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महात्मा का ‘शरारती पर गंभीर’ चेहरा, उनकी हँसी से मुग्ध होना ही पड़ता है-रोमां रोलां
01-Feb-2023 2:55 PM
महात्मा  का ‘शरारती पर गंभीर’ चेहरा, उनकी हँसी से मुग्ध होना ही पड़ता है-रोमां रोलां

-अपूर्व गर्ग 

कितना प्यारा दृश्य है। सुंदर मुस्कुराहट और खिलखिलाहट। 3500 किलोमीटर से ज्यादा  की यात्रा के बावजूद राहुल अपनी बहन के साथ बर्फ से खेल रहे हैं, खिलखिला रहे हैं।

ये मुस्कान ये चहचहाहट नेहरूजी से लेकर राजीव गांधी में भी थी।

और ऐसा खिलखिलाता, हँसता चेहरा गांधीजी का भी था। गांधीजी जितने गंभीर उतनी ही मोहक उनकी मुस्कान थी।

नेहरूजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : ‘जिसने महात्माजी की हास्य मुद्रा नहीं देखी, वह बेहद कीमती चीज देखने से वंचित रह गया है।’

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी गांधी के बारे में कहते थे- ‘ही इज ए मैन ऑफ लाफ्टर।’

‘दीनबन्धु’ चाल्र्स फ्रीयर एंड्रयूज का चश्मा नहीं मिल रहा था उन्होंने गांधीजी से पूछा उसके बारे में तो गांधीजी उनकी हड़बड़ाहट के मजे लेने लगे कुछ चश्मे दिखाए जो उनके नहीं थे। उनकी हड़बड़ाहट के मजे लेते रहे और हँसते रहे।

1931 में  रोमां रोलां ने गांधीजी की कैसी छवि दर्ज की। गांधीजी के चेहरे में वो और उनके परिवार ने क्या देखा। रोमां रोलां की डायरी में गांधीजी के चेहरे  पर अद्भुत टिप्पणी है। उन्होंने अपनी डायरी में 1931 में ये लिखा- 

‘गांधी को देखने के बाद उनके बारे में मेरी बहन और प्रिवा दंपत्ति का ख्याल है कि वे लम्बे नहीं हैं, मस्तक बड़ा है, गंजे नहीं हैं, लेकिन बाल छोटे कटे  हुए हैं, सुंदर न होने पर भी बड़े मधुर हैं  (यहाँ तक कि अंतत: वो अच्छे लग ही जाते हैं) ललाट माथे की ओर चढ़ जाता है, आगे के दाँत नहीं हैं (आम तौर पर मुँह नहीं खोलते, लेकिन हँसने पर मुँह खुल ही जाता है और साथ ही दाँत के बदले सामने की खाली जगह दीख पड़ती है, प्रिवा दंपत्ति का तो ख्याल है, अंत में उनकी हँसी से मुग्ध होना ही पड़ता है) -शरीर का रंग वैसा काला नहीं  है, लगभग यूरोपियन लोगों जैसा ही है- मोटे चश्मे के पीछे से अत्यंत सजीव दो आँखें झांकती हैं, वे आँखें सीधी चेहरे की ओर देखती हैं, एकदम भीतर तक पैठ जाती हैं- उसमें शरारत का भाव है और रसिकता का भी, जिसके बीच अचानक गंभीर हो जाते हैं, एकाग्र होकर सोचने लगते हैं। उनके गले की आवाज बड़ी मीठी और गंभीर है। ...शुद्ध निर्दोष अंग्रेजी बोलते हैं।.. बहुत साफ-सुथरे रहते हैं। छोटी सी छोटी बात भी उनकी नजर से नहीं चूकती।

प्रिवा कहते हैं ‘डर था कि वहां जाकर किसी साधु-संत धर्म पुरोहित को देखूंगा अथवा वैसे ही किसी तेजस्वी को। लेकिन देखा एक सुकरात को। सच, उनके बारे में मुझे सबसे ज्यादा सुकरात की बात ही याद आती है, खासतौर पर जब बगल से उनका चेहरा देखता हूँ।’

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