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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अफसरी बंगलों पर मातहत कर्मचारियों की बेहिसाब तैनाती के खिलाफ जंग छिड़े
27-Jan-2023 4:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  अफसरी बंगलों पर मातहत  कर्मचारियों की बेहिसाब  तैनाती के खिलाफ जंग छिड़े

मध्यप्रदेश में डीआईजी स्तर की एक आईपीएस और उसके आईएएस पति के सरकारी बंगले पर तैनात सिपाहियों को लेकर एक प्रमुख अखबार भास्कर ने एक रिपोर्ट की तो यह पता लगा वहां 44 सिपाही सेवा में लगे हुए हैं। ये सिपाही वहां खाना पकाते, झाड़ू-पोंछा करते हैं, कपड़े धोते हैं, माली का काम करते हैं, और चौकीदारी करते हैं। अखबार का हिसाब है कि इन सिपाहियों को हर महीने 27 लाख रूपए से ज्यादा का भुगतान किया जा रहा है। सिर्फ खाना बनाने के लिए यहां 12 सिपाही तैनात हैं। यह हाल मध्यप्रदेश में तब है जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने बंगलों पर सिपाहियों की ड्यूटी के खिलाफ नाराजगी दिखाई थी। इस अफसर जोड़े के बंगले पर आईएएस पति के विभाग के 12 कर्मचारी भी तैनात हैं। 

इन दो अफसरों को कुल मिलाकर पांच लाख रूपए महीने के आसपास तनख्वाह मिलती होगी, लेकिन इनके बंगलों पर तैनात सरकारी कर्मचारियों पर 30 लाख रूपए महीने खर्च हो रहे हैं। यह नौबत अकेले मध्यप्रदेश में नहीं है, उसका हिस्सा रह चुके छत्तीसगढ़ में यही हाल है। एक-एक अफसर के बंगले पर दर्जनों कर्मचारी तैनात हैं, और वे अमानवीय स्थितियों में काम कर रहे हैं। अभी कुछ समय पहले ही ऐसे एक बंगले पर तैनात एक बटालियन के सिपाही ने अफसर के लगातार चल रहे जुल्मों से थककर उसे एक थप्पड़ मारी, और बताया कि वह किस आरक्षित जाति का है, और वह अफसर उसका जो बिगाड़ सकता है बिगाड़ ले, वह खुद ही थाने जाकर एसटी-एससी एक्ट में उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखा रहा है। इसके बाद किसी तरह कई अफसरों ने मिलकर दौड़-भाग करके उस जवान को मनाया, और उसे बस्तर में तैनात उसकी बटालियन वापिस भेजा गया। एक दूसरे बहुत बड़े सवर्ण रिटायर्ड अफसर के बंगले पर दर्जनों कर्मचारी तैनात हैं, और उनमें से जो बंगले के भीतर काम करते हैं, उन्हें आकर नहाकर भीतर जाना पड़ता है। खाना पकाने वाले कर्मचारियों को नहाकर बंगले के धोती-कुर्ते में किचन में जाना पड़ता है, और खाना बनाना पड़ता है। अब एक सवर्ण अफसर को एक एसटी-एससी सिपाही के थप्पड़ के बाद भी अगर बाकी लोगों को खतरा समझ नहीं आ रहा है, तो छोटे कर्मचारियों के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव पुलिस कर्मचारियों के परिवारों के आंदोलन के लिए एक पर्याप्त वजह होनी चाहिए। 

जब लोग पुलिस में भर्ती होते हैं, तो वे ऐसे अमानवीय बर्ताव के लिए नहीं आते हैं। सिपाहियों के साथ जब ऐसा बर्ताव होता है, तो मुजरिमों पर कार्रवाई करने का उनका मनोबल भी टूट जाता है, और वे अपने परिवार के बीच भी सिर उठाकर नहीं जी पाते हैं। विभाग के दूसरे कर्मचारियों के बीच भी वे मखौल का सामान बन जाते हैं, और काम के इस तरह के हालात उनके बुनियादी मानवाधिकार के भी खिलाफ हैं। न सिर्फ सरकार को अपने अमले की ऐसी बर्बादी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, बल्कि मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था को भी खुद होकर हर अफसर से हलफनामा लेना चाहिए कि उनके बंगले पर कौन-कौन लोग काम कर रहे हैं, वे किस-किस विभाग से आए हुए हैं। अब ऐसा तभी हो सकेगा जब मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था के अध्यक्ष या सदस्यों के घरों पर इसी तरह से सिपाही या दूसरे कर्मचारी तैनात नहीं होंगे। अगर जजों के बंगलों पर भी यही हाल रहेगा, तो फिर कर्मचारियों के ऐसे बेजा इस्तेमाल के खिलाफ कोई पिटीशन लगाने का भी कोई फायदा नहीं होगा। 

यह पूरा सिलसिला बहुत ही अलोकतांत्रिक और अमानवीय है। यह इंसानों को गुलामों की तरह इस्तेमाल करने का है, और अपनी तनख्वाह से दस-बीस गुना बर्बादी कर्मचारियों की तैनाती की शक्ल में करने का भी है। अब सवाल यह उठता है कि जब तमाम अफसर, रिटायर्ड अफसर, मंत्री, और दूसरे नेता, सभी लोग ऐसी गुलामी-प्रथा का मजा ले रहे हैं, तो कार्रवाई कौन करे? यहां पर पुलिस कर्मचारियों के परिवारों को चाहिए कि इसी एक मुद्दे को लेकर वे जमकर आंदोलन छेड़ें, मीडिया में जाएं, अदालतों में जाएं, तरह-तरह की वीडियो रिकॉर्डिंग जुटाएं, और नेता-अफसर सबका भांडाफोड़ करें। ऐसा लगता है कि अंग्रेज अफसरों के घर पर भी कर्मचारियों की इतनी बड़ी भीड़ नहीं रहती होगी। भोपाल में जिस अखबार के भांडाफोड़ से यह गिनती सामने आई है, वैसे तमाम कर्मचारियों से हलफनामे लेने चाहिए कि वे कहां काम कर रहे थे। उन्हें तैनात करने वाले अफसरों से भी हलफनामे लेने चाहिए कि उन्होंने किस आधार पर कर्मचारियों को किसी बंगले पर भेजा था। हिन्दुस्तान एक गरीब देश है, लेकिन आजादी की पौन सदी बाद भी आज के अफसर अंग्रेज बहादुर की तरह राज कर रहे हैं, और यह सिलसिला सामाजिक दखल से भी खत्म करना चाहिए। जनसंगठनों और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे छोटे-छोटे बेजुबान कर्मचारियों को गुलामी से आजाद कराने के लिए एक सामाजिक आंदोलन छेड़ें, और ऐसे बंगलों के सामने खड़े रहकर आने-जाने वाले कर्मचारियों की रिकॉर्डिंग करें, और बंगलों पर काबिज लोगों का जीना हराम करें। 

बहुत से अफसरों के परिवार कर्मचारियों के साथ तरह-तरह की बदसलूकी करते हैं। कई जगहों पर वर्दीधारी कर्मचारियों को साहबों के बच्चों का पखाना धोना पड़ता है, और उनके जानवरों को नहलाना भी पड़ता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और एक लोकतांत्रिक समाज में ऐसे सामंती सिलसिले की कोई जगह नहीं हो सकती। छत्तीसगढ़ में भी लोगों को आरटीआई के माध्यम से, या बंगलों की निगरानी करके कर्मचारियों के नाम जुटाने चाहिए। विधानसभा के सदस्य अगर खुद इस तरह का बेजा इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें वहां ये सवाल उठाने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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