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महामारी का स्कूली शिक्षा पर पड़े प्रभाव पर ‘असर’ की रिपोर्ट
20-Jan-2023 3:33 PM
महामारी का स्कूली शिक्षा पर पड़े  प्रभाव पर ‘असर’ की रिपोर्ट

-अरूण कान्त शुक्ला
कोरोना के कारण शिक्षा पर क्या असर पड़ा ये किसी से छुपा नहीं है, ऑनलाइन क्लासेज की वजह से बच्चों की शारीरिक क्षमता पर असर पडऩे लगा था, जिस पर उस दौरान संबंधित अभिभावकों सहित सभी पक्षों ने चिंता भी जाहिर की थी। ये चिंताएं विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों और सरकारी शिक्ष्ण संस्थाओं में पढने वाले छात्रों को लेकर अधिक थीं क्योंकि ग्रमीण क्षेत्रों के अभिभावकों के पास ऑन लाइन शिक्षण के लिए मोबाइल या लेपटॉप जैसी अन्य सुविधा के अभाव के साथ साथ अबाध इंटरनेट की उपलब्धता भी एक समस्या न केवल अभिभावकों बल्कि शिक्षकों के लिये भी थी। इसीलिये जब स्कूल खुले तो अभिभावकों और छात्रों के साथ शिक्षकों में  भी उत्साह देखने मिला था। इन सभी परिस्थितियों की बच्चों की मानसिक स्थिति तथा शारीरिक क्षमता पर कितना असर पड़ा और उनकी बच्चों की पढने तथा समझने और शिक्षकों की पढ़ाने की क्षमता में क्या फर्क आया, इस पर एक स्वतन्त्र सर्वे बहुत आवश्यक हो गया था ताकि उस आधार पर संबंधित पक्ष छात्रों के अध्यन के लिये उचित तरीकों का निर्धारण कर सकें।   

अब इसे तरह के सभी बिन्दुओं को समेटते हुए एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन (्रस्श्वक्र 2022) की रिपोर्ट बुधवार 18 जनवरी को जारी की गई है। प्रथम फाउंडेशन की ओर से चार साल बाद यह सर्वेक्षण किया गया है। इससे पहले साल 2018 में असर की रिपोर्ट जारी की गई थी।

साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 780 जि़ले और 6 लाख 40 हज़ार 867 गांव हैं जिसमें ‘असर’ ने 616 ग्रामीण जि़लों के 19,060 गांवों का सर्वे किया है, इसमें 3 से 16 वर्ष तक की आयु वाले 6.9 लाख बच्चों को शामिल किया गया है ताकि उनकी स्कूली शिक्षा की स्थिति दर्ज की जा सके और उनकी बुनियादी पढ़ाई और समझ का आंकलन किया जा सके।

कोरोना के बाद बढ़े नामांकन
राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा की स्थिति को देखकर पता चलता है कि महामारी के दौरान स्कूल बंद हो जाने के बावजूद 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों का नामांकन दर पिछले 15 सालों में 95 प्रतिशत से  ज़्यादा रहा है। याने वर्ष  2018 में यह 95.2 प्रतिशत था, जो अब बढक़र 98.4 प्रतिशत हो गया है।

3-16 आयु वर्ग के वो बच्चे जिनका वर्तमान में नामांकन दर्ज नहीं है, इनका अनुपात भी जो वर्ष 2018 में 2.8 प्रतिशत था अब घटकर अब 1.6 प्रतिशत रह गया है याने कोरोना के बाद शालाओं में नामांकन बढ़ा है।

सरकारी स्कूलों में नामांकन
सर्वे में पाया गया की सरकारी स्कूलों में  2018 के मुक़ाबले 2022 में तेज़ी से नामांकन हुए हैं, यानी जो नामांकन प्रतिशत 2018 में 65.6 था वो 2022 में बढक़र 72.9 प्रतिशत हो गया है। हालांकि इससे पहले साल 2006 से 2014 तक सरकारी विद्यालयों में नामांकन की दर बेहद कम थी। असर की वर्ष 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक़ ये आंकड़ा तब 64.9 प्रतिशत था जो अगले चार सालों तक वैसा ही बना रहा।

