विचार / लेख

अब तुलसीदास को कोई संघ का मेंबर घोषित कर दे तो मैं चैन की सांस लूं
16-Jan-2023 4:22 PM
अब तुलसीदास को कोई संघ का मेंबर घोषित कर दे तो मैं चैन की सांस लूं

 -जे. सुशील

‘बहुत साल पहले पोलैंड के एक लेखक हुए जोसेफ कोनराड। कोनराड पोलिश थे तो उन्होंने अंग्रेजी देर से सीखी लेकिन तय किया कि अंग्रेजी में ही लिखेंगे। कहते हैं कि बाईस साल में उन्होंने अंग्रेजी में लिखना शुरू किया था। लेखन के अलावा वो दुनिया के अलग अलग जगहों (खास कर अफ्रीका) में बहुत लंबे समय तक रहे और ब्रितानी जहाजों पर ही यात्राएं कीं। उनकी किताबें इन यात्राओं से जुड़ी हुई हैं। जिसमें से एक किताब को बेहतरीन किताब माना गया- हार्ट ऑफ डार्कनेस। यह कांगो की यात्रा पर थी। जैसा कि नाम से जाहिर है यह एक आपत्तिजनक किताब होनी चाहिए थी लेकिन चूंकि वो समय साम्राज्यवाद का था तो किसी ने कुछ कहा नहीं। यह किताब मकबूल हुई इतनी कि ब्रितानी न होने के बावजूद अंग्रेजी साहित्य के कैनन में यह शामिल हो गई।

हालांकि इस किताब में साम्राज्यवाद की भी आलोचना है लेकिन उसमें अफ्रीकी लोगों का जो डेपिक्शन है वो बहुत खराब है। दुनिया के सभी अंग्रेजी के क्लासेस में ये पढ़ाई जाती रही। बीसवीं सदी में चालीस से लेकर साठ के दशक में एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंका गया। पचास के दशक में चिनुआ अचेबे, साठ के दशक में न्गूगी वा थियोंगो ने जो उपन्यास लिखे उनकी पृष्ठभूमि में हार्ट ऑफ डार्कनेस के बरक्स एक नैरेटिव खड़ा करना ही था।

जब लोग (फेसबुक पर तो बिना क्रेडिट दिए) इस वाक्य को कोट करते हैं कि जब तक शेर का इतिहास लिखने वाला कोई नहीं होगा तब तक शिकारी की वीरता के किस्से ही लोग सुनेंगे। (मूल कोट- until the lions have their own historians, the history of the hunt will always glorify the hunter) उन्हें ये नहीं पता होगा कि इस वाक्य की पृष्ठभूमि क्या है। अचेबे ने अपने इंटरव्यूज में यह स्पष्ट किया है कि जब वो कॉलेज में कोनराड की किताब पढ़ रहे थे तो वो इस बात से बहुत दुखी हुए थे और नाराज़ कि इस किताब में अफ्रीका के लोगों को किस तरह से दिखाया गया है। 

वो ये भी कहते हैं कि उन्होंने अपना उपन्यास लिखा भी इसी कारण से था। थिंग्स फॉल अपार्ट एक कालजयी उपन्यास है इसमें कोई शक नहीं रहा। आगे चलकर एडवर्ड सईद ने भी जोसेफ कोनराड पर ही पीएचडी की और सत्तर के दशक में उनकी किताब ओरिएन्टलिज़्म में भी कोनराड की इस किताब की गंभीर आलोचना है और कहा गया है कि कोनराड की दृष्टि में साम्राज्यवाद खराब तो था लेकिन उनके मन में अफ्रीकी लोगों के प्रति दुर्भाव भी स्पष्ट दिखता है। लेकिन यह लिखते हुए सईद कहीं भी यह नहीं कहते कि कोनराड घटिया आदमी थे या वो घटिया लेखक थे। सईद कहते हैं कि आदमी आलोचना उसी चीज की करता है जिससे वो बहुत प्रेम करता है। आप जिस टेक्सट से प्रेम में होंगे उसी की आलोचना करेंगे और यह ठीक भी है। किसी टेक्सट से घृणा कर के उसकी आलोचना नहीं हो सकती है। 

साठ और सत्तर के दशक में कोनराड को रिडिफाईन किया गया। अस्सी के दशक में इस संदर्भ में चिनुआ अचेबे का एक अभूतपूर्व लेख है एन इमेज ऑफ अफ्रीका के नाम से। यह एक भाषण था जो उन्होंने अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में दिया था जो बाद में मैसाचुसेट्स रिव्यू में छपा। इस लेख का पूरा टाइटल बहुत मजेदार है-  'An Image of Africa: Racism in Conrad's 'Heart of Darkness'

 

