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राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' से क्या हुआ हासिल : छह दिग्गज पत्रकारों की नजर में
30-Jan-2023 5:49 PM
राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' से क्या हुआ हासिल : छह दिग्गज पत्रकारों की नजर में

photo : twitter

- दिलनवाज़ पाशा
सात सितंबर को दक्षिण भारत के कन्याकुमारी से शुरू हुई राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की भारत जोड़ो यात्रा 30 जनवरी को 136 दिन बाद 14 राज्य का सफ़र करते हुए श्रीनगर में समाप्त हो गई.

कांग्रेस पार्टी के अनुसार, राहुल गांधी की इस यात्रा का घोषित उद्देश्य ''भारत को एकजुट करना और साथ मिलकर देश को मज़बूत करना है."

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने बार-बार कहा कि वो देश में नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत की दुकान खोलना चाहते हैं.

यात्रा के दौरान जगह-जगह भाषण देते हुए और मीडिया से बात करते हुए राहुल गांधी ने केंद्र सरकार पर निशाना साधा और बेरोज़गारी, महंगाई, भारत के सीमा क्षेत्र में चीन के दख़ल का मुद्दा उठाया.

राहुल गांधी ने कई बार मीडया को भी निशाने पर लिया और भारत के बड़े उद्योगपतियों गौतम अदानी और मुकेश अंबानी पर भी निशाना साधा.

रविवार को राहुल गांधी की यात्रा समाप्त हो गई. इस यात्रा से पहले कई सवाल थे- राहुल गांधी हासिल क्या करना चाहते हैं, क्या वो विपक्ष को एकजुट कर पाएंगे, क्या वो कांग्रेस को पुनर्जीवित कर पाएंगे?

ऐसे ही कई सवालों पर हमने वरिष्ठ पत्रकारों से बात की, पढ़िए उनका नज़रिया-

अपने ऊपर उठ रहे सवालों को ख़ारिज कर गंभीर नेता के रूप में स्थापित हुए राहुल गांधी
विजय त्रिवेदी, वरिष्ठ पत्रकार

राहुल गांधी ने क़रीब चार हज़ार किलोमीटर की यात्रा की है. बहुत से लोग ये कह रहे हैं कि उन्होंने टी-शर्ट पहनकर ये यात्रा की है. टी-शर्ट पर चर्चा करना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है. इस पर चर्चा करना इस यात्रा को नज़रअंदाज़ करने जैसा है. राहुल गांधी ने एक बहुत बड़ा काम किया है. आज़ाद भारत में चंद्रशेखर की पदयात्रा के बाद ये कोई पहली पदयात्रा हुई है.

राहुल गांधी ने इस यात्रा के ज़रिए उन सभी सवालों को ख़ारिज कर दिया है जो उन पर उठते रहे थे. पहले कहा जाता था कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद नहीं छोड़ेंगे, उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ा, फिर कहा गया कि वो ख़ुद अध्यक्ष बन जाएंगे, लेकिन वो नहीं बने, इसके बाद कहा गया कि अध्यक्ष के चुनाव को टाल दिया जाएगा, लेकिन वो भी नहीं टाला गया. ऐसा कुछ नहीं हुआ और राहुल गांधी ने जो काम करना तय किया था, वो उसमें लगे रहे और उसे पूरा किया.

भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए राहुल गांधी ने एक मज़बूत और गंभीर नेता की छवि बनाई है. बीजेपी और सोशल मीडिया ट्रोल ने राहुल गांधी की अलग छवि बनाई थी. पहले राहुल गांधी का मज़ाक बनाते हुए मीम सोशल मीडिया पर शेयर किए जाते थे. अब ये मीम कम हो गए हैं और राहुल गांधी के लिए सकारात्मक कंटेंट सोशल मीडिया पर बढ़ गया है.

इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी की बहुत-सी ख़ूबसूरत तस्वीरें भी आईं. कहीं राहुल बच्चों के साथ खेल रहे हैं, कहीं बुज़ुर्ग महिला का हाथ थाम रहे हैं तो कहीं आम लोगों को गले लगा रहे हैं. इन तस्वीरें से भी राहुल गांधी की एक सकारात्मक छवि बनी है.

इस यात्रा ने राहुल गांधी के व्यक्तित्व को भी गंभीर बनाया है. हिंदू धर्म में यात्राओं का अहम स्थान रहा है. यात्राएं व्यक्तित्व को गंभीर बनाती हैं. राहुल गांधी ने इस यात्रा के ज़रिए हिंदुस्तान को देखा है, ज़ाहिर है उन्होंने देश के हर गंभीर मुद्दे को भी समझा होगा.

