संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कड़े कानून कड़ी नीयत ही नहीं बताते, वे बचने की बड़ी कोशिश भी बताते हैं
17-Jan-2023 4:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कड़े कानून कड़ी नीयत ही  नहीं बताते, वे बचने की  बड़ी कोशिश भी बताते हैं

photo credit The Guardian

सभ्य दुनिया वह होती है जो एक-दूसरे से कुछ सीखने को तैयार रहती है। अलग-अलग बहुत से देशों में किसी एक चर्चित जुर्म के बाद कानून बनाने वाली संसद या विधानसभा के सामने यह बड़ा तनाव खड़ा हो जाता है कि वोटरों से भरे समाज को संतुष्ट कैसे किया जाए। ऐसे में जुर्म को सुलझाने, मुजरिमों को पकडऩे, और अदालत में सजा दिलवाने में कामयाबी का काम आसान नहीं रहता है, और बहुत से मामलों में मुमकिन भी नहीं रहता है। ऐसे में निर्वाचन से संसद और विधानसभा तक पहुंचने वाले नेताओं के लिए सबसे सहूलियत का काम रहता है कि बेअसर कानून, बेअसर इंतजाम को छुपाने के लिए उसके सामने और कड़े कानून की एक दीवार खड़ी कर दी जाए। जिस तरह परदेसी मेहमानों की नजरों से छुपाने के लिए अहमदाबाद और इंदौर में गरीब बस्तियों के सामने दीवारें खड़ी कर दी गई थीं, ताकि संपन्न मेहमानों को यहां के गरीब न दिखें, ठीक उसी तरह एक नाकामयाब प्रशासन के सामने अधिक कड़े कानून की दीवार खड़ी कर दी जाती है। हिन्दुस्तान में निर्भया नाम से चर्चित बलात्कार और भयानक हिंसा के एक मामले के बाद देश भर में उठ खड़े हुए जनआक्रोश को देखते हुए अलग से कानून बनाया गया, और कई राज्यों में सामूहिक बलात्कार या बच्चों से बलात्कार पर मौत की सजा जोड़ दी। इससे नेताओं और राजनीतिक दलों को अपनी सरकारों की नाकामयाबी की तरफ से ध्यान मोडऩे की एक तरकीब मिली, और आम लोगों को ऐसा लगा कि इससे बलात्कार थम जाएंगे। सच तो यह है कि उसके बाद से बलात्कार के साथ हत्याएं अधिक होते दिख रही हैं क्योंकि जब बलात्कार पर भी सजा उतने ही मिलनी है जितनी कि कत्ल से मिलनी है, तो फिर एक गवाह और सुबूत को छुपा क्यों न दिया जाए? 