बच्चों की बुनियादी साक्षरता, समझ और आंकलन करने की क्षमता में बड़ी गिरावट
कोरोना के कारण लंबे वक्त तक शिक्षण व्यवस्था अन्य सभी व्यवस्थाओं की तरह पुरी तरह ठप्प थी, बल्कि सचाई तो यह है  कि यह कुछ अधिक लम्बी अवधी तक व्यवस्थित नहीं हो पाई थी। परिणाम स्वरूप बच्चों की बुनियादी साक्षरता, समझ और आंकलन करने की क्षमता में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। ये सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के स्कूलों पर लागू होता है।

कक्षा 3 की हालत : असर की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में कक्षा तीन के बच्चों का प्रतिशत जो कक्षा दो के स्तर के पाठ्यक्रम को पढ़ सकते थे 27.3 प्रतिशत था जो अब वर्ष 2022 में गिरकर 20.5 रह गया है।

2018 के स्तर से 10 प्रतिशत से ज़्यादा की गिरावट दिखाने वाले राज्यों की बात करें तो केरल 2018 में 52.1 प्रतिशत से 2022 में 38.7 प्रतिशत तक, हिमाचल प्रदेश 47.7 प्रतिशत से 28.4 प्रतिशत तक और हरियाणा में 46.4 प्रतिशत से 31.5 प्रतिशत तक गिरावट आई है।

कक्षा 5 की हालत-  असर की रिपोर्ट कहती है कि चाहे वे स्कूल सरकारी हों अथवा प्राईवेट   सर्वे में दोनों की हालत दयनीय ही है।

कक्षा पांच में नामांकित बच्चों का अनुपात जो कि कम से कम कक्षा दो के स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं, वो 2018 के 50.5 प्रतिशत से गिरकर 2022 में 42.8 प्रतिशत हो गया।

हालांकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं जिन्हें ठीकठाक कहा जा सकता है, इनमें बिहार, ओडिशा, मणिपुर और झारखंड के अलावा कुछ और राज्य शामिल हैं। वहीं, 15 प्रतिशत अंकों या उससे ज़्यादा की कमी वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, गुजरात और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं। जबकि उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में 10 प्रतिशत से अधिक की गिरावट देखी गई है।

आठवीं कक्षा के क्या हालात- रिपोर्ट कहती है कि कक्षा आठवीं के छात्रों में बुनियादी पढऩे की क्षमता में कमी तो दिखाई दे रही है, लेकिन ये कहा जा सकता है कि तीन और पांच कक्षा में देखे गए रुझानों की तुलना में थोड़ा कम हैं। राष्ट्रीय स्तर पर, सरकारी या निजी स्कूलों में कक्षा आठ में नामांकित 69.6 प्रतिशत बच्चे 2022 में कम से कम बुनियादी पाठ पढ़ सकते हैं, जो 2018 में 72.8 प्रतिशत था।

‘घटाना’ नहीं आता- गणित की भाषा में कहें तो कक्षा 3 के वो छात्र जो कम से कम ‘घटाव’ जानते हैं, उनके प्रतिशत में भी गिरावट आई है। यानी ऐसे बच्चों की जो संख्या साल 2018 में 28.2 प्रतिशत थी वो 2022 में 25.9 प्रतिशत हो गई है। हालांकि जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में इनके आंकड़ों ने थोड़ी राहत ज़रूर दी है। इन तीनों राज्यों में आंकड़े लगभग स्थिर हैं। जबकि हरियाणा, मिज़ोरम और तमिलनाडु में कऱीब 10 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।

तमिलनाडु में 2018 में ये प्रतिशत 25.9 था जो 2022 में 11.2 हो गया, मिजोरम में 2018 में इसकी संख्या 58.9 थी जो 2022 में घटकर 42 प्रतिशत हो गई, जबकि हरियाणा में भी 10 फ़ीसदी गिरकर 41.8 प्रतिशत हो गई जो 2018 में 53.9 थी।

‘भाग’ के सवाल से भी दिक्कत पर सरकारी स्कूलों में किंचित सुधार- असर की रिपोर्ट कक्षा 8 के बारे में कहती है कि बुनियादी गणित के मामले में प्रदर्शन थोड़ा अलग है। राष्ट्रीय स्तर पर भाग का सवाल हल कर पाने वाले बच्चों का अनुपात थोड़ा बेहतर हुआ है। ये 2018 में 44.1 प्रतिशत था, जबकि 2022 में 44.7 प्रतिशत हो गया है। रिपोर्ट कहती है कि ये जो बहुत थोड़ी सी बढ़ोत्तरी है ये लड़कियों और सरकारी स्कूल के बच्चों की ज़्यादा सीखने की इच्छा के कारण हुआ है। जबकि ‘भाग’ बनाने के सवालों में लडक़ों और निजी स्कूलों की क्षमता में गिरावट हुई है।

