संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक लाड़ले बच्चे से परे स्कूल शिक्षा में कुछ नहीं
02-Feb-2023 4:18 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  : एक लाड़ले बच्चे से परे स्कूल शिक्षा में कुछ नहीं

खुद पढ़ाने नहीं जाते, प्रधान पाठक ने किराए पर रखा शिक्षक

छत्तीसगढ़ की दो छोटी-छोटी घटनाएं अलग-अलग इलाकों की स्कूलों की हैं, लेकिन इन्हें मिलाकर लिखने की जरूरत है। गरियाबंद के ग्रामीण इलाके में पांचवीं के एक छात्र की शिक्षिका ने माचिस की तीली जलाकर उसके गले पर रख दिया जिससे जख्म हो गया है। परिवार ने शिकायत अफसर से की है, शिक्षिका का कहना है कि बच्चा कम बोलता है, उसे चंचल बनाने के लिए उसने यह टोटका किया था। स्कूल में दो ही शिक्षक हैं, एक पहले से किसी दुर्घटना में जख्मी है, और अब यह शिक्षिका भी छुट्टी पर चली गई है, स्कूल बंद हो गया। एक दूसरे मामले में कोरबा जिले के एक सरकारी आवासीय विद्यालय में एक छात्र को घर से लौटने में देर हुई, तो हॉस्टल अधीक्षक ने दूसरे सीनियर छात्रों से इस छात्र की चप्पलों से पिटाई करवाई, इस लडक़े को भी जिला अस्पताल में भर्ती किया गया है, और मामले की जांच की जा रही है। छत्तीसगढ़ में बहुत सी स्कूलों से ऐसे वीडियो सामने आते हैं जिनमें शिक्षक शराब के नशे में धुत्त स्कूल में बैठे हुए हैं, या फर्श पर पड़े हुए हैं, और उनके आसपास बच्चे बैठे हुए हैं। अधिकतर मामलों में यह हाल सरकारी स्कूलों में ही हैं जहां पर जवाबदेही नहीं के बराबर है। सरकारी स्कूलों के ऐसे हाल पर सोचने की जरूरत है, और इसीलिए हम आज यहां यह चर्चा छेड़ रहे हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक स्कूल शिक्षा से जुड़े हुए तमाम पहलू परले दर्जे के भ्रष्टाचार के शिकार रहे हैं। मंत्री से लेकर अफसरों तक, और स्कूलों में काम करने वाले लोगों तक भ्रष्टाचार बहुत बुरी तरह फैला हुआ है। पिछली भाजपा सरकार के समय की बात हो, या आज की कांग्रेस सरकार की बात हो, स्कूलों की फर्नीचर-खरीदी से लेकर वहां दोपहर के सरकारी खाने तक, तमाम मामलों में भ्रष्टाचार इतना आम है, और इतना बड़ा है कि जिम्मेदार लोगों का तमाम ध्यान बस इसी में लगे रहता है कि इस विभाग को कैसे दुहा जा सकता है। इसमें सहूलियत की बात यह भी रहती है कि विभाग से जुड़े हुए बच्चे जुबान खोल नहीं सकते, भ्रष्टाचार को समझते नहीं हैं, और सरकारी स्कूलों के बच्चों के गरीब मां-बाप की अधिक जुबान होती नहीं है। इसलिए जिस तरह निजी स्कूलों में पालक-शिक्षक बैठक होती है जिसमें बच्चों के मां-बाप स्कूलों की कमियों और खामियों को गिनाते हैं, उस तरह का कुछ सरकारी स्कूलों में नहीं होता जहां पर कि गरीब परिवारों के बच्चों को अहसान करने के अंदाज में पढ़ाया जाता है। 

कोई भी ऐसा विभाग जिसमें मंत्री से लेकर नीचे तक तमाम लोगों की दिलचस्पी अधिक से अधिक वसूली और उगाही में रहती है, विभाग को इस हद तक दुह लिया जाता है कि उसके थन से खून निकलने लगे, तो फिर विभाग के काम, पढ़ाने में भला किसकी दिलचस्पी रह सकती है? और छत्तीसगढ़ में जिस तरह शिक्षाकर्मियों के भरोसे पढ़ाई चलती है, जिनका कि जिले के बाहर कोई तबादला भी नहीं हो सकता, वहां पर वे शिक्षाकर्मी पढ़ाने जाते भी हैं या नहीं, यह जानकारी भी कम से कम ग्रामीण इलाकों में तो नहीं रहती है। यह सिलसिला शिक्षा की बुनियाद को इतना खोखला कर गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के ज्ञान के एक मूल्यांकन में छत्तीसगढ़ बहुत ही पिछड़ा हुआ मिला है कि यहां के बच्चे अपनी कक्षा से कई क्लास नीचे की भी जानकारी नहीं रखते हैं। यह दिक्कत इसलिए भी है कि सरकार और समाज में जरा सी भी ताकत रखने वाले लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, और सरकारी स्कूलों से किसी ताकतवर के परिवार पर फर्क नहीं पड़ता। 

छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक दूसरी चीज भी हो रही है। सरकार ने स्वामी आत्मानंद के नाम पर चुनिंदा सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी स्कूल बनाना शुरू किया है। अब तक ऐसे कई सौ अंग्रेजी स्कूल बन चुके हैं जिनके लिए मौजूदा सरकारी स्कूलों में से सबसे अच्छे ढांचे वाले स्कूल छांटकर उन्हें आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बना दिया गया है। इनके लिए अलग से शिक्षक नियुक्त किए गए हैं, या मौजूदा शिक्षकों में से जो बेहतर हैं, उन्हें आत्मानंद स्कूल भेजा गया है। जिलों में कलेक्टरों के हांके चलने वाले डीएमएफ (जिला खनिज निधि) से अंधाधुंध पैसा आत्मानंद स्कूलों को आलीशान बनाने में खर्च किया जा रहा है, और ऐसे स्कूलों की तस्वीरें स्कूल विभाग की कामयाबी की तरह फैल रही हैं। हकीकत यह है कि पढ़ाई को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से करवाने के लिए चुनिंदा स्कूलों पर ऐसे किसी खर्च की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि अंग्रेजी पढ़ाने के लिए बेहतर इमारत नहीं लगती, बहुत बेहतर फर्नीचर नहीं लगता। सरकार इन बरसों में शायद पांच फीसदी स्कूलों को भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं बना पाई है, और बाकी तकरीबन तमाम गरीब बच्चे टूटी-फूटी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिनकी मरम्मत तक नहीं हो रही है, क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान आत्मानंद अंग्रेजी स्कूलों पर है। 

हिन्दी भाषी इलाके की सरकार की अंग्रेजी भाषा को लेकर इतनी हीनभावना समझ से परे है। एक वक्त हिन्दुस्तान पर राज करने वाले अंग्रेजों की भाषा सिखाने के लिए आज बाकी स्कूलों का हक छीनकर अंग्रेजी के लिए इतने महंगे ढांचे तैयार करना अपनी खुद की भाषा को लेकर एक हीनभावना के अलावा और कुछ नहीं है। प्रदेश में विपक्षी भाजपा को भी इस बात की समझ नहीं है कि 95 फीसदी से अधिक गरीब बच्चों के हक छीनकर अगर 5 फीसदी अंग्रेजी बच्चों को दिया जा रहा है, तो यह सामाजिक विसंगति उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी है। लेकिन छत्तीसगढ़ में सामाजिक समानता के मोर्चे पर विपक्ष के मुर्दा रहने का यह पहला मौका नहीं है, जब भाजपा की सरकार पन्द्रह बरस थी, तब विपक्षी कांग्रेस पार्टी भी गरीबों के हक के मुद्दों पर कुछ ऐसी ही थी, और वही वजह थी कि भाजपा लगातार तीन विधानसभा चुनाव, तीन लोकसभा चुनाव, और तीन म्युनिसिपल चुनाव जीत सकी थी। 

सरकारी स्कूल शिक्षा इतने गरीब तबके का मुद्दा है कि शायद ही कोई विधायक अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाते होंगे। स्कूलों की हालत खराब है, और सरकार मानो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी का वक्त गुजार देने के लिए इन स्कूलों को किसी तरह चला रही है, इनका उत्कृष्टता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऐसे माहौल में अब सरकार का लाड़ला बच्चा आत्मानंद स्कूल के नाम पर उसके तमाम साधन-सुविधाओं का अकेला हकदार बन गया है, और प्रदेश में बाकी स्कूलों की बदहाली की चर्चा करने वाले लोग भी नहीं रह गए हैं, विपक्ष में भी नहीं। 
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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