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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नफरत की बातों के सैलाब अदानी की तरफ से नजरें दूसरी तरफ खींचने के लिए
07-Feb-2023 3:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   नफरत की बातों के सैलाब अदानी की तरफ से नजरें  दूसरी तरफ खींचने के लिए

photo : twitter

हिंदुस्तान में धार्मिक और साम्प्रदायिक नफरत की बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं। महीनों गुजर गए जब सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के अफसरों को यह खुली चेतावनी दी थी कि उनके इलाकों में अगर कोई नफरत की बातें करें, और उनके खिलाफ जुर्म दर्ज न हों, तो अफसरों का ऐसा निकम्मापन और उनकी ऐसी अनदेखी अदालत की अवमानना मानी जाएगी। लेकिन महीनों गुजर गए, नफरत का सैलाब उसी रफ्तार से चल रहा है, और देश की सरकारें, अधिकतर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं। अभी जरा से दिन पहले राजस्थान में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच से अपने-आपको बाबा कहने वाले रामदेव ने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ माईक से इतना जहर उगला, इतना जहर उगला कि उसे उनके कारखानों के सारे मिलावटी शहद से भी मीठा नहीं किया जा सकता था। और कई दिन तक जब रामदेव का यह वीडियो सोशल मीडिया पर तैरते रहा, तब जाकर राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने रामदेव के खिलाफ जुर्म दर्ज किया। 

कल ही सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने नफरत की बातों को लेकर कहा है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर नफरती-जुर्मों की कोई गुंजाइश नहीं है, हेट स्पीच को लेकर कोई समझौता नहीं हो सकता। अदालत ने साफ-साफ कहा कि अगर सरकारें नफरत की ऐसी बातों को एक समस्या मानेंगी, तो ही उनका समाधान निकल सकेगा। जजों ने कहा कि अपने नागरिकों को ऐसे घृणित अपराधों से बचाना राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी है। कल जब सुप्रीम कोर्ट सरकारी वकील को उत्तरप्रदेश के एक मुस्लिम के साथ हुए साम्प्रदायिक जुल्म पर रिपोर्ट दर्ज न करने पर फटकार रहा था, तो अदालत की फिक्र साफ दिख रही थी। लेकिन पिछले कुछ दिनों में दिल्ली में हुई धर्म-संसद नाम के एक धर्मांध और साम्प्रदायिक हिंदू जमावड़े के जो वीडियो तैर रहे हैं, वे साम्प्रदायिक फतवे देने वाले तमाम लोगों की गिरफ्तारी के लिए काफी होने चाहिए थे, लेकिन खुलेआम मुस्लिमों और ईसाईयों के जनसंहार के आव्हान भी दिल्ली पुलिस को जुर्म दर्ज करने के लिए काफी नहीं लगे, और यह इसी दिल्ली के दिल में बैठे हुए सुप्रीम कोर्ट के लिए आत्मविश्लेषण का एक मौका भी है कि क्या वह एक लोकतंत्र में  बोल रहा है, या किसी गुफा में अकेले कुछ बड़बड़ा रहा है।

