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एक बार असम सीएम से सहमत होने का मौका...
29-Jan-2023 4:10 PM
एक बार असम सीएम से  सहमत होने का मौका...

असम के भाजपा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा देश भर में घूम-घूमकर साम्प्रदायिकता की बातें करने के लिए जाने जाते हैं, और वे भाजपा के मुख्यमंत्रियों के बीच भी हिन्दुत्व के सबसे आक्रामक नेताओं में से एक हैं। इसलिए अभी उन्होंने दो अलग-अलग बयानों में जो कहा उन्हें जोडक़र देखने की जरूरत है। पहले उन्होंने एक बयान में मुस्लिम लड़कियों के कमउम्र में शादी कर दिए जाने के खिलाफ कहा था, और कहा था कि जो आदमी 14 बरस से कम की लड़कियों से शादी करते हैं उन पर बच्चों के सेक्स शोषण के कानून, पॉक्सो एक्ट, के तहत कार्रवाई की जाएगी। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा था कि जो 14 से 18 बरस की उम्र की लड़कियों से शादी करेंगे उन पर बाल विवाह कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी। और अब उन्होंने मानो उसी बात का विस्तार करते हुए कहा है महिलाओं के लिए मां बनने की सही उम्र 22 से 30 साल के बीच हो सकती है, और 30 के आसपास पहुंच रही महिलाओं को जल्द शादी कर लेनी चाहिए। 

कोई भी बात उसे कहने वाले की साख और नीयत से जोड़े बिना देख पाना मुमकिन नहीं होता। असम मुख्यमंत्री सरमा लगातार मुस्लिमों के खिलाफ अभियान चलाते रहते हैं इसलिए उनकी बात को समझना आसान है कि मुस्लिम विवाह कानून के तहत कम उम्र में लड़कियों की शादी की छूट को खत्म करने की वकालत वे कर रहे हैं। लेकिन मुस्लिमों से अपने परहेज के चलते वे जो भी कह रहे हैं, उनसे परे सुप्रीम कोर्ट भी कुछ महीने पहले सरकार से राष्ट्रीय महिला आयोग की एक पिटीशन पर जवाब मांग चुका है कि मुस्लिम लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र भी बाकी धर्मों की लड़कियों की तरह की जानी चाहिए। इस्लाम के प्रावधानों और मुस्लिम समाज के प्रचलित रीति-रिवाजों के चलते बहुत कम उम्र की मुस्लिम लड़कियों की शादी कर दी जाती है, और बहुत से मामलों में तो गरीब नाबालिग मुस्लिम लडक़ी की शादी किसी पैसे वाले बहुत बूढ़े से भी कर दी जाती है। 

अब हम कुछ देर के लिए इन दो मुद्दों से हिमंत बिस्वा सरमा को अलग कर देते हैं, और इन मुद्दों पर सोचते हैं। क्या हिन्दुस्तान के भीतर मुस्लिम समाज के रीति-रिवाजों को जारी रखने के लिए, या उसके नाम पर औरतों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना जायज है? क्या बालिग होने के पहले ही उनकी शादी कर दी जानी चाहिए? असम में 31 फीसदी से अधिक लड़कियों की कम उम्र में ही शादी हो जाती है, और करीब 12 फीसदी लड़कियां बालिग होने के पहले ही मां बन जाती हैं। ये दोनों ही आंकड़े राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक हैं, और यह मानने में अधिक दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि असम की मुस्लिम आबादी की वजह से वहां पर ये आंकड़े इतने अधिक हैं। 

