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चैटजीपीटी बदल रहा है पढ़ाई-लिखाई के तरीके, लेकिन कैसे?
28-Jan-2023 1:09 PM
चैटजीपीटी बदल रहा है पढ़ाई-लिखाई के तरीके, लेकिन कैसे?

जानकारों का कहना है कि चैटजीपीटी जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैटबोट से पढ़ाई-लिखाई के तरीके बदल रहे हैं. ये "भाषायी मॉडल" एकदम सही लगने वाले अकादमिक निबंध लिख सकते हैं. तो क्या ये खतरा है या अवसर, या दोनों?

     डॉयचे वैले पर लुकास श्टॉक की रिपोर्ट-

डोरिस वेसेल्स ने डीडब्लू को बताया कि जब उन्होंने पहली बार चैटजीपीटी में लॉग किया, तो वो एक "जादुई पल" था. डोरिस बिजनेस इंफॉर्मेटिक्स की प्रोफेसर हैं जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और उसके शिक्षा के प्रभावों पर सालों से शोध करती आ रही हैं. इससे कुछ ही दिन पहले, 30 नवंबर 2022 को ओपनएआई नाम की कंपनी ने एआई चालित चैटबोट, चैटजीपीटी को रिलीज किया था.

इंटरनेट ब्राउजर के जरिए कोई भी चैटजीपीटी में इंटरैक्ट कर सकता है. आप सवाल टाइप कीजिए या कमांड दीजिए और चैटजीपीटी जवाब देगा (कमोबेश हर चीज का). उसकी रिलीज के पांच दिनों के भीतर ही, दस लाख लोग उसके ग्राहक बन गए. चैटजीपीटी को लेकर ये दावा किया जाता है कि वो मनुष्य सरीखी योग्यता या प्रवीणता के साथ समझा सकता है, प्रोग्राम कर सकता है और दलील दे सकता है. कील यूनिवर्सिटी ऑफ एप्लाइड साइंसेस से जुड़ी वेसेल्स इस तकनीक से हैरान हैं. वो कहती हैं, "ये दूसरी दुनिया में दाखिल होने की तरह है."

यूनाइटेड किंगडम की ओपन यूनिवर्सिटी में रिटायर्ड प्रोफेसर माइक शार्पल्स ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में अपने 40 साल के करियर के दौरान ऐसे ''प्रमुख आविष्कार'' चुनिंदा ही देखे हैं. उनमें चैटजीपीटी का पूर्ववर्ती जीपीटी-3 भी है. शार्पल्स आगाह करते हैं कि, "जीपीटी, प्लेजियरिज्म (अकादमिक साहित्य की चोरी) को वांछित बना देता है." कुछ शिक्षार्थी, एक मुकम्मल अकादमिक भाषा में अपने निबंध लिखने के लिए इस तकनीक के इस्तेमाल पर परहेज नहीं करते हैं. एक तरह से ये हर किसी के लिए मुफ्त घोस्टराइटिंग की तरह है. लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि चैटजीपीटी के जवाब तथ्यात्मक रूप से गलत हो सकते हैं.

क्या चैटजीपीटी यूनिवर्सिटी शिक्षा के लिए खतरा है?
शोधपत्र लिखने में भी चैटजीपीटी का इस्तेमाल किया जा सकता है. शार्पल्स ने उसके जरिए एक वैज्ञानिक आलेख तैयार किया जो उनके मुताबिक, "पहली अकादमिक रिव्यू को पास कर सकता है." वेसल्स इससे चिंतित हैं. वो कहती हैं कि विश्वविद्यालयों को पीछे रह जाने का खतरा था. एक तरफ, सॉफ्टवेयर उद्योग है जो और भी ज्यादा शक्तिशाली एआई प्रणालियां विकसित कर रहा है. और दूसरी तरफ वे शिक्षार्थी हैं जो अध्यापकों से ज्यादा तेज गति से जानकारी देने वाले एआई का उपयोग करना सीख रहे हैं.