नफरत की बातें करने वाले तथाकथित धार्मिक लोग हिंदुस्तान में एक तालिबानी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं, और इसके लिए ओवरटाईम मेहनत भी कर रहे हैं। चारों तरफ बहुसंख्यक हिंदू समुदाय, और उसके वोट बैंक पर राजनीति करने वाली पार्टी या गठबंधन को भी लोगों में यह उन्माद ठीक लग रहा है क्योंकि यह सत्ता पर वापिसी का सबसे कामयाब फॉर्मूला साबित हो चुका है। ऐसी उन्मादी भीड़ यह अच्छी तरह जानती है कि लोकतांत्रिक मुद्दों को लेकर होने वाले मतदान के मुकाबले धार्मिक ध्रुवीकरण के बाद होने वाला साम्प्रदायिक जनमत संग्रह उनके लिए अधिक संभावनाएं रखता है। इसलिए एक-एक करके हिंदू-मुस्लिम खाई खड़ी करने वाले मुद्दों को उठाया जा रहा है, और मुस्लिमों के प्रतीक के रूप में पाकिस्तान को इस तरह खलनायक पेश किया जाता है कि मानो वह हिंदुस्तानी मुस्लिमों का प्रतिनिधि है, हिंदुस्तानी मुस्लिमों को इस तरह पेश किया जाता है कि वे पाकिस्तान के यहां पर छूट गए प्रतिनिधि हैं। और इन तमाम तरकीबों से हिंदुओं के मन में यह दहशत पैदा की जाती है कि हिंदू खतरे में हैं। कल सोशल मीडिया पर किसी समझदार ने यह बात लिखी है कि पहले हिंदू सिर्फ खतरे में था, अब हिंदू (अदानी की वजह से) घाटे में भी है। अब जब अदानी की वजह से सरकारी बैंकों और एलआईसी के मार्फत दसियों हजार करोड़ का घाटा, और उससे कई गुना अधिक का खतरा जनता के मत्थे मढ़ दिया गया है, तो उसके दर्द की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए देश में तेजी से बाबाओं की जुबानी हिंदू-मुस्लिम नफरत फैलाई जा रही है ताकि अदानी से जख्मी जनता अपन दर्द भूलकर साम्प्रदायिकता में उलझी रहे। यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में अदानी की मिल्कियत, एनडीटीवी, ने भी अदानी की तरफ से किसी पर साजिश की तोहमत नहीं लगाई, लेकिन आरएसएस के अखबार पांचजन्य ने भारत के कई विश्वसनीय मीडिया संस्थानों पर अदानी के खिलाफ साजिश का आरोप लगा दिया, कई पत्रकारों के नाम गिना दिए, और कई सामाजिक संगठनों पर विदेशी साजिश में हिस्सेदारी की तोहमत लगा दी। रातों-रात एक स्वघोषित सांस्कृतिक संगठन, आरएसएस, के अखबार ने खोजी अखबारनवीसी करके कई बरसों से अदानी के खिलाफ चल रहे इस राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘षडयंत्र का भांडाफोड़’ किया और अदानी को एक क्लीनचिट देकर देश के हिंदुओं को यह संदेश दिया कि परेशानी में घिरे अदानी का साथ देना है। और मानो यह काफी नहीं था तो आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने अभी दो दिन पहले हिंदू समाज की वर्णव्यवस्था को लेकर एक अविश्वसनीय किस्म का बयान दिया, और फिर उस पर एक स्पष्टीकरण आया, और मीडिया का एक हिस्सा अदानी को छोड़ इन बयानों में उलझ गया। यह सब कुछ बहुत मासूम सिलसिला हो, ऐसा गले नहीं उतरता है। कुल मिलाकर दिखता यह है कि अदानी को बचाने के लिए भी जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम मुद्दों के टायर जलाकर सडक़ों पर रखे जा रहे हैं, ताकि लोगों का अदानी की तरफ से ध्यान हट जाए। यह तमाम कोशिशें उस वक्त हो रही हैं जब संसद चल रही है, और वहां पर सरकार अदानी के नाम पर घिरी हुई है। 

साम्प्रदायिकता की बातें, मुस्लिम समाज के रीति-रिवाज को लेकर कानून, ईसाईयों पर धर्मांतरण की तोहमतें, भारत के खिलाफ पाकिस्तान की तरफ से आतंकी साजिशें, जाति-व्यवस्था का विवाद, ये तमाम चीजें हाल के बरसों में बड़ी सहूलियत के साथ जनधारणा प्रबंधन के काम आ रही हैं, और देश को इन खतरों की शिनाख्त करना अब तक सीख लेना चाहिए था। सोशल मीडिया इस काम में एक बड़ा औजार बनकर मौजूद है, और देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मानो इसके मुकाबले अपने-आपको धारदार हथियार बनाकर पेश कर रहा है। देश की थोड़ी बहुत रही-सही उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से है, लेकिन उसकी मजबूरी यह है कि वह अदानी, संघ, और हेट स्पीच को एक साथ मिलाकर नहीं देख सकता है, लेकिन जनता तो देख सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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