अफ़्रीका से लौटने के बाद जब गांधी भारत आए थे तब उन्होंने भी भारत में यात्राएं कीं और देश को समझा. भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी को देश को समझने का मौका दिया है.

राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी के मज़बूत नेतृत्व के सामने एक ताक़तवर विकल्प के रूप में खड़े होने की कोशिश भी इस यात्रा के ज़रिए की है. यदि राहुल गांधी को बराबर का नेता ना भी कहें तब भी अब वो कतार में तो आ ही गए हैं. अब लोग राहुल गांधी को गंभीरता से ले रहे हैं.

भारत जोड़ो के नारे में राहुल गांधी कितने कामयाब हुए, ये बाद में पता चलेगा. लेकिन इस दौरान राहुल गांधी जिस तरह लगातार प्रधानमंत्री को घेरते रहे उससे उन्हें फ़ायदा हुआ है. सबसे पहले तो वो कांग्रेस के निर्विवादित नेता बन गए हैं. कांग्रेस में विद्रोहियों का जो कथित जी-20 समूह था वो भी शांत हो गया है और सभी ने राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है.

भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं, लेकिन पार्टी के नेता राहुल गांधी ही हैं.

इसके अलावा राहुल गांधी विपक्ष के नेताओं में भी आगे निकल गए हैं. अब तक चाहे ममता बनर्जी हों या अरविंद केजरीवाल, वो सभी राहुल गांधी की गंभीरता पर सवाल उठाते रहे थे. आज उन सभी को लग रहा है कि राहुल गांधी के बिना विपक्ष की एकता मुमकिन नहीं है.

कांग्रेस के कार्यकर्ता भी इस यात्रा के ज़रिए सक्रिय हुए हैं. जिन-जिन राज्यों से ये यात्रा गुज़री है वहां पार्टी और कार्यकर्ता कार्यशील हो गए हैं. एक तरह से कहा जा सकता है इस यात्रा से कांग्रेस पार्टी को नई जान मिली है.

अभी ये नहीं कहा जा सकता है कि भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी या कांग्रेस को राजनीतिक रूप से कितना फ़ायदा होगा. लेकिन यदि कांग्रेस अब अपने दम पर सौ लोकसभा सीटने क स्थिति में भी पहुंच जाती है तो वो निश्चित रूप से विपक्ष का बड़ा चेहरा होंगे.

'राहुल ने साबित किया वो विपक्ष का केंद्र हैं'
राजकिशोर, वरिष्ठ पत्रकार

राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के उद्देश्य को लेकर घोषणा कुछ भी की हो, लेकिन निश्चित तौर पर इस यात्रा का मक़सद उन्हें राजनीतिक तौर पर स्थापित करना है.

जहां तक नफ़रत का माहौल दूर करने की बात है, तो कांग्रेस या किसी भी राजनीतिक दल का परम उद्देश्य यही होना चाहिए. ये देश का मूल मुद्दा है, स्वस्थ समाज के लिए ये ज़रूरी है कि उसमें किसी भी तरह की नफ़रत, वैमनस्य, छुआछूत या घृणा ना हो.

अगर कोई राजनीतिक दल इस तरह का उद्देश्य लेकर आगे चलता है तो सही ही है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान सांप्रदायिकता का मुद्दा उठाया और लोगों को मिलकर एक साथ रहने का संदेश दिया.

राहुल गांधी की इस भारत जोड़ो यात्रा का मक़सद सबसे पहले कांग्रेस पार्टी के भीतर ही उन्हें गंभीर नेता के तौर पर स्थापित करने और उन पर पार्ट टाइम पॉलीटीशियन होने का जो आरोप लगता रहा है, उसे दूर करना था.

आज सवाल ये है कि पूरे देश में मोदी और बीजेपी के ख़िलाफ़ केंद्र कौन होगा, इस यात्रा से राहुल ने इसका जवाब देने की कोशिश की है. नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से उनके विरोधियों को भारत जोड़ो यात्रा ने पहली बार इस तरह का प्लेटफ़ॉर्म दिया है.

भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में आते ही पहला काम ये किया कि कांग्रेस को विपक्षी दल का दर्जा ना देते हुए उसे क्षेत्रीय दलों से भी कमतर साबित करने और राजनीति में किनारे करने की कोशिश की.

राहुल गांधी के लिए सबसे अहम था कि देश की सबसे पुरानी और पहचान वाली पार्टी को पुनर्जीवित करना. भारत का शायद ही कोई गांव ऐसा होगा जहां कांग्रेस पार्टी को लोग ना जानते हों.

