विचार / लेख

-डॉ. संजय शुक्ला
आर्थिक उदारीकरण और संचार क्रांति ने सबसे ज्यादा क्रांतिकारी परिवर्तन सूचना माध्यमों में लाया है लेकिन इसका नाकारात्मक स्वरूप भी सामने है। हाल ही में देश के शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय बेंच ने ‘हेट स्पीच’ पर रोक लगाने संबंधी याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा है कि भारत में टेलीविजन न्यूज चैनल समाज में दरार पैदा कर रहे हैं तथा ये चैनल अपने नियत एजेंडे पर चलते हैं। जजों ने यह भी कहा कि ये चैनल्स सनसनीखेज खबरों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं तथा अपने एजेंडे के तहत नफरत फैलाने वाले खबरें प्रसारित करते हैं। अदालत ने समाचार एंकरों के खिलाफ कार्रवाई की मंशा जाहिर करते हुए यह भी कहा कि नफरती भाषण एक राक्षस है जो सबको निगल जाएगा।पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा है कि समाज में नफरत फैलाने वाले प्रसारण को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? जवाब में सरकार ने कहा है कि नफरती भाषण से निबटने के लिए भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 'सीआरपीसी' में व्यापक संशोधन की योजना बनाई जा रही है। हालांकि सरकार अदालत को ऐसा भरोसा बीते कई सालों से दे रही है लेकिन नतीजा सिफर ही है।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सच की अभिव्यक्ति है जिसे बहुसंख्यक देशवासी महसूस कर रहे हैं। यह कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि पत्रकारिता की मर्यादा और जवाबदेही को सबसे ज्यादा खंडित इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल्स ने ही किया है जो टीआरपी की भूख मिटाने किसी भी सीमा को लांघने में गुरेज नहीं कर रहे हैं। भारत में पत्रकारिता का एक उजला इतिहास रहा है जिसने देश के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत में अपनी प्रतिष्ठापूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है फलस्वरूप मीडिया यानि पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया। हाल के वर्षों में जब समूचे समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण बड़ी तेजी से हो रहा है तब पत्रकारिता भी इससे अछूता नहीं है। मीडिया में जारी अधोपतन का खामियाजा देश के उस तबके को भोगना पड़ रहा है जिसके लिए खबरिया चैनल ?????आंख और कान हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मीडिया जगत में जारी भरोसे के संकट के बीच आज भी प्रिंट मीडिया यानि अखबारों के प्रति लोगों में विश्वसनीयता कायम है। बहरहाल संचार क्रांति के इस दौर में जब इंटरनेट आम आदमी के जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है तब यह माध्यम फेक और नफरती खबरें बांटने में अव्वल साबित हो रहा है। गौरतलब है कि कुछ अर्सा पहले सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और वेब मीडिया पर फर्जी और लोगों को बदनाम करने वाली खबरों के चलन पर चिंता जाहिर करते हुए सरकार को ऐसे खबरों को रोकने के लिए जरूरी उपाय करने का निर्देश दिए थे।
