद बच्चे मां-बाप के साथ रहने लगते हैं, उस वक्त भी बहुएं कौन से कपड़े पहनें, कब और कितने बच्चे पैदा करें, बाहर नौकरी करें या न करें, जैसे तमाम फैसले घर के बुजुर्ग लेते रहते हैं। सच तो यह है कि हिन्दुस्तानी बच्चे कभी बड़े हो ही नहीं पाते, उन्हें बोन्सई पेड़ों की तरह बौना ही रखा जाता है, और अनगिनत मां-बाप ऐसे हंै जो अपने बच्चों को बिना किसी काम किए हुए, बूढ़े हो जाने तक उनका बोझ उठाने को भी तैयार रहते हैं अगर वे बच्चे दूसरे देश-परदेस जाने के बजाय उनके साथ गांव-कस्बे में रहने को तैयार हों।

हिन्दुस्तानी मां-बाप की हसरत कभी पूरी होती ही नहीं है। वे ताकत रहने पर बच्चों के मन, और कभी-कभी तन को भी मरने देने के लिए कोटा भेज देते हैं। उन्हें अपनी पसंद के पेशे या कारोबार में झोंक देते हैं। उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में, एक जिंदा इंसान के रूप में कभी आगे बढऩे ही नहीं देते। यह पूरा सिलसिला हिन्दुस्तान को एक औसत दर्जे का देश बनाकर छोड़ रहा है। यहां के गिने-चुने उच्च शिक्षा के संस्थानों को छोड़ दें, तो बाकी हिन्दुस्तान की पढ़ाई-लिखाई, और पेशों की खूबियां बहुत ही औसत दर्जे की हैं। जेएनयू जैसे किसी संस्थान में अगर विश्वस्तर की पढ़ाई हो रही है, तो उसे साम्प्रदायिक विचारधारा के बुलडोजर से गिरा देने पर बरसों से सरकार आमादा है। बड़ी तनख्वाह वाले चार-पांच पेशों की पढ़ाई से परे अगर सामाजिक विज्ञान और उससे जुड़े बहुत से दूसरे विषयों में जेएनयू की पढ़ाई होती है, तो देश की साम्प्रदायिक विचारधारा उसे बुढ़ापे तक करदाताओं के पैसों पर पलना कहती है। उत्कृष्ट पढ़ाई के लिए ऐसी हिकारत ने देश में पेशेवर पढ़ाई के अलावा दूसरे पाठ्यक्रमों के लिए कोई सम्मान भी नहीं छोड़ा है, और औसत मां-बाप इसी माहौल के झांसे में अपने बच्चों को गिने-चुने कोर्स में झोंकते हैं।

कोटा में कल की तीन आत्महत्याओं को लेकर देश की सरकारों को भी यह सोचना चाहिए कि किस तरह स्कूली पढ़ाई के बाद बच्चों के रूझान को आंकने का कोई इंतजाम होना चाहिए ताकि उनकी निजी पसंद और उनकी क्षमता का कोई व्यावहारिक मेल सामने रखा जा सके। बच्चों के सामने तरह-तरह के विकल्प रखे जाने चाहिए, और विविधता को जिंदा रखने की कोशिश करनी चाहिए, विविधता को भी, और बच्चों को भी। स्कूल के बाद कॉलेज में किस तरह की पढ़ाई करनी है, या पढ़ाई के अलावा कुछ और करना है, यह विचार-विमर्श और संभावना-दर्शन (मार्गदर्शन नहीं) का इंतजाम किया जाना चाहिए। जो बच्चे दाखिले की ऐसी तैयारियों से जिंदा निकल जाते हैं, और आईआईटी जैसी पढ़ाई से भी जिंदा निकल जाते हैं, उनमें से कितनों की खूबियां दम तोड़ चुकी रहती हैं, इसका अंदाज लगाना न आसान है न मुमकिन है।

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