विपक्ष में रह-रहकर क्षेत्रीय नेता सामने आ रहे थे. कभी ममता बनर्जी, कभी नीतीश कुमार, कभी केसीआर तो कभी अरविंद केजरीवाल. लेकिन इस यात्रा के ज़रिए राहुल ने ये साबित करने की कोशिश की है कि देश में सत्ता के विपक्ष का केंद्र वही हैं.

राहुल को पहले ख़ुद को स्थापित करना था कि देश में विपक्ष कांग्रेस के बिना नहीं हो सकता है.

जब कांग्रेस सत्ता में थी तब बीजेपी या संघ परिवार उसके विरोध का केंद्र होता था. अब कांग्रेस के सामने ये चुनौती थी कि वो अपने आप को विपक्ष का केंद्र बनाए. राहुल ने इस यात्रा से ऐसा ही किया है. राहुल अपनी इस कोशिश में बहुत हद तक कामयाब भी नज़र आ रही हैं.

यात्रा अब समाप्त हो गई है और राहुल गांधी बहुत से लोगों को अपने साथ लाने में कामयाब भी हुए हैं. हालांकि वो अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, केसीआर और ममता को साथ नहीं ला पाए.

लेकिन सवाल ये है कि विरोध किसने किया? आगे गठबंधन क्या शक्ल लेगा ये सीटों के बंटवारे पर निर्भर करेगा, लेकिन राहुल कम से कम ये साबित करने में तो कामयाब ही रहे हैं कि कांग्रेस का चेहरा वो हैं.

जितनी लंबी यात्रा राहुल गांधी ने की है वैसी यात्रा करना देश में किसी और दल के लिए संभव भी नहीं था. निश्चित तौर पर भारत की राजनीति में राहुल गांधी ने इस यात्रा से एक लंबी लकीर तो खींच ही दी है.

2012 में जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार हुई थी तब कांग्रेस ने एंटनी समिति बनाई थी. उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक तो नहीं हुई थी, लेकिन सूत्रों के हवाले से ये पता चला था कि उस रिपोर्ट में कहा गया था कि कांग्रेस धर्म-निरपेक्ष दिखने की कोशिश में कई बार हिंदू विरोधी दिखने लगती है.

इसमें राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह के कुछ बयानों का ज़िक्र था.

राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि अपनी धार्मिक आस्था, अपनी मां सोनिया गांधी के विदेशी मूल और धर्म को लेकर उठने वालों सवालों पर हमेशा के लिए विराम लगा दें.

राहुल गांधी इस यात्रा में मंदिरों में गए, जनेऊ पहना, बार-बार भगवान का ज़िक्र किया, यानी राहुल गांधी ने अपने दर्शन का खुला प्रदर्शन करने की कोशिश की.

लेकिन एक बात स्पष्ट है कि हिंदुत्व नरेंद्र मोदी की पिच है और इस पर मुक़ाबला करने में कांग्रेस कितना सफल हो पाएगी, इसे लेकर हमेशा सवाल रहे हैं. हिंदुत्व की पिच पर अभी कोई पार्टी बीजेपी की तरह नहीं खेल पाएगी. हालांकि अब बीजेपी राहुल पर उस तरह से हिंदू विरोधी होने का आरोप नहीं लगा पाएगी जैसा लगाती रही है.

और हिंदुत्व सिर्फ़ एकमात्र मुद्दा नहीं है. महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, ये भारत में अब भी बड़े मुद्दे हैं. बीजेपी लंबे समय से सत्ता में है, तो उसका कुछ स्वाभाविक विरोध भी होगा.

ऐसे में भले ही हिंदुत्व के मुद्दे पर राहुल गांधी बीजेपी को बहुत चुनौती ना दे पाएं, लेकिन बीजेपी अब राहुल गांधी को उस तरह हिंदू विरोधी साबित नहीं कर पाएगी जैसा कि करने में वो अब तक सफल रही थी. इस मामले में भले ही आंशिक रूप से, राहुल गांधी सफल तो रहे हैं.

भारत में हिंदुत्व को लेकर कई बयान आए हैं, हिंदू राष्ट्र को लेकर मांग भी उठी है, लेकिन क्या ये सरकार की तरफ़ से हो रहा है? इसका एक पहलू ये भी है कि आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मुसलमानों को आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है. बीजेपी और आरएसएस को ये समझ आ रहा है कि आप एक बड़ी आबादी को धर्म के आधार पर अलग नहीं कर सकते हैं.

देश में लोग नफ़रत और घृणा नहीं चाहते हैं. नफ़रत और घृणा के आधार पर देश या राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता है. भारत अगर अंध धार्मिक राष्ट्रवाद की तरफ़ बढ़ेगा तो पाकिस्तान जैसा हो जाएगा, भारत कभी भी ऐसा बनना नहीं चाहता है.