बीते सालों के दौरान अदालतों ने न्यूज चैनल्स के गैर जिम्मेदाराना रवैए पर क?ई बार सख्ती दिखाई थी लेकिन इस मनमानी पर अब तक रोक नहीं लग पाया है बिलाशक इसके लिए राजनीतिक संरक्षण ही जिम्मेदार है। हाल के वर्षों में मीडिया पर सत्ता प्रतिष्ठान को खुश रखने के लिए पक्षपाती होने और निष्पक्ष मीडिया हाउस के कर्ताधर्ताओं को सरकारी एजेंसियों के माध्यम से दबाव में लाने के आरोप लगातार लग रहे हैं। विपक्षी नेताओं की मानें तो देश में मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप लागू है।दरअसल देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर टेलीविजन न्यूज चैनल ऐसी खबरें परोस रहीं हैं जिससे देश में सांप्रदायिक सौहार्द लगातार बिगड़ रहा है फलस्वरूप कानून और व्यवस्था की स्थिति निर्मित हो रही है। एक न्यूज एजेंसी के सर्वे के मुताबिक टीवी चैनलों में शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक हो रहे बहसों में 70 फीसदी बहस धार्मिक, सांप्रदायिक, पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों पर होते हैं। इन चैनलों में देश की ज्वलंत समस्या महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी और बीमारी पर कोई सार्थक बहस नहीं देखी गई।यह कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि मुल्क में मजहबी उन्माद फ़ैलाने के लिए जितना जिम्मेदार राजनीतिक और धार्मिक संगठन हैं उतना ही जिम्मेदार इलेक्ट्रॉनिक न्यूज मीडिया भी है।
अधिकांश टीवी चैनल्स में सलेक्टिव धार्मिक मुद्दों पर दोनों मजहबों के बीच हिंसा भडक़ाने और वैमनस्य बढ़ाने वाले निरर्थक बहस का चलन बढ़ा है। टीवी एंकर ऐसे पार्टी प्रवक्ताओं, मजहबी नेताओं, साधु-साध्वियों और मौलवियों को बैठाकर आक्रामक बहस के लिए प्रेरित करते हैं जिन्हें हिंदू धर्म या इस्लाम की भलिभांति जानकारी ही नहीं है और बल्कि वे एक नियत एजेंडे पर बहस करते हैं। गौरतलब है कि बीते साल नूपुर शर्मा विवाद के जड़ में भी ऐसा ही टीवी डिबेट था, इस बहस में एंकर की भूमिका गैर जिम्मेदाराना थी एंकर चाहती तो नुपुर शर्मा को आपत्तिजनक टिप्पणियां करने से रोक सकती थीं अथवा खुद टीवी चैनल भी इस प्रसारण को रोक सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस बहस का परिणाम आज भी देश भोग रहा है और विदेशों में भारत की छवि अलग प्रभावित हुई। इन टीवी चैनलों के पक्षपाती रवैए की झलक विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर होने वाले चर्चा के दौरान भी दिखाई पड़ती है जब टीवी एंकर सत्ता से जुड़े राजनीतिक दल के प्रवक्ता को अपनी बात रखने के लिए सुविधाजनक समय देते हैं लेकिन विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं के तर्क और तथ्य रखने के दौरान कभी समय का बहाना बना कर अथवा ब्रेक लेकर उनके साथ पक्षपात करते हैं। आलम यह रहता है कि अनेक बार खुद एंकर विपक्षी प्रवक्ताओं पर हावी होने की कोशिश करते हैं जो किसी भी लिहाज से स्वस्थ पत्रकारिता नहीं है। अलबत्ता टीवी चैनलों के बहस में केवल धर्म और साम्प्रदायिकता पर ही भडक़ाऊ बातें नहीं की जा रही है बल्कि देश के संविधान, अदालतों, जांच एजेंसियों और विपक्षी नेताओं के बारे में भी आपत्तिजनक टिप्पणियां की जा रही है। टीवी चैनल किसी मामले पर जिस तरह मीडिया ट्रायल प्रसारित करतीं हैं मानो देश में अब पुलिस और अदालतों की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। फिल्म अभिनेता सुशांत राजपूत के आत्महत्या और शाहरूख खान के बेटे आर्यन खान से संबंधित ड्रग्स मामले में टीवी चैनलों के मीडिया ट्रायल ने पुलिस और अदालत को भी हैरत में डाल दिया था जबकि नतीजा कुछ और निकला। नवंबर 2008 में मुंबई हमले के दौरान क?ई न्यूज चैनल्स के हमले के लाइव कवरेज का आतंकियों ने फायदा उठाया था। टेलीविजन न्यूज चैनल्स केवल देश के अंदरूनी मामलों में ही पक्षपाती बहस और खबरें नहीं प्रसारित कर रहे हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में भी गैर जिम्मेदाराना रवैया अपना रही है। मीडिया का बुनियादी दायित्व युद्ध,आपदा, महामारी और अशांति में समाज में शांति और साकारात्मकता कायम करना है लेकिन टेलीविजन न्यूज चैनल्स अपने इन दायित्वों के प्रति हर विभिषिका में गैर जिम्मेदाराना रवैया ही अपनाता रहा है। पाठकों को स्मरण में होगा कि न्यूज़ चैनलों ने रुस-यूक्रेन युद्ध के शुरूआत में अपने स्टुडियो को युद्ध के मैदान में तब्दील कर दिया था और पूर्व सैन्य प्रमुखों तथा रक्षा विशेषज्ञों को बिठाकर बेफजूल की बहस प्रसारित कर रहे थे।