स्पष्ट है कि वो क्या चिन्हित कर रहे हैं लेकिन पूरे लेख में वो कहीं भी कोनराड पर कोई व्यक्तिगत हमला नहीं कर रहे हैं। उनकी नस्ल पर कटाक्ष नहीं कर रहे हैं लेकिन उस लेख में जो आलोचना की गई है उससे कोई असहमत भी नहीं हो सकता है।
अब सवाल यह है- अगर कोनराड का लेखन नस्लभेदी था जो बहुत हद तक प्रमाणित है तो क्या कोनराड को पढ़ाया जाना बंद कर दिया गया यूनिवर्सिटियों में? नहीं। कोनराड अब भी पढ़ाए जाते हैं बस उसका संदर्भ बदल गया। अब ज्यादातर यूनिवर्सिटियों में उनकी किताब पढ़ाते हुए यह बताया जाता है कि कैसे उनके उपन्यास में अफ्रीकी लोगों को दर्शाया गया है जो प्रॉब्लमैटिक है। कई बार बहस में ग्रेजुएशन के बच्चे कहते हैं- कोनराड रेसिस्ट हैं जिस पर प्रोफेसर उन्हें टोकते हैं और कहते हैं हो सकता है वो रेसिस्ट हों लेकिन हमें उनके टेक्सट पर बात करनी चाहिए और बेहतर होगा ये कहना कि उनके टेक्सट में रेसिज्म दिखता है। 

लेकिन ये महीन बात है। लोगों को इतना धैर्य नहीं है। तुलसीदास को बिना पढ़े उनके लिखे में से चार-पांच-दस लाइनें निकाल कर उन्हें जातिवादी, स्त्रीद्वेषी और न जाने क्या क्या कहा जा रहा है। किसी भी टेक्स्ट को उसके टाइम और स्पेस में भी देखा जाना चाहिए। यह कहा ही जा सकता है कि तुलसीदास के टेक्सट में स्त्रीद्वेषी पंक्तियां हैं लेकिन क्या इन पंक्तियों से उनके लेखन को खारिज किया जा सकता है पूरी तरह। 

क्या ये बात याद नहीं रखी जानी चाहिए कि संस्कृत के प्रभुत्व के समय में वो अवधी में लिख रहे थे तो उन्हें उच्च वर्ग के लोगों से तिरस्कार मिला था। चीजों को संदर्भ में देखना समझना चाहिए। आलोचना तो होनी ही चाहिए इसमें क्या शक है लेकिन सुदीर्घ आलोचना हो। ये मैं कुछ अधिक उम्मीद कर रहा हूं शायद।
फेसबुक के जमाने में कथित पढ़े-लिखे लोग भी चार लाइन में तुलसी को निपटा कर आगे बढ़ जाते हैं। क्योंकि फिर कल सूर्यकुमार यादव करना है परसों मीडिया पर भाषण देना है नरसों किसी और को गरियाना है। 
खैर। इस पोस्ट पर अब कोई मुझे भी ब्राम्हणवादी घोषित करेगा। ऐसा मैं अनुभव से कह रहा हूं। यह सामान्य है फेसबुक पर।’

‘तुलसीदास अवधी के महाकवि थे। विचारधारा उनकी वर्णव्यवस्था के पक्ष में थी। लेकिन माक्र्सवादी साहित्य चिंतन ने मुझे छात्र जीवन में ही सिखा दिया था, और नामवर सिंह के व्याख्यानों ने यह समझने में मदद की थी, कि किसी लेखक की विचारधारा उसकी विश्वदृष्टि का एक अवयव होती है। महत्वपूर्ण उसकी समूची विश्वदृष्टि है जिसके आलोक में उसके कृतित्व को समझा जाना चाहिए। आजकल खारिज करने का फैशन चल पड़ा है । कोई नागार्जुन को खारिज कर रहा है तो कोई तुलसी और निराला को। प्रेमचंद को तो सतीसमर्थक तक बताया जा चुका है। मेरा तो सिर्फ यह कहना है। अगर किसी लेखक को नहीं पढऩा चाहते हो तो न पढ़ो। प्रेमचंद को या निराला को या तुलसी-सूर को नहीं पढ़ोगे तो इनका तो कोई नुकसान होने वाला है नहीं। तुम्हारा ही होगा। और हाँ, जो कबीर इतने फैशन में हैं, नारी पर उनके विचार भी पढ़ लेना । ’ -कुलदीप कुमार

‘मैं किसी पुस्तक को जलाने के पक्ष में नहीं हूं, वह मनुस्मृति हो या ‘बंचेज आप थाट्स’ हो। पढ़ सकें तो पढिय़े, गुनिये-समझिये और बढिय़ा बहस कीजिए। तर्क से खारिज करना पुस्तक जलाने से अधिक प्रभावशाली होगा। तर्क के धनी हैं तो ‘जला दो, मिटा दो’ वाला नकारात्मक रास्ता क्यों चुन रहे हैं? यदि पुस्तक जलाने की संस्कृति सही है तो केवल मनुस्मृति और रामचरितमानस जलाने तक ही यह अभियान नहीं रुकेगा, कल को ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ और ‘दास कैपिटल’ भी इसकी जद में आ सकते हैं।’ ‘प्रेमचंद की रचनावली (जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली) में संकलित, प्रेमचंद की ओर से उनकी बेटी के भावी ससुर को लिखे गये एक विवादास्पद पत्र, जो स्त्री की दृष्टि से अत्यंत आधुनिकता-विरोधी है, पर चली बहस में प्रेमचंद के पक्ष में हिंदी के प्रखर, प्रतिबद्ध और पाठकों के बीच बहुत पसंद किये जाने वाले आलोचक वीरेंद्र यादव ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात की थी कि ‘ख्याल रहे, नहलाने के बाद बाथ-टब से केवल मैला पानी बहाना है। ऐसा न हो कि पानी के साथ बेबी को भी बहा दें।’ मुझे लगता है तुलसीदास पर बात करते हुए भी उनकी यह बात हमें याद रखनी चाहिए।’

-सूर्य नारायण (प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

 

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