कांग्रेस हो सकता है ये कहे कि ये राहुल गांधी की यात्रा का असर है. लेकिन ये सच है कि आरएसएस और बीजेपी अब मुसलमानों को अपनी तरफ़ खींचने का प्रयास करते दिख रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी पसमांदा मुसलमानों के लिए कार्यक्रम बना रही है.

बीजेपी मुसलमानों को अलग-थलग करने के आरोपों को ख़ारिज करने के प्रयास करती दिख रही है.

राहुल ने लोगों को जोड़ा लेकिन क्या वो वोट में बदल पाएंगे?
हेमंत अत्री, वरिष्ठ पत्रकार

इस यात्रा से सबसे पहली बात तो ये स्पष्ट हुई है कि अभी भारत में विपक्ष की जगह ख़त्म नहीं हुई है. विपक्ष की जगह अभी भी बरक़रार है, लेकिन विपक्ष को मज़बूत होने के लिए लोगों के बीच जाना होगा और उनसे बात करनी होगी.

पिछले आठ साल में एक तरह से बीजेपी मीडिया में हावी थी या बीजेपी का एकाधिकार था. मीडिया में बात बीजेपी से शुरू होकर बीजेपी पर ही ख़त्म होती थी. लेकिन राहुल ने भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए लोगों के बीच जाकर ये साबित कर दिया है कि विपक्ष भी अपनी जगह बना सकता है. आज सिर्फ़ क्षेत्रीय मीडिया ने ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय मीडिया ने भी राहुल गांधी की कवरेज की है और राहुल दिखाई देने लगे हैं.

राहुल की यात्रा से एक बात और स्पष्ट हई है कि लोग विपक्ष के साथ चलने को तैयार हैं. राहुल की यात्रा में भारी तादाद में लोग आए हैं, ये आगे चलकर वोट में बदलेंगे या नहीं ये भविष्य में पता चलेगा, लेकिन इस यात्रा ने बीजेपी के ख़िलाफ़ एक माहौल तो बनाया ही है.

भारत में बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार के ख़िलाफ़ पहले से ही माहौल है. इस यात्रा में ये मुद्दे भी उठे हैं.

इस यात्रा का असर किसी एक राज्य में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में देखने मिला है. ये नहीं कहा जा सकता कि किसी राज्य में ये कमज़ोर रही है. इससे ये भी दिखा है कि अगर लोगों के बीच रहकर उनकी बात की जाए तो अपनी राजनीतिक ज़मीन भी मज़बूत की जा सकती है, और यही वजह है कि इस यात्रा को लेकर बीजेपी चिंतित है.

बीजेपी को चिंता इस बात की है कि आज जो ये माहौल बना है कल ये विपक्ष की एकजुटता की तरफ़ ना चला जाए. राहुल गांधी ने जुलाई में एक और यात्रा की योजना बनाई है. ये गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक जाएगी.

कांग्रेस ने इस यात्रा के ज़रिए देश में एक लहर पैदा की है. ऐसे में कांग्रेस के पास राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने का एकमात्र ज़रिया यही है कि इस मोमेंटम को आगे बनाए रखे. इसके लिए दूसरी यात्रा करना कांग्रेस की एक ज़रूरत भी होगी.

दूसरी वजह ये है कि आजकल चाहे पारंपरिक मीडिया हो या फिर मुख्यधारा का मीडिया, वो विपक्ष को जगह नहीं दे रहा है. अपने आप को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए अब कांग्रेस के लिए ये और भी ज़रूरी हो गया है कि वो लोगों से सीधा संवाद करे.

इस भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए कांग्रेस ने अपने कार्यकर्ताओं में जो जोश पैदा किया है उसे बनाए रखना भी पार्टी के लिए बहुत ज़रूरी है.

दूसरी यात्रा जुलाई में प्रस्तावित है जो गुजरात के सोमनाथ से शिलॉन्ग तक जाएगी. इस साल 9 राज्यों में चुनाव है, अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होंगे. ऐसे में इस यात्रा का समय भी बहुत अहम होगा.

राहुल गांधी और कांग्रेस गुजरात में एक बहुत बड़ी ग़लती कर चुके हैं. उन्होंने गुजरात को थाली में रखकर बीजेपी को परोस दिया. राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य बड़े नेता गुजरात में प्रचार करने गए ही नहीं.

दूसरी यात्रा के दौरान या कुछ बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होंगे. पार्टी को ये भी तय करना होगा कि वो इन राज्यों में अपना अभियान कैसे चलाएगी.

