संपादकीय

दुनिया के अकेले जिंदा भूतपूर्व पोप, पोप बेनेडिक्ट 95 बरस की उम्र में गुजर गए। 2013 में उन्होंने पोप रहते हुए अपनी बढ़ती उम्र और खराब सेहत का हवाला देते हुए यह पद छोड़ दिया था। ऐसा करने वाले वे 6 सौ बरस में पहले व्यक्ति थे। लेकिन इसके बाद वे रोमन कैथोलिक धर्म के मुख्यालय, वेटिकन में ही बने रहे। उनके बाद बनने वाले पोप, पोप फ्रांसिस ने दो-तीन दिन पहले ही दुनिया भर के कैथोलिक लोगों से भूतपूर्व पोप के लिए प्रार्थना करने को कहा था, जाहिर है कि उनकी हालत खराब दिख रही होगी, और आखिरी दौर में वे ऐसी अपील कर रहे थे। पोप बेनेडिक्ट न सिर्फ वेटिकन में रहते थे, बल्कि वे पोप की पोशाक भी पहनते थे, और मीडिया को इंटरव्यू भी देते थे। ईसाई धार्मिक मामलों के जानकार लोगों का यह मानना है कि एक बार पोप का पद छोड़ देने के बाद उन्हें इस धार्मिक सत्ता से दूर भी रहना चाहिए था, और चुप भी रहना चाहिए था। खैर, इस मुद्दे पर आज लिखने का मकसद पिछले पोप के इस फैसले पर चर्चा नहीं है, बल्कि उन्होंने दुनिया के दूसरे जरूरी मुद्दों पर 21वीं सदी में आकर भी जो रूख दिखाया था, उस पर चर्चा करना है।
जैसा कि ईसाई धर्म में होता है, पोप बनने वाले लोग उसके पहले कई दशक पोप से नीचे के ओहदों पर रहते हैं, और अपने ऐसे ही लंबे कार्यकाल के दौरान भूतपूर्व पोप बेनेडिक्ट ने अपने पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण के मामलों से निपटने में जो ढीला-ढाला रूख दिखाया था, और मुजरिमों को जिस तरह बचाया था, वह भयानक बात थी। ईश्वर का नाम लेकर मासूम बच्चों का यौन शोषण करने वाले लोगों को बचाना यौन शोषण करने से कम बड़ा जुर्म नहीं था। इसी बरस जनवरी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि ये भूतपूर्व पोप 1977 से 1982 तक जर्मनी के म्युनिख में आर्कबिशप रहते हुए अपने पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण से वाकिफ थे, लेकिन उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। उन्होंने 2004 से लेकर 2014 के बीच बच्चों के यौन शोषण और उनसे बलात्कार के मामलों में चर्च के भीतर कार्रवाई करते हुए 848 पादरियों को हटाया था, और ढाई हजार से अधिक को कुछ कम सजा दी थी, लेकिन ऐसी 34 सौ शिकायतों पर उन्होंने देश के कानून के मुताबिक कोई कार्रवाई नहीं होने दी। उन्हीं के दौर में कई ऐसे पादरी चर्च की अंदरुनी कार्रवाई से भी बच निकले जिन पर दो-दो सौ बच्चों के यौन शोषण के आरोप थे। ऐसे सभी जुर्म पर उन्होंने एक आम माफीनामा जारी करते हुए यौन शोषण के शिकार लोगों से शर्मिंदगी जाहिर करते हुए माफ कर देने की अपील की थी। जबकि इन मामलों में अदालती कार्रवाई की जरूरत थी। धर्म हर कुकर्म को छुपाने की ताकत रखता है, और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के सबसे बड़े धर्मगुरू, पोप बनने वाले बेनेडिक्ट ने इसे सही साबित किया था। इसके अलावा उन्होंने समलैंगिक लोगों का खुलकर विरोध किया था।