अभी धरती के दूसरे सिरे, अमरीका में एक मामला हुआ जिससे वहां के कानून की बेइंसाफी का इतिहास सामने आया। खुद अमरीका में तो यह कभी इतिहास बना ही नहीं था क्योंकि एक नाजायज कड़ा कानून बनाकर जुर्म रोकने की यह कोशिश वहां तो हमेशा चर्चा में थी, लेकिन हमारे सरीखे दूर बैठे हुए लोगों को इसके बारे में मालूम नहीं था। अभी वहां की जेल से 20 बरस कैद के बाद 55 बरस के एक आदमी को जब रिहा किया गया, तो वहां के एक कानून की बेइंसाफी फिर खबरों और चर्चा में आई। वैसे तो कैलिफोर्निया अमरीका का सबसे प्रगतिशील और उदार राज्य माना जाता है, लेकिन वहां 1990 के दशक में 12 बरस की एक बच्ची का अपहरण हुआ था, और उसका कत्ल कर दिया गया था। उस वारदात को लेकर न सिर्फ इस अमरीकी राज्य में, बल्कि पूरे देश में जुर्म की दहशत फैल गई थी, और कैलिफोर्निया में तीसरे जुर्म (थ्री स्ट्राइक्स) नाम का एक कुख्यात कानून बनाया था जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को किसी अहिंसक तीन अपराधों पर भी उम्रकैद सुनाई जा सकती थी। अगर वे किसी दुकान में सामान चुराते पकड़ा गए, या उनके पास कोई नशा मिल गया, या उन्होंने कोई उठाईगीरी कर दी, तो ऐसा तीसरा जुर्म साबित होते ही उन्हें उम्रकैद की सजा देने का कानून बनाया गया। एक अपहरण और कत्ल से फैली दहशत से जूझती हुई राज्य और संघीय सरकारों के सामने जनता को संतुष्ट करने की एक चुनौती थी, और उस वक्त के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भी इस कानून को मंजूरी दे दी थी। करीब आधे अमरीकी राज्यों ने इस कानून को अपना लिया था। ऐसे ही कानून के तहत कैलिफोर्निया में एक बेघर, बेरोजगार नौजवान डेविड को जब एक घर के गैरेज से कुछ सिक्के चुराने पर गिरफ्तार किया गया, तो उसके पास से 14 डॉलर (हिन्दुस्तान के स्तर से 14 रूपये के बराबर) मिले थे, और पहले के दो अहिंसक जुर्म के साथ इस ताजा जुर्म को जोडक़र जज ने उसे 35 बरस या उम्रकैद की सजा सुनाई थी। दरअसल 1994 में जब यह थ्री स्ट्राइक्स कानून बना था, तब इस राज्य में दस बरस के भीतर छोटे-छोटे तीसरे जुर्म पर करीब 35 सौ लोगों को उम्रकैद सुना दी गई थी, और वे मरने के लिए जेल भेज दिए गए थे। डेविड को 14 डॉलर चुराने के जुर्म में उम्रकैद भी दी गई थी, और 10 हजार डॉलर का जुर्माना भी सुनाया गया था। वह अफ्रीकी मूल का एक बेघर बेरोजगार था, जिसने इतनी रकम अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं देखी थी। वह बचपन से परिवार और जगह बदलते जाने का शिकार था, और गरीबी के चलते वह किसी काम के लायक भी नहीं बन पाया था, और राह से भटक गया था। बहुत बाद में जाकर 2012 में अमरीका ने यह पाया कि इस तरह की सजा नाजायज है, और फिर ऐसे कैदियों के मामलों को देखकर उनमें से कुछ को छोडऩा शुरू किया गया, और उसी के तहत 20 बरस की कैद के बाद डेविड रिहा किया गया, और उसका परिवार उसके स्वागत को बांहें फैलाए तैयार था।

अमरीका के इस कानून को लेकर सामाजिक इंसाफ और समानता पर भरोसा रखने वाले लोगों को कभी भरोसा नहीं रहा। उन्होंने यह माना कि इसकी सबसे बुरी मार उन लोगों पर पड़ी जो कि सामाजिक गैरबराबरी के शिकार थे। कैलिफोर्निया में इस कानून के तहत उम्रकैद पाने वाले लोगों में अधिकतर लोग गरीब थे, काले थे, दूसरे अश्वेत थे, और हालात के मारे हुए लोग थे। कानून ही ऐसा था कि बहुत मामूली से अहिंसक जुर्म के लिए भी गरीबों को पूरी जिंदगी के लिए जेल में डाल दिया जा रहा था। अमरीका के इन मामलों को देखकर हिन्दुस्तान के बारे में सोचें, तो यहां पर दलित-आदिवासी, गरीब, मुस्लिम अल्पसंख्यक तबकों के लोग ही जेलों को भरे हुए हैं। उनकी गरीबी और सामाजिक हालत उन्हें जुर्म की ओर मोड़ भी देती है, और हिन्दुस्तान की महंगी और मुश्किल अदालतें उन्हें इंसाफ पाने का अधिक मौका भी नहीं देती हैं। नतीजा यह होता है कि वे फैसले के इंतजार में ही संभावित सजा से अधिक वक्त जेल में गुजार देते हैं। और जैसा कि अमरीका के इस कानून का तजुर्बा रहा है कि इसकी वजह से कहीं जुर्म कम नहीं हुआ, जबकि इस कड़े कानून को बनाने का सबसे बड़ा मकसद ही जुर्म में कमी लाना था। इसी तरह हिन्दुस्तान में बलात्कार पर मौत की सजा से बलात्कार में कोई कमी हुई हो ऐसा नहीं दिख रहा है, बल्कि बलात्कार के बाद हत्या अधिक सुनाई दे रही है। अब अमरीका में लोग खुलकर यह मान रहे हैं कि एक अपहरण और कत्ल से फैली दहशत कम करने के लिए निर्वाचित सरकारों ने इस तरह का कड़ा कानून बनाया था, और यह कि निर्वाचित लोगों के बनाए सारे कानून जायज नहीं होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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