एक चीज़ और स्पष्ट हुई है कि ऐसा नहीं है कि बीजेपी को हराया नहीं जा सकता है. साल 2019 के बाद कांग्रेस किसी राज्य में चुनाव नहीं जीती थी. लेकिन अब कांग्रेस ने हिमाचल में बीजेपी को हरा दिया है भले ही वो एक छोटा राज्य ही क्यों ना हो.

वहीं दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी ने बीजेपी को हरा दिया है. इससे ये स्पष्ट हुआ है कि बीजेपी अपराजेय नहीं है. विपक्ष को स्थानीय मुद्दे उठाने होंगे, जनता से सीधे संवाद और संपर्क करना होगा और रणनीति से लड़ना होगा, ऐसा करके निश्चित रूप से बीजेपी को चुनौती दी जा सकती है.

कांग्रेस पार्टी अगर राज्यों में अपने अंदरूनी मतभेद दूर करती है और इस मोमेंटम को बरकार रखते हुए चुनाव में जाती है तो निश्चित रूप से बीजेपी को चुनौती दे सकती है. हालांकि ये चुनौती कितनी बड़ी होगी और इसका चुनाव नतीजों पर क्या असर पडे़गा ये फ़िलहाल नहीं कहा जा सकता है.

आज़ादी के बाद से ये कांग्रेस का सबसे बड़ा जनसंपर्क अभियान है. मीडिया ने कांग्रेस को कितनी जगह दी है सवाल ये नहीं है, तथ्य ये है कि कांग्रेस का संदेश आम लोगों तक पहुंचा है. कम से कम कांग्रेस लोगों तक अपनी विचारधारा और मुद्दों को लेकर तो गई है.

ऐसे कई मुद्दे हैं जिन्हें राष्ट्रीय मीडिया नज़रअंदाज़ कर रहा है. जीएसटी, अदानी का कारोबार, नोटबंदी से हुआ नुक़सान, बेरोज़गारी, महंगाई.

ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर राहुल गांधी सबसे प्रखर रहे हैं. भले ही पहले उन्हें 'पप्पू' कहकर ख़ारिज कर दिया गया हो, मीडिया ने उनकी बात को वो प्रथमिकता ना दी हो, लेकिन आज राहुल गांधी जब गंभीरता से ये मुद्दे उठा रहे हैं तो संदेश लोगों तक पहुंच रहा है. बीजेपी इसे ही लेकर चिंतित है.

'विपक्ष को एकजुट करने में नाकाम रहे राहुल गांधी'
उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार

राहुल गांधी ने कहा था कि उनकी इस यात्रा का मक़सद नफ़रत के माहौल को ख़त्म करना है, सद्भावना पैदा करना है और भारत को जोड़ना है. लेकिन ऐसे राजनेताओं की यात्राओं का मक़सद राजनीतिक भी होता है.

जहां तक इस यात्रा के ज़रिए विपक्ष को जोड़ने का सवाल है तो कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी अभी तक इस यात्रा के ज़रिए विपक्ष को एकजुट करने में बहुत कामयाब नहीं हुए हैं. अभी ये नहीं कहा जा सकता कि इस यात्रा के बाद क्या नतीजे निकलेंगे. कई बार ऐसा होता है कि कुछ घटना होती है और उस घटना के कुछ समय बाद चीज़ें स्वरूप लेती हैं. जहां तक वर्तमान का सवाल है, विपक्ष में बिखराव साफ़ नज़र आ रहा है.

कांग्रेस के जो संभावित सहयोगी हैं उनमें से कई तीस जनवरी को श्रीनगर नहीं पहुंच रहे हैं. कुछ ने स्पष्ट कर दिया है कि वो नहीं जा पा रहे हैं. कुछ ख़ामोश हैं. कांग्रेस ने 21 दलों को बुलाया है, अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि कुल कितने दल पहुंच रहे हैं.

संभावित विपक्षी सहयोगी दलों से हमने जानकारी लेने की कोशिश की थी कि कौन-कौन जा रहा है, लेकिन कोई बहुत सटीक या कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक जानकारी अभी तक नहीं मिली है.

विपक्ष दलों की अपनी-अपनी स्थिति और अपने-अपने कारण हैं, वहीं कांग्रेस की भी अपनी वजहें हैं. ये नहीं कहा जा सकता है कि एक तरफ से ही विपक्षी एकजुटता कमज़ोर हो रही है.

बीजेपी इस समय ताक़तवर है और उसके अपने समर्थक और राजनीतिक मशीनरी है. मीडिया भी बीजेपी के साथ है. वहीं विपक्ष अभी भी बिखरा हुआ है. इन परिस्थितियों में विपक्ष के लिए एकजुट होना बहुत ज़रूरी है.

