विचार / लेख

लोकतंत्र और समाज में कोई ठोस और निर्णायक बदलाव नहीं
22-Jan-2023 5:45 PM
लोकतंत्र और समाज में कोई ठोस और निर्णायक बदलाव नहीं

-संजय श्रमण
अमत्र्य सेन अपनी प्रसिद्ध कृति ‘द आग्र्यूमेंटेटिव इंडियन’ में दो महत्वपूर्ण धारणाओं के प्रति सावधान करते हैं। उनके अनुसार हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र पश्चिम द्वारा दिया गया एक उपहार है जिसे भारत ने आजादी के तुरंत बाद सीधे सीधे अपना लिया है। 

वे एक दूसरी धारणा को भी निशाने पर लेते हैं। वह दूसरी धारणा यह है कि भारत अतीत में कभी लोकतान्त्रिक था। अक्सर भारत का महिमा गान करने वाले लोग कहते हैं कि भारत के इतिहास में ऐसा कुछ विशेष है जो भारत को लोकतंत्र के अनुकूल बनाता है। सेन इस दूसरी धारणा को भी बहुत हद तक नकारते हैं।  

अमर्त्य सेन द्वारा कही गई इन दो बातों के बहुत गहरे निहितार्थ हैं। इन दो बिंदुओं को ध्यान से देखिए। 

वह लोकतंत्र, जिसे आज हम देखते हैं या हासिल करना चाहते हैं, उसका प्राचीन भारत या किसी भी देश में कोई उदाहरण नहीं मिलता। जो उदाहरण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं वे लोकतंत्र की धारणा के कुछ निकट आते हैं, वे लोकतंत्र के कुछ आदिम रूपों का इशारा भर देते हैं। 

लेकिन यह कह देना कि भारत या कोई अन्य सभ्यता में लोकतंत्र था- यह एक षड्यंत्र है। प्राचीन भारत में हम लोकतान्त्रिक थे, यह कहकर असल में एक खास किस्म की ‘प्राचीन यशगाथा’ को बिना सबूतों के दोहराने की भक्त मानसिकता मजबूत की जाती है। साथ ही हमें यह भी समझना चाहिए कि आधुनिक लोकतंत्र ही नहीं किसी भी तरह का शुभ या सद्गुण किसी एक सभ्यता या समाज के द्वारा दूसरी सभ्यता या समाज को दान में नहीं दिया जा सकता। 

अब भारत और भारतीयों की दिक्कत यह है कि एक खास तबका उस प्राचीन यशगाथा को बहुत ही रूमानी बनाकर पेश करता है। वह तबका दुनिया का सारा विकास और शुभ अपने उस सतयुग में ठूँसकर दिखाना चाहता है।  वह भी इसलिए ताकि देश और समाज को वास्तविक रूप से सभ्य होने की मेहनत किये बिना सभ्यता का सर्टिफिकेट मिल जाए और फिर उनका जो जी में आए वे इस देश में कर सकें। ये भारतीय सत्ताधीशों की ही नहीं दुनिया के सभी समाजों के धर्म-सत्ता और राजसत्ता के अधिपतियों की पसंदीदा रणनीति रही है। 

इस रणनीति के तहत यह कहा जाता है कि सारा शुभ अतीत में कहीं था जो समय की लहर में कहीं बह गया है इसलिए हमें भविष्य में नहीं बल्कि अपने ‘वास्तविक अतीत’ में जाकर खुदाई करनी चाहिए। 
यह खतरनाक रणनीति इतनी सफल रहती आई है कि पूरे देश का जनमानस इसके जाल में तुरंत फस जाता है। प्राचीन स्वर्णयुगों की तस्वीर दिखाकर भविष्य के सपने बुनना और इन सपनों के लिए कुर्बानी मांगना– यह सभी देशों और समाजों के तानाशाहों का पसंदीदा खेल रहा है। भारत इस अर्थ मे विशेष रूप से बदनसीब है क्योंकि यहाँ यह खेल राजनीति या सत्ता तक सीमित नहीं है। 

गौर से देखिए तो आपको पता चलेगा कि भारत में यह खेल भारत के सबसे बड़े और प्रचलित धर्म और अध्यात्म का भी मूल नियम बन चुका है। इसीलिए डॉ अंबेडकर ने इसे धर्म नहीं राजनीति कहा था। 
यह षडय़ंत्रकारी तबका यह कहता है कि समाज का सुख ही नहीं बल्कि व्यक्ति का मोक्ष भी अतीत के स्वर्णयुग या सतयुग में कहीं पीछे छूट गया है। समाज का स्वर्णकाल ही नहीं बल्कि व्यक्ति का निर्वाण भी अतीत के किसी गड्ढे में गिरा पड़ा है। ये दोनों धारणाएं एकसाथ भारत के लोकमानस को परोसी जाती हैं। 