तब इन टीवी चैनल्स के एंकर और स्टुडियो में मौजूद सैन्य विशेषज्ञू ने तीसरे विश्वयुद्ध शुरू होने की बकायदा समय भी तय कर चुके थे। विभिन्न नेशनल न्यूज चैनल्स लगातार इस युद्ध की विभीषिका की लाइव तस्वीरें दिखाते रहे जिसने दर्शकों के दिमाग में गहरा असर डाला। कोरोना महामारी के दौरान कतिपय न्यूज चैनलों ने देश में भय, दहशत, आक्रोश और धार्मिक वैमनस्यता परोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत में महामारी के शुरूआत में पहले देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान मजदूरों के पैदल घर वापसी की लाइव समाचार प्रसारित कर देश में अफरातफरी और दहशत कायम करने में लगे रहे। न्यूज़ चैनलों ने देश में कोरोना के शुरूआती संक्रमण के लिए दिल्ली में तबलीगी जमात के धार्मिक आयोजन को जिम्मेदार मानते हुए अल्पसंख्यक समुदाय को कठघरे में खड़ा करने और इस समुदाय द्वारा मेडिकल टीम के साथ पथराव और दुर्व्यवहार की खबरों को लगातार चलाया फलस्वरूप देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ। महामारी के दूसरी लहर के दौरान न्यूज चैनलों ने देश के अस्पतालों में ऑक्सीजन और बिस्तर की कमी के कारण अस्पतालों के बाहर गलियारों और आटोरिक्शा में दम तोड़ते लोगों और रोते- बिलखते परिजनों की लगातार खबरें प्रसारित कर एक बड़ी आबादी में बेचैनी और डर पैदा कर दिया। बहरहाल टीवी चैनल्स अभी भी चीन में कोरोना महामारी के दहशत भरे खबरें चलाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
निराशाजनक यह कि कतिपय टीवी चैनल टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज कार्यक्रम प्रसारित कर मीडिया के लिए जरूरी अनुशासन और
जवाबदेही की पाबंदियां लगातार लांघ रहे हैं। यहां यह भी विचारणीय है कि है कि अदालतों और सरकार ने जब -जब मीडिया की निरंकुशता पर अंकुश लगाने की कोशिश की तब-तब मानवाधिकार संगठनों और कथित बुद्धिजीवियों ने इसे बोलने की आजादी पर हमला बताते हुए हल्ला मचाया। बहरहाल अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर टीवी न्यूज चैनल्स द्वारा प्रसारित किए जा रहे ‘हेट स्पीच’ को किसी भी लिहाज से स्वीकार नहीं किया जा सकता लिहाजा ऐसे मनमानी पर अंकुश लगाना आवश्यक है।अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करने वालों को यह बात जेहन में रखना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ए के तहत प्राप्त बोलने की आजादी अनियंत्रित नहीं है बल्कि उस पर भी कानूनी पाबंदियां हैं। विचारणीय है कि मीडिया यानि पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है यदि यही आधार देश के सांप्रदायिक सौहार्द और कानून व्यवस्था के लिए खतरा बनने लगे तो यह निश्चित ही चिंताजनक है। बहरहाल हर समस्या का समाधान केवल अदालतों के भरोसे संभव नहीं है बल्कि इसके लिए सरकार और मीडिया जगत को भी सामने आना होगा। महात्मा गांधी का मानना था कि कलम की निरंकुशता खतरनाक हो सकती है लेकिन उस व्यवस्था पर अंकुश और ज्यादा खतरनाक हो सकती है लिहाजा वे पत्रकारिता में स्व-नियमन और स्व-अनुशासन के पक्षधर थे।उक्त के मद्देनजर टीवी चैनलों और एंकरों को खुद अपने लिए एक लक्ष्मण रेखा तय करनी चाहिए ताकि पत्रकारिता की आत्मा जिंदा रहे आखिरकार यह जवाबदेही भी उनकी ही है।