अब तक जब-जब केंद्रीय सत्ता का बदलाव हुआ है, ख़ासकर जब केंद्र में ताक़तवर सत्ता रही है, चाहें वो फिर इंदिरा गांधी का दौर हो या फिर राजीव गांधी की या कोई और सरकार रही हो, यहां तक वाजपेयी की सरकार भी तब ही बदली थी जब विपक्षी दलों ने मोर्चेबंदी की और एक साझा एजेंडे को आगे बढ़ाया या फिर आंदोलन या अभियान चलाया. इसके बिना जनता एकजुट नहीं हो पाती है.

कई बार जब जनता अपने मुद्दों को लेकर सत्ता के विरोध में भी होती है तब भी वो विपक्ष में बिखराव की वजह से समझ नहीं पाती है कि सत्ता के ख़िलाफ़ किसे वोट करे. यही विखराव सत्ताधारी दल के लिए फ़ायदेमंद हो जाता है.

कभी विपक्ष में बिखराव की वजह से कांग्रेस जीता करती थी, आज बीजेपी जीत रही है. बीजेपी को अगर देखा जाए तो देश के बड़े हिस्से में उसका मज़बूत आधार नहीं है लेकिन फिर भी वो जीत रही है. बड़ी संख्या में सीटें लेकर आ रही है क्योंकि विपक्ष में बिखराव है.

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात को छोड़कर बीजेपी कहीं कोई ऐसी बड़ी ताक़त नहीं है जहां उसे चुनौती ना दी जा सके. कर्नाटक में भी अभी उसे चुनौती मिल ही रही है.

ऐसे में विपक्ष अगर एकजुट होता है तो केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को चुनौती दे सकता है. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा विपक्ष को एकजुट करने का एक बड़ा ज़रिया हो सकती थी. लेकिन ये कहा जा सकता है कि राहुल गांधी अभी तक विपक्ष को अपने प्लेटफ़ॉर्म पर नहीं ला सके हैं.

वीपी सिंह जब नेता बन रहे थे, तब किसी को नहीं पता था कि वो प्रधानमंत्री बन जाएंगे, लेकिन वो विपक्ष के अभियान का नेतृत्व कर रहे थे और नेतृत्व करने के कारण ही वो प्रधानमंत्री बने. आज ज़रूरत ये है कि विपक्ष के अभियान का कोई नेतृत्व करे. सवाल यही है कि क्या राहुल गांधी विपक्ष का कोई अभियान छेड़ पाते हैं और उसका नेतृत्व कर पाते हैं?

'पार्टी की अंदरूनी कलह दूर करने में नाकाम रहे राहुल गांधी'

राधिका रामासेषन

भारत जोड़ो यात्रा के बाद ये सवाल है कि क्या राहुल गांधी ने इसके ज़रिए जो मोमेंटम पैदा किया है उसे वो साल 2024 तक बरक़रार रख पाएंगे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए अपनी छवि को बदला है.

वो एक गंभीर राजनेता के रूप में स्थापित हुए हैं. बहुत कट्टर भाजपा समर्थकों को छोड़कर अब कोई उन्हें पप्पू नहीं कहता है. बीजेपी ने उनकी जो एक छवि बनाई थी वो अब टूट गई है.

ऐसे में ये कहा जा सकता है कि इस राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा उनकी छवि को बदलने में कामयाब रही है. लेकिन अब भी सवाल यही है कि क्या ये बदली हुई छवि मतदाताओं को आकर्षित करेगी?

लोकसभा चुनाव में अभी क़रीब डेढ़ साल है. ऐसे में सवाल ये भी है कि राहुल गांधी डेढ़ साल तक क्या इस जोश को बरक़रार रख पाएंगे?

कांग्रेस इस समय कई राज्यों में अंदरूनी रूप से बंटी हुई है. उदाहरण के तौर पर राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच प्रतिद्वंदिता खुलकर सामने आ गई है.

भारत जोड़ो यात्रा चल ही रही थी कि सचिन पायलट ने एक तरह से राजस्थान में अपनी अलग यात्रा शुरू कर दी. वो जगह-जगह जा रहे हैं और बैठकें कर रहे हैं. उन्होंने अशोक गहलोत को लेकर कुछ टिप्पणियां भी की हैं.

वहीं अशोक गहलोत पत्रकारों से सचिन पायलट को लेकर टिप्पणियां कर रहे हैं. राजस्थान राहुल गांधी के सामने बहुत बड़ी चुनौती है.

ऐसी ही चुनौती पंजाब में है. पंजाब में लोग आम आदमी पार्टी की सरकार से बहुत ख़ुश नहीं है. लेकिन क्या कांग्रेस उसका फ़ायदा उठा पा रही है? ऐसा दिख नहीं रहा है.

