संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सामाजिक वर्जनाएं किसी तरह हिफाजत की गारंटी नहीं, सेफ्टी वॉल्व जरूरी
24-Dec-2022 3:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सामाजिक वर्जनाएं किसी   तरह हिफाजत की गारंटी नहीं, सेफ्टी वॉल्व जरूरी

रूस के एक सैनिक की बीवी को दुनिया के ऐसे मुजरिमों की लिस्ट में जोड़ा गया है जिनकी किसी जुर्म के लिए तलाश है। इस महिला ने यूक्रेन के मोर्चे पर लड़ रहे अपने पति को फोन पर कहा था कि वहां जो यूक्रेनी महिलाएं हैं उनसे बलात्कार करना, लेकिन लौटकर कुछ मत बताना। इस पर उसका पति और खुलासे से पूछता है, तो वह इसी बात को दुहराती है और कहती है कि बस इतना ध्यान रखना कि कंडोम का इस्तेमाल करना। जब इस टेलीफोन कॉल को यूक्रेन की सुरक्षा एजेंसी ने इंटरसेप्ट किया तब यह सैनिक यूक्रेनी जमीन पर था, और बाद में इनके टेलीफोन नंबरों से इनकी शिनाख्त की गई, आवाज का मिलान किया गया, इनके सोशल मीडिया अकाऊंट देखे गए, और इसकी पुख्ता खबर भी बनी। इस जोड़े का चार बरस का एक बेटा भी है। जब इनकी शिनाख्त के साथ खबरें चारों तरफ फैलीं तो इस महिला ने अपना सोशल मीडिया अकाऊंट डिलीट कर दिया। दुनिया भर की जंग में यह बात बहुत अटपटी नहीं है कि फौजी दुश्मन देश में महिलाओं और बच्चों के हाथ लग जाने पर उनसे बलात्कार करें, लेकिन अगर किसी फौजी की महिला उसे ऐसा जुर्म करने के लिए कहती है, तो यह उसके खिलाफ भी कार्रवाई की वजह तो बनती है। लोगों को याद होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की एक बड़ी अधिकारी ने कुछ अरसा पहले यह कहा था कि यूक्रेन के मोर्चे पर जाने वाले  रूसी सैनिकों को उत्तेजना बढ़ाने वाली वियाग्रा नाम की दवाई दी जा रही है जिससे कि वे यूक्रेनी महिलाओं से बलात्कार कर सकें। 

दुनिया की सरकारें तो कई किस्म के अमानवीय काम कर सकती हैं क्योंकि वे एक इंसान की तरह नहीं सोचतीं, लेकिन जब इंसान इस तरह की हरकतें करने लगते हैं कि उन्हें देखते हुए इंसानियत शब्द की परिभाषा को ही बदलने की जरूरत लगने लगे, तो फिर यह सोचना पड़ता है कि इंसानों के भीतर ही वह तथाकथित हैवान छुपा रहता है जिसे इंसान अपने जुर्म छुपाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। तमाम किस्म के जुर्म और जुल्म करते तो इंसान ही हैं, लेकिन ये इसकी तोहमत ऐसी हैवानियत पर मढ़ देते हैं जो कि मानो इंसानों से परे की कुछ हो। नतीजा यह होता है कि इंसानियत शब्द जरूरत से अधिक सकारात्मक बने रहता है, और ऐसा लगता है कि इंसान के भीतर कुछ बुरा नहीं रहता, और जो बुरा रहता है वह इंसान से परे का एक हैवान रहता है। यह बात कुछ वैसी ही है कि इंसान का बायां हाथ बलात्कारी हो जाए, और दायां हाथ सज्जन बना रहे। 