सिर्फ इसी धर्म की बात नहीं है, बहुत से और धर्मों का भी यही हाल है कि वहां हर किस्म के जुर्म खप जाते हैं। आज भी हिन्दुस्तान में अलग-अलग बहुत से धर्मों से जुड़े हुए धर्मगुरू या पादरी, या प्रचारक, या तथाकथित संत बलात्कार की सजा काट रहे हैं, और बाहर निकलकर और बलात्कार करने की हड़बड़ी में भी हैं। यह देखकर तकलीफ होती है कि आसाराम जैसा बलात्कारी जिसे देश के सबसे बड़े वकीलों के रहते हुए भी सुप्रीम कोर्ट तक ने जमानत या पैरोल के लायक भी नहीं पाया, आज भी उसका प्रचार करने के लिए उसके भक्त अपने परिवारों के नाबालिग बच्चों के साथ सडक़ों पर पर्चे बांटते दिखते हैं, जबकि आसाराम को अपने एक भक्त परिवार की नाबालिग लडक़ी से बलात्कार के जुर्म में ही सजा हुई है। ऐसी ही सजा बाबा राम-रहीम कहे जाने वाले एक और नौटंकीबाज को मिली है, जो पंजाब-हरियाणा में अपने भक्तों की बड़ी संख्या के चलते चुनाव के आसपास पैरोल पर बाहर दिखाई पड़ता है। हाल के बरसों में लगातार मुस्लिम धर्म से जुड़े हुए बच्चों और नाबालिग लड़कियों से बलात्कार करने वाले लोग पकड़ाए हैं, लेकिन धर्मों को मानने वाले लोगों का हाल यह रहता है कि वे अपने बलात्कारियों पर भी आस्था रखते हैं। धर्म के झंडों की आड़ में हजार किस्म के जुर्म चलते हैं, और लोकतांत्रिक देशों में भी सरकारें इन पर कार्रवाई करने से हिचकती हैं।
इसकी एक मिसाल छत्तीसगढ़ के इतिहास में है जब आधी सदी पहले एक मठ के महंत एक महिला से अपने अनैतिक संबंधों के चलते अपने गुंडों से एक कत्ल करवा बैठे थे, और उस वक्त के ब्राम्हण मुख्यमंत्री की छाती पर यह बात बोझ थी कि उनके सीएम रहते एक हिन्दू महंत को फांसी हो सकती है, तब उन्होंने वह केस रफा-दफा करवाया, और उस मठ-महंत से सैकड़ों एकड़ जमीन दान करवाई, जिस पर आज कॉलेज चल रहे हैं। धर्म और जुर्म की साठगांठ वेटिकन से लेकर तालिबान तक, और हिन्दुस्तान के मठों तक, सब जगह शान से चलती है, और कानून को कुचलते चलती है। दुनिया के वे देश कम जुर्म झेलते हैं जहां धर्म का बोलबाला घट रहा है, धर्म को मानने वाले लोग घट रहे हैं, नास्तिक बढ़ रहे हैं। ऐसा शायद इसलिए भी हो रहा होगा कि नास्तिकों के पास प्रायश्चित करके अपने पापों से मुक्ति पाने का विकल्प नहीं रहता है, इसलिए वे पाप कहे जाने वाले जुर्मों से दूर रहते होंगे। जिनके पास चर्च के कन्फेशन चेंबर की सहूलियत रहती है, कोई दान देकर पापों से छुटकारा पाने की आजादी रहती है, वे लोग फिर नए सिरे से पाप करने का उत्साह पा लेते हैं। इसलिए धर्म के जुर्म को गिनाने का कोई मौका नहीं चूकना चाहिए। धर्म लोगों के सोचने-समझने की ताकत को जितना कमजोर कर देता है, और जुर्म करने के हौसले को जितना मजबूत कर देता है, उसकी इन दोनों खामियों को बार-बार गिनाया जाना चाहिए, ताकि किसी में समझ आने की थोड़ी सी गुंजाइश अगर बाकी हो, तो वह आ जाए।