वहीं हिंदी पट्टी में भी कांग्रेस अपनी पहचान मज़बूत नहीं कर पा रही है. बिहार में कांग्रेस आरजेडी के साथ जुड़ी है, वहां अपनी अलग पहचान नहीं बना पा रही है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत करने का कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ज़रूर मज़बूत होती दिख रही है, लेकिन राजस्थान में स्थिति कांग्रेस के हाथ से निकलती दिख रही है. ऐसे में सिर्फ़ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से ही कांग्रेस को कुछ उम्मीदें होंगी.

वहीं दक्षिण भारत में कांग्रेस हमेशा से मज़बूत रही थी.आपातकाल के बाद जो चुनाव हुए थे उनमें कांग्रेस दक्षिण में ही कुछ सीटें जीत पाई थी. ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को भारत जोड़ो से दक्षिण भारत में कुछ फ़ायदा हो सकता है. कर्नाटक में कांग्रेस मज़बूती से लड़ सकती है.

कर्नाटक राहुल गांधी के साथ सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार

कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच मनमुटाव के कुछ कम होने की भी रिपोर्टें मिल रही हैं. लेकिन सवाल यही है कि क्या कांग्रेस वहां अपने इस मोमेंटम को बरक़रार रख पाएगी. मई में वहां चुनाव होने हैं, ऐसे में जल्द ही इसका पता चल पाएगा.

केरल में पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया था. इस बार भी कांग्रेस को उसे दोहराना होगा. लेकिन वहां शशि थरूर एक फ़ैक्टर हैं. कई बार वो ऐसे बयान देते हैं जिनसे कांग्रेस संतुष्ट नहीं होती है. सवाल ये भी है कि क्या राहुल केरल में पार्टी के संगठन को सुधार पाते हैं?

वहीं तेलंगाना में राहुल की यात्रा में भारी भीड़ जुटी. लेकिन यात्रा के वहां से निकलने के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ प्रतिरोध हो गया. यात्रा निकलने के कुछ समय बाद ही वहां अध्यक्ष के ख़िलाफ़ बग़ावत हो गई. भारत जोड़ो यात्रा का मक़सद कांग्रेस के संगठन को भी जोड़ना था. लेकिन तेलंगाना में भारत जोड़ो यात्रा के निकलते ही संगठन में बिखराव हो गया. तेलंगाना का घटनाक्रम हैरान करता है.

राहुल को फ़िलहाल सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के भीतर से मिलती दिख रही है. पार्टी को मज़बूत करना उनकी ज़िम्मेदारी है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि राहुल गांधी ने इस यात्रा के ज़रिए अपनी साख बनाई है और सहानुभूति हासिल की है, लेकिन अब उनका काम इस साख को वोट में बदलने का होगा. सवाल अब भी यही है कि क्या वो ऐसा कर पाएंगे?

राहुल ने पार्टी को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है, सोशल मीडिया पर भी पार्टी अधिक सक्रिय हुई है, लेकिन अब भी कांग्रेस की इस मामले में बीजेपी से कोई तुलना नहीं की जा सकती है. बीजेपी का संगठन कांग्रेस से कई गुना मज़बूत है.

उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में बीजेपी संगठनात्मक रूप से बहुत मज़बूत है. बीजेपी की अपनी पार्टी तो है ही इसके अलावा लगभग 45 संगठन ज़मीन पर बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. ये बेहद सक्रिय हैं. वहीं दूसरी तरफ़ कांग्रेस के पास ऐसा ढांचा नहीं है.

एनएसयूआई या सेवादल यूपी में ज़मीन पर कहीं नज़र नहीं आते हैं.

राहुल गांधी जब यात्रा कर रहे थे तो पार्टी के लोग उनके साथ चल रहे थे, तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे थे, इससे पार्टी संगठन में कुछ जान तो आई है, लेकिन ये इतनी नहीं है कि अभी बीजेपी से मुक़ाबला कर सके.

राहुल गांधी इस समय संगठन की पूरी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मल्लिकार्जुन खड़गे पर नहीं छोड़ सकते हैं. उन्हें बीजेपी की तरह लगातार कार्यक्रम करने होंगे ताकि उनके कार्यकर्ता सक्रिय रहें और अपने समर्थकों और मतदाताओं के साथ जुड़ने के प्रयास करते रहें.

कांग्रेस को कुछ नए कार्यक्रमों के बारे में सोचना होगा ताकि भारत जोड़ो यात्रा से पैदा हुए जोश को आगे बरक़रार रखा जा सके, अन्यथा इसे ठंडा होने में बहुत दिन नहीं लगेंगे.