छात्र अक्सर सोशल मीडिया के जरिए रीयल टाइम में तेजी से नयी एआई तकनीक के बारे में सीखते हैं. वे नये नये तरीके भी आजमाते रहते हैं. इस मामले में कुछ अकादमिक कर्मियों और प्रोफेसरों की गति धीमी हो सकती है या वे अपने ढंग से ही काम चलाते हों.

वेसल्स एक "संभावित खौफनाक मंजर" देखती हैं. जब कुछ छात्र अपना त्रुटिहीन यानी सौ फीसदी सही असाइनमेंट जमा कराते हैं तो उनके प्रोफेसर को ये गफलत हो सकती है कि वो उनके पढ़ाए का कमाल था, जबकि वो कुछ और नहीं चैटजीपीटी का कियाधरा होता है या उस जैसे किसी और सिस्टम का.

चैटजीपीटी के खतरे का आकलन करने के लिए बहुत कम डाटा
नयी दिल्ली स्थित एक एकआई विशेषज्ञ देबारका सेनगुप्ता की भी यही चिंता है. आईआईटी दिल्ली में, इंफोसिस सेंटर ऑर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की प्रमुख सेनगुप्ता कहती हैं, "भारत में चैटजीपीटी के बारे में हर किसी को पता है." सेनगुप्ता को चिंता है कि अगर छात्र इस तकनीक के भरोसे रहे तो अकादमिक मापदंडों या स्तर पर असर पड़ेगा. सेनगुप्ता के मुताबिक अगर वे अपने से निबंध लिखना नहीं सीखेंगे और चैटजीपीटी चला देंगे तो वे  "बड़े ही नाकाबिल और लत के शिकार" बन जाएंगे.

लेकिन ऐसी आशंकाओं के पक्ष में अभी भी बहुत कम डाटा उपलब्ध है. चैटजीपीटी को चालू हुए अभी दो महीने ही हुए हैं. सेनगुप्ता कहती हैं, "साहित्यिक चोरी और धोखेबाजी हमेशा से अस्तित्व में रही हैं." उनके मुताबिक शिक्षार्थियों की सीखने की  प्रेरणा को कम नहीं आंकना चाहिए. दूसरी ओर शार्पल्स कहते हैं, "छात्र विश्वविद्यालय में सीखने जाते हैं, जालसाजी करने नहीं."

एआई चैटबोट्स से छात्रों को कैसे मिलेगी मदद
बर्नाडेटे मैथ्यु प्रोफेसर सेनगुप्ता की छात्रा हैं. वो जीवविज्ञान में कैंसर की ग्रोथ पर पीएचडी कर रही हैं. मैथ्यु जो प्रयोग करती हैं उनसे बड़े पैमाने पर डाटा तैयार होता है जिसका विश्लेषण किए जाने की जरूरत है. लेकिन वो हाथों से तो हो नहीं सकता. लिहाजा, कम्प्यूटर की मदद से वो डाटा विश्लेषण की प्रक्रिया को स्वचालित करने और उसकी गति को बढ़ा सकती हैं जिसके लिए वो कोडिंग सीख रही हैं, लेकिन इस चक्कर में उनके शोधकार्य पर भी असर पड़ रहा है.

सेनगुप्ता ने मैथ्यु की मुश्किलों के बारे में सुना और उनका राब्ता चैटजीपीटी से करा दिया. मैथ्यु को उससे बड़ी मदद मिली. चैटबोट ने तफ्सील से वो सब बताना शुरू किया जो वो कोडिंग के बारे में नहीं समझती थी. उनकी कोडिंग में उसने गल्तियां ढूंढ निकाली और कभीकभार तो मैथ्यु उसे ही कोडिंग करने देती हैं.

मैथ्यु कहती हैं कि 99 फीसदी समय ये कारगर रहता है. और सबसे अच्छी बात ये है कि चैटजीपीटी सिर्फ उनका काम नहीं करता, वो उन्हें कोडिंग को समझने में मदद भी करता है. मैथ्यु के मुताबिक इस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने उन्हें "सशक्त" होने का अहसास कराया है कि वो अपने बूते काम कर सकती हैं. वो कहती हैं, "चैटजीपीटी के साथ चैटिंग ऐसे ही है जैसे किसी वास्तविक व्यक्ति के साथ बातें करना. अगर मुझे पहले मालूम होता तो मेरा बहुत सारा समय और मेहनत बच जाती."