अब असम, मुख्यमंत्री, और भाजपा या हिन्दू-मुस्लिम की बात को छोड़ दें, और मुस्लिम लडक़ी को एक इंसान अगर मानें, तो यह सोचना जरूरी है कि क्या 13-14 बरस की उम्र में, या उससे भी कम उम्र में किसी लडक़ी की शादी कर देनी चाहिए? तब तक तो न उसकी स्कूल की पढ़ाई पूरी होती है, न ही वह घर की एक गुलाम से अधिक कोई और काम करने लायक तैयार हो पाती है। ऐसी लडक़ी कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाती है, और वह लगातार अपने से उम्र में खासे बड़े या दुगुनी-तिगुनी, चारगुनी उम्र के पति की गुलाम बनकर रहने, और जिंदगी के आखिरी के कई बरस विधवा रहकर मरने के लायक ही बन पाती है। ऐसे में एक भाजपा मुख्यमंत्री कहे, या कोई हिन्दुत्ववादी कहे, जो भी कहे, क्या इस बात को नाजायज कहा जा सकता है कि देश में हर धर्म की लडक़ी की शादी की न्यूनतम उम्र 18 बरस होनी चाहिए? और इस मामले में अलग-अलग धर्मों की लड़कियों के हक एक सरीखे माने जाने चाहिए? 18 बरस के उम्र में भी किसी लडक़ी के आत्मनिर्भर होने की संभावना बहुत कम रहती है, आज की दुनिया में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके किसी काम के लायक बनने में और अधिक उम्र गुजर जाती है, लेकिन 18 बरस की उम्र तो लडक़ी की मां बनने लायक भी नहीं रहती। कम उम्र में मां बनने पर ऐसी मां और उसके बच्चों के बचने की संभावना भी कम रहती है। इस मेडिकल तथ्य को अनदेखा करके आज अगर किसी अल्पसंख्यक समुदाय के रिवाजों का सम्मान करने के लिए उसे 10-12 बरस की लडक़ी की शादी की छूट दी जाती है, तो ऐसी संभावित मां और उसके संभावित बच्चों की जिंदगी और सेहत दोनों को खतरे में डाला जाता है। 

सामाजिक रीति-रिवाज अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग कई किस्म के रहते हैं। हिन्दुओं में ही एक वक्त सतीप्रथा को मान्यता थी, बालविवाह होते ही थे, लेकिन इनके खिलाफ कानून बनाकर इनको रोका गया, और लड़कियों और महिलाओं के अधिकार की हिफाजत की गई। समाज की प्रचलित धारणाओं में अगर सुधार करने को किसी समाज की धार्मिक मान्यताओं में दखल मान लिया जाएगा, और उससे मुंह चुराया जाएगा, तो सुधार तो कभी हो ही नहीं सकेगा। आज हिन्दुस्तान में अलग-अलग धर्मों में कई किस्म की बातों को लेकर कानून के रास्ते सुधार आए हैं। मुस्लिम समाज में ही हमेशा से प्रचलित तीन तलाक की प्रथा को मोदी सरकार ने एक कानून बनाकर खत्म किया। लडक़े-लड़कियों के बिना शादी किए साथ रहने के आधुनिक चाल-चलन को सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दी। समलैंगिकता को हिन्दुस्तान में सामाजिक कलंक ठहरा दिया गया था, और अंग्रेजों के वक्त के कानून ने उसे जुर्म भी करार दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे जुर्म के दायरे से बाहर किया। 

लोगों को याद रखना चाहिए कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और इंदिरा की हत्या के बाद के चुनाव में उन्हें अभूतपूर्व, और ऐतिहासिक संसदीय बाहुबल दिया था, तब उन्होंने कांग्रेस के अल्पसंख्यकपरस्त नेताओं के दबाव में सुप्रीम कोर्ट का शाहबानो का फैसला पलट दिया था, और संसद में कानून बनाकर मुस्लिम मर्दों के सामने समर्पण कर दिया था। इसलिए धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर कभी सरकार, कभी अदालत, और कभी समाज, इनकी अलग-अलग या मिलीजुली कोशिशों से सुधार आते हैं, और अगर आज असम की भाजपा सरकार की कोशिशों से मुस्लिम लड़कियों को इंसान की तरह जिंदा रहने का एक हक मिल सकता है, तो इसमें भाजपा के राजनीतिक हितों को देखने के पहले मुस्लिम आबादी के आधे हिस्से, तमाम मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं के हित देखने की जरूरत है। 

असम मुख्यमंत्री ने लड़कियों के मां बनने की जो उम्र सुझाई है, वह चिकित्सा विज्ञान की सुझाई हुई उम्र है। अब एक कट्टर मुस्लिमविरोधी अगर कोई वैज्ञानिक बात करे, तो उसका विरोध करने के लिए विज्ञान को खारिज कर देना जायज नहीं है। जच्चा-बच्चा की मौत घटाने के लिए, दोनों की सेहत बचाने के लिए अगर चिकित्सा विज्ञान कोई उम्र बता रहा है, तो उस उम्र को धर्मों के भीतर प्रचलित रिवाज से परे भी देखने की जरूरत है। यह बात तो है ही कि अगर लडक़ी की शादी कम उम्र में होगी, तो उसके बच्चे भी कम उम्र में होंगे, और सबकी जिंदगी को अधिक बड़ा खतरा रहेगा। इसके साथ इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने बिना किसी लडक़ी को शादी नाम की एक गुलामी में झोंक देना उसके खिलाफ सबसे बड़ी नाइंसाफी है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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