'राहुल की छवि तो सुधरी, लेकिन बीजेपी को नुक़सान नहीं'

प्रदीप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

भारत जोड़ो यात्रा का एक मक़सद था राहुल गांधी की छवि का मेकओवर करना. कम से कम इसमें ये यात्रा अब तक सफल रही है.

जहां तक बीजेपी को चुनौती देने की बात है. दो चीज़ों की ज़रूरत है. पहला तो संगठन और दूसरा वैकल्पिक राजनीतिक विमर्श. आज की स्थिति में कांग्रेस में इन दोनों का अभाव दिखता है.

सवाल ये है कि लोग अगर बीजेपी को हटाकर कांग्रेस को सत्ता में लाएं तो क्यों लाएं? राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए इस सवाल का जवाब नहीं दे सके हैं.

अगर जनता मोदी और बीजेपी को हटाती है और कांग्रेस और राहुल गांधी को लाती है तो वो क्या नया करेंगे ये वो अभी तक जनता को नहीं समझा सके हैं. जनता जब तक इस सवाल पर संतुष्ट नहीं होगी वो बीजेपी को किसी तरह की चुनौती नहीं दे पाएंगे.

जब तक राहुल गांधी जनता की विश्वसनीयता हासिल करेंगे तब तक भारत जोड़ो यात्रा या किसी भी अन्य कार्यक्रम का असर नहीं होगा. इस यात्रा से ये ज़रूर हुआ है कि कांग्रेस पिछले चार महीने से चर्चा में हैं. निश्चित रूप से इससे राहुल गांधी की छवि में सुधार हुआ है.

राहुल गांधी ने तमिलनाडु से ये यात्रा शुरू की थी और वो कश्मीर पहुंचे हैं. सवाल ये है कि क्या इससे पार्टी के संगठन को कोई फ़ायदा हुआ. केरल में पार्टी में अंदरूनी कलह चल रही है, तेलंगाना में भी नेतृत्व को लेकर विवाद है, राजस्थान में भी खुला मतभेद है.

ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता है कि राहुल गांधी की इस भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस पार्टी में कोई एकजुटता आई हो. भारत जोड़ो यात्रा के दौरान पार्टी में जगह-जगह मतभेद दिखाई पड़ी है. ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता है कि इस यात्रा के बाद भी कांग्रेस बीजेपी को राजनीतिक चुनौती दे सकेगी.

अभी तक इस यात्रा का हासिल सिर्फ यही नज़र आ रहा है कि लोग राहुल गांधी की बात सुनने लगे हैं. लेकिन अभी ये होता नहीं दिख रहा है कि लोग राहुल गांधी की बात मान रहे हैं.

राहुल गांधी ने ये यात्रा तमिलनाडु से शुरू की. कांग्रेस डीएमके की सहयोगी है इसलिए इसमें एमके स्टालिन शामिल हुए. उनके अलावा फारूख़ अब्दुल्ला इस यात्रा में शामिल हुए हैं. इन दोनों नेताओं को छोड़ दिया जाए तो क्षेत्रीय दल का कोई ऐसा बड़ा नेता इस यात्रा में शामिल नहीं हुआ है जो बीजेपी के ख़िलाफ़ हो.

जो दल यूपीए के सदस्य हैं, जैसे आरजेडी है, नीतीश कुमार यूपीए में नहीं हैं, लेकिन महागठबंधन में हैं. महाराष्ट्र के शरद पवार या उद्धव ठाकरे, दोनों कांग्रेस के साथ गठबंधन में हैं, लेकिन वो शामिल नहीं हुए, अपने बच्चों को उन्होंने यात्रा में भेजा.

अगर इस यात्रा से राजनीति में कोई बड़ा बदलाव आता दिख रहा होता तो विपक्षी दलों में भरोसा बढ़ता कि हम राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में ही बीजेपी को चुनौती दे सकते हैं और हमें उसके साथ खड़े होना चाहिए. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है.

राहुल गांधी देश में नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत फैलाने की बात करते हैं. राहुल गांधी ने जब यात्रा शुरू की थी तब उन्होंने कहा था कि 'देश में नफ़रत है और मैं मोहब्बत की दुकान खोलना चाहता हूं.'

क़रीब तीन हज़ार किलोमीटर चलने के बाद उन्होंने दिल्ली में कहा कि मैं तीन हज़ार किलोमीटर चला हूं और मुझे देश में कहीं नफ़रत नहीं दिखाई दे रही है. यानी राहुल गांधी ने ख़ुद अपनी ही बात को काट दिया. राहुल गांधी ये दावा करते रहे हैं कि देश में नफ़रत है, लेकिन जब उन्हें ही नफ़रत नहीं दिखी तो फिर नफ़रत है कहां?  (bbc.com/hindi)

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