प्राइवेट ट्यूशन का बोलबाला- ग्रामीण भारत में कक्षा 1 से 8 तक बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाने के मामले में भी बढ़ोत्तरी हुई है। सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, दोनों ही स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाया जा रहा है। फीस देकर ट्यूशन पढऩे वालों का अनुपात साल 2018 में 26.4 प्रतिशत से बढक़र 2022 में 30.5 प्रतिशत हो गया है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में तो 8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

स्कूलों में सुविधाएं- लड़कियों के शौचालय का जो अनुपात 2018 में 66.4 प्रतिशत था, वो 2022 में 68.4 प्रतिशत हुआ है, हालांकि जरूरी प्रसाधनों के हिसाब से इसे बहुत बड़ी वृद्धि नहीं कहा जा सकता। पेयजल वाले स्कूलों में भी वृद्धि देखने को मिली है, ये साल 2018 में 74.8 प्रतिशत थे जो 2022 में बढक़र 76 प्रतिशत हो गए।

हालांकि गुजरात जैसे राज्य में पेयजल वाले स्कूलों की संख्या में गिरावट आई है, यहां ये संख्या 88 प्रतिशत से घटकर 71.8 प्रतिशत हो गई है, और कर्नाटक में भी 76.8 प्रतिशत से घटकर 67.8 प्रतिशत हो गई है।

कर्नाटक, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल किए गए सर्वे का तुलनात्मक विश्लेषण
शिक्षा के स्तर में आई उपरोक्त बड़ी गिरावटों के बावजूद, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में सीखने के परिणामों के तुलनात्मक विश्लेषण से सामने आया कि एक बार स्कूलों के फिर से खुलने के बाद इन राज्यों में खोई हुई जमीन को वापस पाने का प्रयास किया गया है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ में, कक्षा 3 के बच्चों का अनुपात जो कक्षा 2 की पाठ्यपुस्तक पढ़ सकते हैं, जो 2018 में 29.8 प्रतिशत से नीचे था, 2021 में 12.3 प्रतिशत तक गिर गया था, वह 2022 में 24.2 प्रतिशत तक वापस आ गया। पश्चिम बंगाल में, यह 2021 में 29.5 प्रतिशत से बढक़र 2022 में 33 प्रतिशत हो गया।

गणित के मामले में, छत्तीसगढ़ में कक्षा 3 में बुनियादी गणित प्रश्नों को हल करने की क्षमता वाले बच्चों की हिस्सेदारी 2018 के 19.3त्न से गिरकर 2021 में 9त्न हो गई थी , जो 2022 में बढक़र 19.6त्न हो गई है। कर्नाटक में 2021 के 17.3त्न से बढक़र यह 2022 में 22.2त्न और पश्चिम बंगाल में 2021 के  29.4त्न से बढक़र 2022 में 34.2त्न हो गया है।

निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों में दाखिले का रुझान : सर्वे में यह भी पाया गया कि ग्रमीण तथा अर्द्धशहरी स्थानों में निजी स्कूलों को छोडक़र सरकारी स्कूलों में नामांकन की तरफ रुझान बढ़ा है।  प्रथम फाउंडेशन की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी ने के अनुसार निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों की तरफ जाने का जो रुझान अभी दिखाई पड़ रहा है उसके पीछे अनेक कारक रहे हैं, जिसमें महामारी की वजह से नौकरी छूटना और ग्रामीण क्षेत्रों में बजट की कमी की वजह से निजी स्कूलों का बंद होना भी शामिल है।

उनका कहना था कि अगर परिवार की आय कम हो जाती है या अधिक अनिश्चित हो जाती है, तो संभावना है कि माता-पिता निजी स्कूल की फीस वहन करने में सक्षम नहीं होंगे। इसलिए उनके पास इसके अलावा अन्य कोई चारा नहीं होगा कि वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों से निकालकर सरकारी स्कूलों में दाखिल करायें। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में, अधिकांश निजी स्कूल कम लागत या कम बजट वाले ही होते हैं  और उनमें से अनेक को कोविड के दौरान बंद करना पड़ा।

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