इसलिए ताज्जुब नहीं कि जिन लोगों ने भारत के सतयुग को भारत का भविष्य बनाने का प्रोजेक्ट हाथ में लिया है उन्हीं लोगों ने मोक्ष या निर्वाण को व्यक्ति के भविष्य में नहीं बल्कि अतीत में दिखाने वाले बाबाओं की सबसे बड़ी फौज को खड़ा करके उसका इस्तेमाल किया है। 

गौर से देखिए, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो लोग भारत को एक धर्म विशेष के आधिपत्य में धकेलना चाहते हैं वे सबसे पहले किसी सतयुग को अतीत में खड़ा करते हैं। फिर वे उन बाबाओं और आध्यात्मिक व्याख्याओं का सहारा लेते हैं जो सब तरह के विकास को नकारकर अतीत की आदिम सुरंगों मे वैराग्य, कायाक्लेश, कायोत्सर्ग आदि से जुड़ी मोक्ष की धारणा सिखाते हैं। 

ये दोनों रणनीतियाँ एक ही दिशा मे एकसाथ जाती हैं। इस खेल में चलताऊ बाबा ही नहीं बल्कि विवेकानंद, अरबिंदो घोष जैसे स्थापित गुरु और आजकल के ओशो रजनीश और जग्गी बाबा जैसे कल्ट गुरु भी खतरनाक खेल खेलते आए हैं। यह खेल अब अपने शिखर पर पहुँच गया है। इसीलिए आजकल बाबाओं और राजनेताओं में बड़ा भाईचारा नजर आता है। 

इस तरह वे लोग जो अतीत में सतयुग और निर्वाण/मोक्ष देखते हैं वे लोग अचानक ही एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बनकर खड़े हो जाते हैं। यह सबसे गहरा खेल है जिसका इलाज चलताऊ प्रगतिशीलता और जिंदाबाद मुर्दाबाद के जरिए किसी भी सूरत में नहीं हो सकता। 

इसका अब क्या किया जाए?
असल समस्या यह है कि आपके समाज में इंसान के जीवन और उसके मौलिक स्वरूप सहित सुख दुख और मोक्ष या निर्वाण की व्याख्या कौन और किस तरह कर रहा है। यह सबसे गंभीर और सूक्ष्म बात है। 
अब भारत के बहुजनों को ठीक से समझना होगा कि राजनीतिक बदलावों के पीछे सामाजिक बदलावों का दबाव चाहिए और सामाजिक बदलावों के पीछे सांस्कृतिक धार्मिक बदलाव चाहिए। 

भारत के बहुजन सैद्धांतिक रूप से राजनीतिक और सामाजिक बदलाव तक आ चुके हैं, अधिकांश ओबीसी चिंतक दलित और ट्राइबल चिंतक इस बात के प्रति सहमत हो चुके हैं कि राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिए नई और साझा रणनीति की जरूरत है। 

लेकिन दुर्भाग्य से अभी भी ओबीसी, दलित और ट्राइबल समाज भारत में एकमुश्त धार्मिक और आध्यात्मिक बदलाव लाने की दिशा में पहला कदम भी नहीं उठाया गया  है। 

धर्म और अध्यात्म किसी भी समाज की सबसे बड़ी शक्ति होती है। इसे नजरअंदाज करना आजकल की चलताऊ प्रगतिशीलता का पसंदीदा खेल बन गया है। जो प्रस्तावनाएं स्वयं को आधुनिक और प्रगतिशील कहती हैं वे धर्म और आध्यात्म की शक्ति को नकारते हुए भारत के बहुजनों का सबसे ज्यादा नुकसान करती हैं। 

यह एक षडय़ंत्र है जिसमें बहुजनों के सबसे जागरूक और शिक्षित लोग सबसे आसानी से फँसते आए हैं। 

धर्म और अध्यात्म की शक्ति और उसके सही इस्तेमाल की संभावना को गैर-बहुजनों के हाथों में दे देने से बहुजन समाज अपने कल्याण के लिए उपयोगी सबसे शक्तिशाली उपकरणों से वंचित हो जाता है। 

फिर इन उपकरणों का प्रयोग फिर गैर-बहुजन या अल्पजन करते हैं, और यह इस्तेमाल वे फिर अपने हितों के लिए करते हैं। अब इसमें अल्पजनों को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं, जिम्मेदारी उन बहुजनों पर डाली जानी चाहिए जो धर्म और अध्यात्म की शक्ति का इस्तेमाल करने से इनकार करते आए हैं या फिर जिनमें इस इस्तेमाल की कल्पना, समझ और योग्यता नहीं है।  

यह बात नोट करके रख लीजिए, भारत को वास्तव में वे लोग बदलेंगे जिन्हें खुद के जीवन मे निर्णायक बदलाव की जरूरत है। वे लोग भारत के बहुजन अर्थात ओबीसी, दलित और ट्राइब्स हैं। इसी बहुजन तबके को इस देश में धार्मिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक बदलाव की निर्णायक पहल करनी होगी। जब तक भारतीय बहुजनों के घर घर में नए धर्म की नई इबारत नहीं पहुँच जाती तब तक लोकतंत्र और समाज में कोई ठोस और निर्णायक बदलाव नहीं आने वाला है। 

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