आज जब हम यह लिख रहे हैं उसी समय बिलासपुर का एक मामला सामने आया है जिसमें 9 साल की एक बच्ची से दो महीने पहले पिता द्वारा बलात्कार करने की रिपोर्ट लिखाई गई। एफआईआर उसी वक्त हो गई, लेकिन बाल कल्याण समिति ने लंबे समय तक इस बच्ची का अदालती बयान नहीं करवाया, इस बच्ची को उसकी मां की हवाले नहीं कर रहे, और बाल कल्याण समिति के बारे में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा है कि वह पूरी तरह से बलात्कारी पिता को बचाने में लगी हुई है, और इस चक्कर में वह बच्ची को मां के पास नहीं जाने दे रही। इसी बिलासपुर में अभी हफ्ते-दस दिन पहले दिनदहाड़े सडक़ पर एक कत्ल हुआ जिसे पुलिस ने आनन-फानन सुलझा भी लिया। इसमें बाप और भाई ने बाकी परिवार के साथ मिलकर एक बेटे का कत्ल करवा दिया, और पूरे परिवार ने इसकी साजिश बनाई, कत्ल के बाद लोगों को छुपाने का काम किया। इसी कत्ल के सिलसिले में यह बात भी सामने आई कि बाप ने एक बच्ची को गोद लिया हुआ था, और अब वह बड़ी महिला है, जिसके साथ बाप-बेटे दोनों बलात्कार करते आए थे, और उससे अवैध संबंध बनाकर रखा था। एक परिवार के भीतर ही इतने किस्म के जुर्म, इतने किस्म की अनैतिक और वर्जित बातें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या ऐसे परिवारों के भीतर इंसानियत कही जाने वाली कुछ बातें भी लागू होती हैं, या नहीं? 

हर दिन कोई न कोई ऐसी वारदात सामने आ रही है जिसमें पति-पत्नी, या प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे का कत्ल कर रहे हैं, या करवा रहे हैं। और यह भी किसी क्षणिक उत्तेजना में कर दिया गया जुर्म न होकर ऐसी लंबी-चौड़ी साजिश के तहत किए गए जुर्म हैं जिनसे कि अपराध कथाओं के आदी पाठकों के भी दिल हिल जाएं। जबकि समाज की हकीकत यह है कि वह अपने बनाए गए रीति-रिवाजों को हकीकत में अमल होते मान लेता है, और उसने सामाजिक-पारिवारिक बचाव के बहुत ही कम तरीके लागू किए हैं। अनगिनत परिवारों में बाप ही बेटी से बलात्कार करते हैं, जिनमें से गिने-चुने मामले ही पुलिस तक पहुंचते हैं क्योंकि अधिकतर मामलों में बाप घर का कमाऊ सदस्य होता है, और उसे जेल भिजवाकर बाकी परिवार के भूखे मर जाने की नौबत आ जाएगी। इसके अलावा बाकी परिवार बेहिसाब दबाव डालते रहता है, समाज के लोग यही समझाते हैं कि जो हो गया है उसे भूलकर परिवार को बचाया जाए, और इससे बचता सिर्फ बलात्कारी है जिसे यह समझ आ जाता है कि उसका जुर्म जारी रहने पर भी शायद ही उसके खिलाफ कोई कार्रवाई हो। इसलिए लोगों को यह समझने की जरूरत है कि वर्जित संबंधों को लेकर जो किताबी बातें हैं, हकीकत उनसे काफी परे चलती है। असल की जिंदगी में परिवार के भीतर, या स्कूल में गुरू कहे जाने वाले लोग, या खेल सिखाने वाले लोग कब बलात्कारी हो जाते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। और आज की यह बात जिस रूसी महिला के उकसावे से शुरू की गई है, उसे अगर देखें तो एक महिला दुश्मन देश की महिला को शिकस्त देने के लिए, उसका मनोबल तोडऩे के लिए अपने पति को उकसाती है कि वह जाकर उनसे बलात्कार करे, जबकि सामाजिक वर्जनाएं तो यह कहती हैं कि अगर पति-पत्नी में से कोई बेवफा हो जाए तो उसे तलाक दे देना भी जायज है। 

कुल मिलाकर इस मुद्दे पर लिखने का मकसद यही है कि सामाजिक वर्जनाओं को पूरी तरह असरदार मान लेना ठीक नहीं है, लोगों को इन वर्जनाओं के नाकामयाब होने पर बचाव की नौबत की तरकीबें सोच रखना चाहिए, और उनका उसी तरह इस्तेमाल करना चाहिए जिस तरह आग बुझाने के उपकरणों का इस्तेमाल होता है। यह मानकर चलना चाहिए कि आसपास के लोगों के तन-मन में लगी आग में सारी नैतिकता, सारे सामाजिक प्रतिबंध जाने कब जल जाएंगे, और जिंदगियों और रिश्तों को जलने से बचाने के लिए इंतजाम रखना हर किसी की खुद की जिम्मेदारी है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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