मैथ्यु कहती हैं कि ये चैटबोट्स प्रयोगधर्मी जीवविज्ञानियों के काम में "क्रांति" ला सकते हैं. क्योंकि शोधकर्ता सिर्फ अपनी रिसर्च पर ही फोकस करेंगे, कोडिंग करना नहीं सीख रहे होंगे. वेसल्स कहती हैं कि चैटजीपीटी दूसरे क्षेत्रों में भी शिक्षार्थियों की मदद कर सकता है. वो किसी निबंध के शुरुआती कठिन शब्द या पहला पैराग्राफ लिखने के लिए प्रेरित कर सकता है. यानी उन्हें "खाली पन्ने के भय" से निजात दिला सकता है.

चैटजीपीटी को कैलकुलेटर जैसा समझिए
कनाडा के नोवा स्कोटिया प्रांत की अकाडिया यूनिवर्सिटी में साइकोलिंग्विस्ट डेनियल लामेती कहते हैं कि चैटजीपीटी अकादमिक टेक्स्ट के लिए वही काम करेगा जो कैलकुलेटर गणित के लिए करता है. कैलकुलेटर ने गणित की पढ़ाई के तरीके बदल डाले थे. उसके आने से पहले, अंतिम नतीजे का ही बोलबाला था, हल या समाधान. लेकिन जब कैलकुलेटर आए, तो आपको ये दिखाना लाजिमी हो गया कि अपना सवाल आपने कैसे हल किया है, यानी आपका मैथड यानी तरीका.

कुछ जानकारों का कहना है कि अकादमिक निबंधों पर भी यही बात लागू हो सकती है. वे क्या कहते हैं सिर्फ इसी चीज का आकलन नहीं किया जाता है बल्कि इसका भी किया जाता है कि छात्र कैसे एआई से तैयार अपने टेक्स्ट को संपादित करते या सुधारते हैं, यानी उनका तरीका.

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इतनी भी इंटेलिजेंट नहीं
चैटजीपीटी अपने लिखे निबंधों को नहीं समझता है, उसे भाषा का अर्थ नहीं मालूम. प्रोफेसर के दफ्तर में उस तोते की तरह जो संवादों को सुनता है और उन्हें दोहराने लगता है, उसी तरह एक एआई चैटबोट उस भाषा और उन तथ्यों को महज प्रोसेस और पेश ही करता है जो उसमें भरे गए हैं. और ये चीज समस्याएं खड़ी कर सकती है.

चैटजीपीटी से निकले टेक्स्ट के ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें भाषा ऐसी होती है जैसे किसी विशेषज्ञ ने लिखी हो, लेकिन उसकी सामग्री तथ्यात्मक रूप से गलत होती है. लिहाजा जैसा कि दूसरी एआई तकनीकों के साथ होता है, ऐसे टेक्स्ट को रिव्यू करने और दुरुस्त करने के लिए इंसानों की जरूरत पड़ती है. वो संपादन अक्सर पेचीदा होता है और उसके लिए विषय का वास्तविक ज्ञान होना जरूरी है. भविष्य में ये चीज भी विश्वविद्यालयों में ग्रेड के दायरे में लाई जा सकती है.

डीडब्ल्यू ने जिन विशेषज्ञों से बात की, उनका कहना है कि तकनीक तो कहीं नहीं जा रही. वो कहते हैं कि चैटजीपीटी को स्वीकार करना, अध्यापन के लिए एक चुनौती है. लेकिन शिक्षा और शिक्षण के लिहाज से विश्वविद्यालयों के लिए ये एक अवसर भी हो सकता है. देबारका सेनगुप्ता कहती हैं कि एआई से हासिल मौकों का उपयोग करने में, तकनीक प्रेमी भारत खासतौर पर तेजी दिखाएगा. (dw.com)

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